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Friday, May 25, 2018

चकल्लस...लक्ष्मीनारायण गुप्त

कभी सोचता हूँ
यह सारी चकल्लस
छोड़के दुनिया से
संन्यास ले लूँ

लेकिन क्या इससे
कोई फरक पड़ेगा
संन्यासी अपनी पुरानी
अस्मिता को नकार देता है
अपना ही श्राद्ध कर देता है

लेकिन फिर नया नाम लेता है
नई अस्मिता शुरू करता है
और वही मुसीबतें
वही चकल्लस फिर 
शुरू हो जाती हैं

पहले लाला सोहनलाल को
अपनी दूकान चलानी होती थी
अब सोहनानंद भारती को
अपना आश्रम चलाना होता है

जब तक ज़िन्दगी है
तब तक चकल्लस भी है
इस लिए जो भी कर रहे हो
करते रहो, करते रहो


-लक्ष्मीनारायण गुप्त
—-२२ मई, २०१८