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Saturday, November 19, 2016

महफ़िलों में एक जलती नज़्म गा लेते हैं हम...दिलीप


बढ़ रही सर्दी में इक बस्ती जला लेते हैं हम...
प्यास जो बढ़ने लगी, खूं से बुझा लेते हैं हम...

इस सियासत ने हमें करतब सिखाए हैं बहुत...
आँख से सड़कों की भी काजल चुरा लेते हैं हम...

जुर्म अब करते यहाँ है, ताल अपनी ठोक के...
और फिर हंसता हुआ बापू दिखा देते हैं हम...

खूँटियों से बाँध कर रखते हैं अपनी बेटियाँ...
भाषणों में उसको इक देवी बता लेते हैं हम...

क्या करें उस जंग के मैदान के भाषण का हम...
भर चुकी हर पास बुक, गीता बना लेते हैं हम...

बैठ कर घुटनों के बल, सिज्दे में क्या क्या न कहा...
उसकी कुछ सुनते नहीं, अपनी सुना लेते हैं हम...

हमसे ज़्यादा गर हुनर वाला दिखे तो बोलना...
लाश के ढेरों पे भी, दिल्ली बसा लेते हैं हम...

मुल्‍क़ की रहमत का हमपर, क़र्ज़ जो बढ़ता दिखे....
महफ़िलों में एक जलती नज़्म गा लेते हैं हम...

-दिलीप