प्रेम की मूसलाधार बारिश से,
हर बार बचा ले जाती है ख़ुद को,
वो तन्हा है........
है प्रेम की पीड़ा से सराबोर,
नहीं बचा है एक भी अंग इस दर्द से आज़ाद।
जब-जब बहारों का मौसम आता है,
वो ज़र्द पत्ते तलाशती है ख़ुद के भीतर,
हरियाले सावन में अपना पीला चेहरा...
छुपा ले जाती है बादलों की ओट,
कहीं बरस न पड़े.....
उसके अंतस का भादों;
पलकों की कोर से।
माँग में;
पतझड़ का बसेरा हुआ जब से,
सूख गयी है वो....
जेठ के दोपहर सी;
कि अब, बस एक ही मौसम बचा है
उसके आस-पास
वैधव्य का।
-अपर्णा बाजपेई
सटीक प्रस्तुति
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteवाह!स्त्री की अंतर्वेदना को उभारती शानदार अभिव्यक्ति.
ReplyDeleteबहुत खूब .............
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (07-01-2019) को "मुहब्बत और इश्क में अंतर" (चर्चा अंक-3209) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक