Tuesday, December 31, 2019

कलाम सर लौट के जरूर आना...आनंद मेहरा


शब्दों की सीमा पता चल गयी ,
समझ गया कलम का रुकना !
इतना सा कहना हैं और लिखना हैं -
कलाम सर ,लौट के जरूर आना !!

आँखे नम हैं ,दिल भारी ,कागज भी फड़फड़ा रहा -हे !
भारत रत्न देखो आज आसमान भी जार जार रो रहा !
तुम चिरनिद्रा में सो गए ,हे !
कर्मयोगी युगपुरुष हमसे रूठ क्यों चले गए !!

क्या लिखूं ,कैसे परिभाषित करूँ -
कैसे तुम अब्दुल से कलाम बने ? !
कहाँ से शुरू करूँ , कहाँ ख़त्म करू -
कैसे तुम रामेश्वरम से भारत माँ के लाल बने ? !!

शब्दों की भी अपनी एक सीमा हैं ,
तुम उससे परे !
हे !मानवता के अग्रदूत -अब्दुल ,
तुम "कलाम" को सही अर्थ दे गए !!  


Monday, December 30, 2019

हल्की बर्फ़ में .....पूजा प्रियंवदा

हल्की बर्फ़ में

एक हाथ थामे रखता है

घुमावदार पगडंडियों पर

दिल फिसले तो फिसले

तुम न फिसलो !

****************

उसके होंठ चुनते हैं

मेरे होंठों से

बर्फ़ के ताज़ा फ़ाहे

बर्फ़ गर्म और मीठी

मैंने पहली बार चखी.




Sunday, December 29, 2019

जो भी होगा अच्छा होगा...महेन्द्र वर्मा

जो  भी   होगा  अच्छा   होगा,
फिर क्यूँ सोचें कल क्या होगा ।

भले  राह  में  धूप  तपेगी,
मंज़िल पर तो साया होगा ।

दिन को ठोकर खाने वाले,
तेरा  सूरज  काला  होगा ।

पाँव  सफ़र  मंज़िल सब ही हैं,
क़दम-दर-क़दम चलना होगा ।

कभी बात ख़ुद से भी कर ले,
तेरे   घर   आईना   होगा । 

Saturday, December 28, 2019

बदलाव प्रकृति का नियम है..…सुमन


जीवन में हर चीज बदल रही है !
नाजुक चीजे कुछ ज्यादा ही,
प्रेम उतनाही नाजुक है 
जितना की गुलाब का फूल !
लेकिन गुलाब जितना नाजुक 
उतना ही आँधी,वर्षा, तेज धूप 
के विरुद्ध शक्तिशाली,संघर्षरत !
जो सुबह-सुबह सूरज की 
सुनहरी किरणों के साथ 
खिलता खिलखिलाता है !
हवा की सरसराती तालपर 
झूमता,डोलता, नाचता  है !
और साँझ होते ही मुरझाने 
लगता है    … 
बदलाव प्रकृति का नियम है !
चीजों को बदलकर नित नविन 
शक्ल में ढाल देती है प्रकृति !
इस प्राकृतिक प्रक्रिया से
प्रेम भी अछूता नहीं होता !
परिस्थितियों की आँधियों 
और वक्त की तेज धूप से 
वो भी मुरझाने लगता है 
बिलकुल इसी गुलाब की 
तरह  ..… !!

Friday, December 27, 2019

वस्तुतः शब्द आईना ही होते हैं ....डॉ. नवीन दवे मनावत

शब्द अगर
आईना होता
तो पहचानता
वह परछाई
जिसे घसीटा जाता है
लंबे रेगिस्तानी
रास्तों पर
प्राप्त करने को
वह खोह
जिसमे समा सके
आदमी की
तलाश और...
चाह की मंजिल.

शब्द अगर आईना
बनकर घूमता
उस जगह जहां
छिपाया जाता है
सूरज को!
दबाई जाती है चांद
की रोशनी को
तब वहां केवल
जुगनुओं की रोशनी में
मंत्रणाएं होती है
तब उस समय
शब्द बताता..
यथार्थ की कविता।

शब्द आईना बनकर
देखना चाहता है
कैसी बनावट होगी
आदमी की?
उसके अन्तर्रोदन की
पीड़ा और संवेदना
कैसी होगी?
और ....
एकांतित क्षण के
विचार
कैसे पनपते होंगे?

वस्तुतः
शब्द आईना ही होते हैं
जो बताते हैं
आदमी की औकात
कि वह कितना
गिरता है..
या गिरे हुए को
उठाता है।
जिसकी तस्वीर
खींचता रहता है
हरदम शब्द रूपी
आईना..
-डॉ. नवीन दवे मनावत

Thursday, December 26, 2019

सर्द मौसम में मीठी होती है सुबह की धूप...नित्यानंद गएँ

अँधेरे की शिकायत नहीं करूंगा
रौशनी का  एक गुच्छा तुम्हें दूंगा
तुम केवल उसे किसी मार्ग पर लगा देना
ताकि पथिक पहुँच सकें अपनी मंजिल तक
बिना गिरे
उदासी की बात नहीं करूंगा
एक मुठ्ठी मुस्कान दूंगा तुम्हें
तुम उसे बाँट देना
सहमे हुए बच्चों में
हताश होने पर
तुम्हें सुनाऊंगा क्रांति की महान कहानियाँ
अंधकार रात में
तुम्हें चाँद के किस्से सुनाऊंगा
तनहाई में तुम्हें बताऊंगा सागर की विशालता
हम पंछियों से सुनेंगे
आकाश के बारे में
मरुस्थल में जीवन के बारे में जानेंगे
धूप में रेत को चमकते हुए देखेंगे मिलकर
सर्द मौसम में मीठी होती है
सुबह की धूप
आओ मुस्कुराना सीखें !!


लेखक परिचय - नित्यानंद गएँ 

Wednesday, December 25, 2019

अलाव के निकट......सुजाता प्रिय

निकट बगीचे से मंगली चाची,
सुखी लकड़ियाँ बीनकर
लायी।शाम ढली तो
वह घर के आगे,
उसे जोड़कर
अलाव
जलायी।
अलाव देखकर लक्ष्मी दादी,
लाठी टेक लपकती आई।
पारो काकी भी जब
देखी,झट से
आई फेक
रजाई।
चौका-पानी कर गौरी बूआ,
हाथ-पाँव फैला गरमाई।
टोले के बच्चों को
उसने,'पूस की
रात' कथा
सुनाई।
नेहा ,बबली ,चुन्नी , रानी,
गुड़िया लेकर दौड़ीआई।
पप्पु ,मुन्ना राजू चुन्नु ने,
चटपटे चुटकुले
खूब
सुनाई।
कल्लू चाचा बीरन दादा ने,
गाये रामायण की चौपाई।
बूआ, दादी, चाची
मिलकर,भजन
करी बड़ी
सुखदाई।
अलाव की यह सोंधी खुशबू,
हर पीढी के मन में भाई ।
ठिठुरन दूर किया
हम सबका,सर्दी
ने जब हमें
सताई।
एकता का प्रतीक अलाव,
एक सूत्र में सबको
बंधबाई।अलाव
ने सबको गर्मी
देकर,जग
हितकारी
संदेश
सिखाई !!


Tuesday, December 24, 2019

बुढ़ापा....अनुराधा चौहान

बीता बचपन आई जवानी
ढलती रही उम्र वक़्त के साथ
बुढ़ापे ने भी दे दी दस्तक
भागता रहा समय का चक्र
ये क्षणभंगुर जीवन के पल
यह भी ढल जाएंगे ढलते-ढलते
बस यादें ही हैं खट्टी-मीठी
जिनके संग अब ज़िंदगी बीते
तजुर्बोे की पोटली से निकले
इस क्षणभंगुर जीवन का सार
आँखो की कमजोर रोशनी
रुखा होता अपनों का व्यवहार
बुढ़ापा होता जीवन पर भारी
आश्रित जीवन बना लाचारी
कम होता बच्चों का प्यार
कैसा है ये उमर का पड़ाव
बिखरती आशाएं दम तोड़ते सपने
झुर्रियों के जाल में फंसा मन
ढलती उम्र जीने की माया
कमजोर मन निर्बल होती काया
आँखो में घूमता अतीत का साया
बुढ़ापे ने दी जब से जीवन में दस्तक
खत्म हुआ रौब, शान-शौकत
जीवन की मीठी यादों में
अब यह जीवन बीत रहा !!




Monday, December 23, 2019

उफ़ ये जिंदगी....पारुल कनानी

डूबी सी है खुद के अन्दर
ढूँढती है फिर भी समंदर
जाने क्यों ये खाली जिंदगी
उफ़!ये साली जिंदगी !!
फिक्र में धुएँ का कश है
इतना ही तो इस पे बस है
एक घूँट सवाली जिंदगी
उफ़! ये साली जिंदगी !!
जाने कैसी है ये बोटी
रूखी-सूखी,खरी-खोटी
एक तमाशा तेरा मेरा
और तन्हाई से हासिल ताली जिंदगी
उफ़! ये साली जिंदगी !!
ख़्वाबों से रोज छनती है
खामखा मुझ में सनती है
मन के जैसी जाली जिंदगी
उफ़! ये साली जिंदगी !!
कुछ बुझी सी धूप भी है
कुछ जली सी छाँव भी
और कहीं पे पड़ गए हैं
सोच के कुछ पाँव भी
उबली उबली सी है अब भी
गरम चुस्की भरी ख्याली जिंदगी
उफ़!ये साली जिंदगी !!

लेखिका परिचय - पारुल कनानी 

Friday, December 20, 2019

आदमी अकेले जीना नही चाहता....रवीन्द्र भारद्वाज


आदमी अकेले आता है 
और अकेले जाता है 

लेकिन अकेले जीना नही चाहता 
ना जाने क्यों !

वह मकड़ी का जाल बुनता है रिश्तों का 
और खुद ही फँसता जाता है 

उस जाल से वह जितना निकलने की कोशिश करता है 
उतना ही उलझता जाता है 

लेखा परिचय - रवीन्द्र भारद्वाज

Thursday, December 19, 2019

अदाएँ तुम्हारी..... रश्मि शर्मा

बड़ी खूबसूरत अदाएँ तुम्हारी
बदन पर चमकती शुआएँ तुम्हारी!

मेरे तन पे लिपटा दुपट्टा हरा ये
दुपट्टे में उलझी ,दुआएँ तुम्हारी!

मैं तन्हा खड़ी हूँ, किसी ने पुकारा
यूँ हौले से आती सदाएँ तुम्हारी!

हवा आई तेरा ही पैगाम लेकर
मैं आई हूँ लेने बलाएँ तुम्हारी!

रोशन है तन-मन,मेरे संग संग हैं
तुम्हारी मुहब्बत,वफ़ाएँ तुम्हारी!
-रश्मि शर्मा


Tuesday, December 17, 2019

वक़्त कितना क्या पता रिश्तों को सुलझाने तो दो :(

ये अँधेरा भी छंटेगा धूप को आने तो दो
मुट्ठियों में आज खुशियाँ भर के घर लाने तो दो

खुद को हल्का कर सकोगे ज़िन्दगी के बोझ से
दर्द अपना आँसुओं के संग बह जाने तो दो

झूम के आता पवन देता निमंत्रण प्रेम का
छू सके जो मन-मयूरी गीत फिर गाने तो दो

बारिशों का रोक के कब तक रखोगे आगमन
खोल दो जुल्फें घटा सावन की अब छाने तो दो

सब की मेहनत के भरोसे आ गया इस मोड़ पर
नाम है साझा सभी के तुम शिखर पाने तो दो

पक चुकी है उम्र अब क्या दोस्ती क्या दुश्मनी
वक़्त कितना क्या पता रिश्तों को सुलझाने तो दो ...

लेखक परिचय - दिगंबर नासवा


Monday, December 16, 2019

चंद हाइकु ...नादिर अहमद खान

दुख (हाईकु)
सूखती नदी
उजड़ते मकान
अपना गाँव

कैसा विकास
लोगों की भेड़ चाल
सुख न शांति

गाँवों में बसा  
नदियों वाला देश
पुरानी बात 

सूखती नदी
बढ़ता गंदा नाला
मेरा शहर 

बिका सम्मान
क्या खेत खलिहान
दुखी किसान 

लोग बेहाल
गिरवी जायदाद
कहाँ ठिकाना 

सड़े अनाज
जनता है लाचार
सोये सरकार 

Sunday, December 15, 2019

कुहासे का स्‍वेटर ... रश्मि शर्मा

कुहासे का स्‍वेटर
सूरज ने पहना
कुहासे का स्‍वेटर
और
बच्‍चों की तरह
हौले-हौले
कदम रख चल पड़ा है
आकाश के पथ पर
सफर में अपने
एक-एक कर खोलेगा वो
स्‍वेटर के सारे बटन
और
शर्माई सी धूप
गुनगुना उठेगी
खिलखिला उठेगी......
-रश्मि शर्मा

Friday, December 13, 2019

बेसन की सोंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी माँ :)

बेसन की सोंधी रोटी पर
खट्टी चटनी जैसी माँ
याद आती है चौका बासन
चिमटा फुकनी जैसी माँ



बान की खुर्री खाट के ऊपर

हर आहट पर कान धरे
आधी सोयी आधी जागी
थकी दुपहरी जैसी माँ



चिडियों की चहकार में गूंजे

राधा-मोहन अली-अली
मुर्गे की आवाज से खुलती
घर की कुण्डी जैसी माँ



बीबी बेटी बहन पडोसन

थोडी थोडी सी सब में
दिनभर एक रस्सी के ऊपर
चलती नटनी जैसी माँ



बाँट के अपना चेहरा माथा

आँखे जाने कहाँ गयीं
फटे पुराने एक एल्बम में
चंचल लड़की जैसी माँ 


Thursday, December 12, 2019

स्त्री मन की पीड़ा....गुंजन गोयल


पीड़ा जब अति रूप धारण करती है
तब गर्भ से जन्मती हूँ .. मैं
शब्दों का एक गोला
नर्म, गुदाज़, लिजलिजा,
मेरे खुद के खून से सना हुआ
जिसे देखने भर से
घिन्नाने लगती है ये दुनिया
पर मेरा क्या
मैंने तो कोख में पाला है इसे
खुद के खून से सींचा है इसे
कभी मेरे मन की पीड़ा को
महसूस करके तो देखो
एक बार उसे जन्मके तो देखो
प्राण तज़ दोगे
वहीँ के वहीँ ..
शब्दों को जन्मना आसान नहीं होता
खासकर तब जब लहुलुहान हो जाती हैं
हमारी संवेदनायें
तब जब खून से लिसड़ जाती हैं
हमारी भावनायें ..

Wednesday, December 11, 2019

घर में माँ की कोई तस्वीर नही :(



घर में माँ की कोई तस्वीर नही
जब भी तस्वीर खिचवाने का मौका आता है
माँ घर में खोई हुई किसी चीज को ढूंढ रही होती है
या लकड़ी घास और पानी लेने गई होती है
जंगल में उसे एक बार बाघ भी मिला
पर वह डरी नही
उसने बाघ को भगाया घास काटी घर आकर
आग जलाई और सबके लिए खाना पकाया

मई कभी घास या लकड़ी लाने जंगल नही गया

कभी आग नही जलाई
मई अक्सर एक जमाने से चली आ रही
पुरानी नक्काशीदार कुर्सी पर बैठा रहा
जिस पर बैठ कर तस्वीरे खिचवाई जाती है
माँ के चेहरे पर मुझे दिखाई देती है
एक जंगल की तस्वीर लकड़ी घास और
पानी की तस्वीर खोई हुई एक चीज की तस्वीर !!

ब्लॉग - Love You Mom



Tuesday, December 10, 2019

रिश्तों पर बर्फ....... दिलबागसिंह विर्क


अहम् की पट्टी 
स्वार्थ के फाहे रखकर 
जब बाँध लेते हैं हम 
सोच की आँखों पर 
तब जम जाती है 
रिश्तों पर बर्फ 
दम घुट जाता है रिश्तों का 

दिल में गर्माहट रखकर 

बढाते हैं जब हाथ 
मिट जाती हैं सब दूरियां 
पिघल जाती है बर्फ 
जीवित हो उठते हैं रिश्ते 
प्यार की संजीविनी पाकर 

रिश्तों पर बर्फ 

जमने और पिघलने का 
कोई मौसम नहीं होता 
अविश्वास, अहम्, स्वार्थ  
जमा देते हैं बर्फ 
विश्वास, वफा, प्यार 
पिघला देते हैं इसे !!

लेखक परिचय - दिलबागसिंह विर्क 


Monday, December 9, 2019

आओ, अलाव जलाएँ....ओंकार


आओ, अलाव जलाएँ,
सब बैठ जाएँ साथ-साथ,
बतियाएँ थोड़ी देर,
बांटें सुख-दुख,
साझा करें सपने,
जिनके पूरे होने की उम्मीद 
अभी बाक़ी है.

हिन्दू, मुसलमान,

सिख, ईसाई,
अमीर-गरीब,
छोटे-बड़े,
सब बैठ जाएँ 
एक ही तरह से,
एक ही ज़मीन पर,
खोल दें अपनी 
कसी हुई मुट्ठियाँ,
ताप लें अलाव.

घेरा बनाकर तो देखें,

नहीं ठहर पाएगी 
इस अलाव के आस-पास 
कड़ाके की ठंड...!!

लेखक परिचय - ओंकार 


Sunday, December 8, 2019

सौन्दर्यबोध ....श्वेता सिन्हा

दृष्टिभर
प्रकृति का सम्मोहन
निःशब्द नाद
मौन रागिनियों का
आरोहण-अवरोहण
कोमल स्फुरण,स्निग्धता
रंग,स्पंदन,उत्तेजना,
मोहक प्रतिबिंब,
महसूस करता सृष्टि को 
प्रकृति में विचरता हृदय
कितना सुकून भरा होता है
पर क्या सचमुच,
प्रकृति का सौंदर्य-बोध
जीवन में स्थायी शांति
प्रदान करता है?
प्रश्न के उत्तर में
उतरती हूँ पथरीली राह पर
 कल्पनाओं के रेशमी 
 पंख उतारकर
ऊँची अटारियों के 
मूक आकर्षण के 
परतों के रहस्यमयी,
कृत्रिमताओं के भ्रम में
क्षणिक सौंंदर्य-बोध
के मिथक तोड़
खुले नभ के ओसारे में
टूटी झोपड़ी में
छिद्रयुक्त वस्त्र पहने
मुट्ठीभर भात को तरसते
नन्हें मासूम,
ओस में ओदायी वृक्ष के नीचे
सूखी लकडियाँ तलाशती स्त्रियाँ
बारिश के बाद
नदी के मुहाने पर बसी बस्तियों
की अकुलाहट
धूप से कुम्हलायी
मजदूर पुरुष-स्त्रियाँ
कूड़ों के ढेर में मुस्कान खोजते
नाबालिग बच्चे
ठिठुराती सर्द रात में
बुझे अलाव के पास
सिकुड़े कुनमुनाते 
भोर की प्रतीक्षा में
कंपकंपाते निर्धन,
अनगिनत असंख्य
पीड़ाओं,व्यथाओं 
विपरीत परिस्थितियों से
संघर्षरत पल-पल...
विसंगतियों से भरा जीवन
असमानता,असंतोष
क्षोभ और विस्तृष्णा
अव्यक्त उदासी के जाल में
भूख, 
यथार्थ की कंटीली धरा पर
रोटी की खुशबू तलाशता है
ढिबरी की रोशनी में
खनकती रेज़गारी में
चाँद-तारे पा जाता है
कुछ निवालों की तृप्ति में
सुख की पैबंदी चादर
और सुकून की नींद लेकर
जीवन का सौंदर्य-बोध 
पा जाता है
जीवन हो या प्रकृति
सौंदर्य-बोध का स्थायित्व
मन की संवेदनशीलता नहीं
परिस्थितिजन्य
 भूख की तृप्ति
 पर निर्भर है।
-श्वेता सिन्हा

Saturday, December 7, 2019

कब तक...? ....श्वेता सिन्हा

कब तक...?

फिर से होंगी सभाएँ
मोमबत्तियाँ
चौराहों पर सजेंगी
चंद आक्रोशित नारों से
अख़बार की
सुर्खियाँ फिर रंगेंगी
हैश टैग में
संग तस्वीरों के
एक औरत की
अस्मत फिर सजेगी
आख़िर हम कब तक गिनेंगे?
और कितनी अर्थियाँ
बेटियों की सजेंगी?
कोर्ट,कानूनों और भाषणों
के मंच पर ही
महिला सशक्तिकरण
भ्रूण हत्या,बेटी बचाओ
की कहानियाँ बनेंगी
पुरुषत्व पर अकड़ने वाले को
नपुंसक करने की सज़ा
कब मिलेगी?
मुज़रिमों को
पनाह देता समाज
लगता नहीं
यह बर्बरता कभी थमेगी
क्यों बचानी है बेटियाँ?
इन दरिन्दों का
शिकार बनने के लिए?
पीड़िता, बेचारी,अभागी
कहलाने के लिए
बेटियाँ कब तक जन्म लेंगी ?
-श्वेता सिन्हा
मूल रचना

Friday, December 6, 2019

मैं कच्‍ची मिट्टी.....सीमा सिंघल सदा


मैं उतरना चाहती हूं 
तेरे मन के आंगन में 
मां तेरी ही तरह 
बसना चाहती हूं सबके दिलों में 
यूं जैसे तेरी ममता 
बसती है ...दर्पण की तरह जिसमें 
जिसकी भी नजर पड़ती है 
उसे अपना ही 
अक्‍स नज़र आता है ... !!!

मैं कच्‍ची मिट्टी 

तुम उसकी सोंधी सी महक 
अंकुरित हुई तेरे 
प्‍यार भरे पावन मन में, 
तुलसी के चौरे की 
परिक्रमा करती जब तुम 
आंचल थामकर 
मैं चलती पीछे-पीछे 
संस्‍कार से सींचती 
तुम मेरा हर कदम 
मैं डगमगाती जब भी 
तुम उंगली पकड़ाती अपनी 
मैं मुस्‍करा के चलती 
संग तुम्‍हारे कदम से कदम मिलाकर ... !!!!

लेखक परिचय - सीमा सिंघल सदा


Thursday, December 5, 2019

देश में महँगी है ज़िंदगी ...दुष्यन्त कुमार


हालात-ए-जिस्म सूरत-ए-जाँ और भी ख़राब 
चारों तरफ़ ख़राब यहाँ और भी ख़राब 

नज़रों में आ रहे हैं नज़ारे बहुत बुरे 
होंटों में आ रही है ज़बाँ और भी ख़राब 

पाबंद हो रही है रिवायत से रौशनी 
चिम्नी में घुट रहा है धुआँ और भी ख़राब 

मूरत सँवारने में बिगड़ती चली गई 
पहले से हो गया है जहाँ और भी ख़राब 

रौशन हुए चराग़ तो आँखें नहीं रहीं 
अंधों को रौशनी का गुमाँ और भी ख़राब 

आगे निकल गए हैं घिसटते हुए क़दम 
राहों में रह गए हैं निशाँ और भी ख़राब 

सोचा था उन के देश में महँगी है ज़िंदगी 
पर ज़िंदगी का भाव वहाँ और भी ख़राब 
-दुष्यन्त कुमार

Wednesday, December 4, 2019

खड़े है मुझको खरीदार देखने के लिए - राहत इंदौरी

खड़े है मुझको खरीदार देखने के लिए/ मै घर से निकला था बाज़ार देखने के लिए
खड़े है मुझको खरीदार देखने के लिए 
मै घर से निकला था बाज़ार देखने के लिए 

हज़ार बार हजारो की सम्त देखते है 
तरस गए तुझे एक बार देखने के लिए 

कतार में कई नाबीना लोग शामिल है 
अमीरे-शहर का दरबार देखने के लिए 

जगाए रखता हूँ सूरज को अपनी पलकों पर 
ज़मीं को ख़्वाब से बेदार देखने के लिए 

अजीब शख्स है लेता है जुगनुओ से खिराज़ 
शबो को अपने चमकदार देखने के लिए 

हर एक हर्फ़ से चिंगारियाँ निकलती है 
कलेजा चाहिए अखबार देखने के लिए 
- राहत इंदौरी