Thursday, November 30, 2017

हर दीपक दम तोड़ रहा है...कुसुम कोठारी

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चारों तरफ कैसा तूफान है
हर दीपक दम तोड़ रहा है

इंसानों की भीड जितनी बढी है
आदमियत उतनी ही नदारद है

हाथों मे तीर लिये हर शख्स है
हर नजर नाखून लिये बैठी है

किनारों पे दम तोडती लहरें है
समंदर से लगती खफा खफा है

स्वार्थ का खेल हर कोई खेल रहा है
मासूमियत लाचार दम तोड रही है

शांति के दूत कहीं दिखते नही है
हर और शिकारी बाज उड रहे है

कितने हिस्सों मे बंट गया मानव है
अमन ओ चैन मुह छुपा के रो रहा है।
-कुसुम कोठारी

Wednesday, November 29, 2017

गुल ओ गुल-ज़ार की बातें करें.....'अख्तर' शीरानी

यारो कू-ए-यार की बातें करें
फिर गुल ओ गुल-ज़ार की बातें करें

चाँदनी में ऐ दिल इक इक फूल से
अपने गुल-रुख़्सार की बातें करें

आँखों आँखों में लुटाए मै-कदे
दीदा-ए-सरशार की बातें करें

अब तो मिलिए बस लड़ाई हो चुकी
अब तो चलिए प्यार की बातें करें

फिर महक उट्ठे फ़ज़ा-ए-ज़िंदगी
फिर गुल ओ रुख़सार की बातें करें

महशर-ए-अनवार कर दें बज़्म को
जलवा-ए-दीदार की बातें करें

अपनी आँखों से बहाएँ सैल-ए-अश्क
अब्र-ए-गौहर-बार की बातें करें

उन को उल्फ़त ही सही अग़्यार से
हम से क्यूँ अग़्यार की बातें करें

'अख़्तर' उस रंगीं अदा से रात भर
ताला-ए-बीमार की बातें करें.
-'अख्तर' शीरानी

Tuesday, November 28, 2017

व्यथा शब्दों की....शबनम शर्मा


आसमान के ख़्याल,
धरा की गहराई, 
रात्री का अँधेरा, 
दिन की चमक, 
शब्द बोलते हैं।

इन्सान की इन्सानियत,
हैवान की हैवानियत, 
फूल की मुस्कान, 
काँटों का ज्ञान, 
शब्द बोलते हैं।

प्रकृति का प्रकोप, 
जवान की शहादत, 
विधवा का विलाप, 
बच्चों की चीत्कार, 
शब्द बोलते हैं।

शब्दों की चोट,
मन की खोट, 
नज़रों का फेर, 
गहन अन्धेर, 
शब्द बोलते हैं।

शब्दों पर कटाक्ष, 
शब्दों पर प्रहार, 
शब्दों का दुरुपयोग, 
शब्दों का आत्मदाह, 
सिर्फ़ शब्द झेलते हैं।

- शबनम शर्मा

Monday, November 27, 2017

साँस भर जी लो.....डॉ. शैलजा सक्सेना

तपो,
अपनी आँच में तपो कुछ देर,
होंठों की अँजुरी से
जीवन रस चखो-
बैठो...

कुछ देर अपने सँग
अपनी आँच से घिरे,
अपनी प्यास से पिरे,
अपनी आस से घिरे,
बैठो...

ताकि तुम्हे कल यह न लगे
साँस भर तुम यहाँ जी न सके।।

-डॉ. शैलजा सक्सेना

Sunday, November 26, 2017

दिल की गलियों से न गुज़र....पावनी दीक्षित 'जानिब'

बड़ी हसरत थी तमन्ना थी प्यार हो जाए 
किसी दीवाने की चौखट पे दिल ये खो जाए ।

ले चलीं हमको बहाकर अश्कों में यादें तेरी 
दिल का तूफ़ान मुझे क्या जाने कहां ले जाए।

हो गया इश्क़ तो दिवानगी का आलम है ये 
हमारे घर का पता कोई तो हमको दे जाए।

दिल की गलियों से न गुज़र ये जान लेवा हैं 
जिसको मरने का शौक़ हो तो वहां वो जाए।

इस जमाने में नहीँ मिलते वफ़ादार सनम 
किसी मगरूर से न दिल को प्यार हो जाए।

बड़े समझौते करने होंगे ये 'जानिब' सुनले 
दिल में रहकर कोई न दर्द ए बीज बो जाए ।
पावनी दीक्षित 'जानिब' 
सीतापुर

Saturday, November 25, 2017

चुप.....प्रियंका सिंह



मैं 
चुप से सुनती 
चुप से कहती और 
चुप सी ही रहती हूँ 

मेरे 
आप-पास भी 
चुप रहता है 
चुप ही कहता है और 
चुप सुनता भी है 

अपने 
अपनों में सभी 
चुप से हैं 
चुप लिए बैठे हैं और 
चुप से सोये भी रहते हैं 

मुझसे 
जो मिले वो भी 
चुप से मिले 
चुप सा साथ निभाया और 
चुप से चल दिए 

मेरी 
ज़िन्दगी लगता है 
चुप साथ बँधी 
चुप संग मिली और 
चुप के लिए ही गुज़री जाती है 

कितनी 
गहरी, लम्बी और 
ठहरी सी है ये 
मेरी 
चुप की दास्ताँ........

- प्रियंका सिंह
priyanka.2008singh@gmail.com

Friday, November 24, 2017

कान्हा घूंघर पैर धरे हैं ....डॉ. इन्दिरा गुप्ता

ठुमकि ठुमकि गईया के बाड़े 
कान्हा घूंघर पैर धरे हैं 
कमर कछनियाँ खुलि खुलि जाये 
लटपटाय कर गिरत उठत है ! 

आधी कछनिया फँसी कमर मै 
आधी भूमि पर लहराये 
नाय सुधि कछु कान्हा को वाकी 
चाहे खुली के गिर ही जाये ! 

जकड़ पाँव गईया मय्या को 
एक हाथ पुनि थन पकड़त है 
काचौ दूध पिये है पचि पचि 
नैकु ना बछड़े से डरपत है ! 

गय्या अति नेह के खातिर 
पूछ से खुद सूत दूर हटाये 
कान्हा दूध पी ले पेट भर 
ममत्व भाव थन भरि भरि आये ! 

ना दूध की इच्छा कोई 
नाय कछनिया ध्यान 
गय्या के प्रति नेह का 
कान्हा कर रहे प्रतिदान ! ! 

डॉ. इन्दिरा गुप्ता ✍

Thursday, November 23, 2017

ये दिलासा...तरुणा मिश्रा

मुझे आज इतना दिलासा बहुत है..
कि उसने कभी मुझको चाहा बहुत है ;

उसी की कहानी उसी की हैं नज़्में...
उसी को ग़ज़ल में उतारा बहुत है ;

बड़ी सादगी से किया नाम मेरे...
तभी दिल मुझे उसका प्यारा बहुत है ;

उठाओ न ख़ंजर मेरे क़त्ल को तुम...
मुझे तो नज़र का इशारा बहुत है ;

किसी और से कोई पहचान क्या हो...
सितमगर वही एक भाया बहुत है ;

सिवा उसके कोई नहीं आज मेरा....
वही दर वही इक ठिकाना बहुत है ;

गले तो मिले दिल मिलाते नहीं हैं...
ज़माने में यारों दिखावा बहुत है ;

निग़ाहें मिलाते अगर सिर्फ़ हम से...
यक़ीनन ये कहते भरोसा बहुत है ;

ज़माने का आख़िर भरोसा ही क्या है....
फ़क़त इक तुम्हारा सहारा बहुत है ;

लुटाए हुए आज बैठी हूँ ख़ुद को ..
मुहब्बत करो तो ख़सारा बहुत है ;

तुम्हें पा लिया है ज़माना गंवा कर..
मेरे वास्ते ये असासा बहुत है ;

कड़ी धूप का है ज़माना ये ‘तरुणा’...
मुझे उसकी पलकों का साया बहुत है...!!

Wednesday, November 22, 2017

एक ख़त ...!!!....तरुणा मिश्रा

ख़त तुमको दिलदार लिखूँगी..
पायल कंगन हार लिखूँगी ;

मैं कश्ती हूँ जीवन तूफां...
पर तुमको पतवार लिखूँगी ;

जो है उल्फ़त नए चलन की...
उसको कारोबार लिखूँगी ;

सीने से एक बार लगा लो...
तुमको अपना प्यार लिखूँगी ;

जब भी मयस्सर होगी फ़ुर्सत...
मिलना नदिया पार लिखूँगी ;

तुम हो मेरे , हाँ मेरे हो...
एक नहीं सौ बार लिखूँगी ;

तुम ही नहीं तो मैं काजल को...
इन पलकों पर भार लिखूँगी ;

तुम बिन जो बीतेगा 'तरुणा'...
उस पल को आज़ार लिखूँगी..!!
(आज़ार- दुःख )


Tuesday, November 21, 2017

घर पहुँचना....कुंवर नारायण


हम सब एक सीधी ट्रेन पकड़ कर 
अपने अपने घर पहुँचना चाहते 

हम सब ट्रेनें बदलने की 
झंझटों से बचना चाहते 

हम सब चाहते एक चरम यात्रा 
और एक परम धाम 

हम सोच लेते कि यात्राएँ दुखद हैं 
और घर उनसे मुक्ति 

सचाई यूँ भी हो सकती है 
कि यात्रा एक अवसर हो 
और घर एक संभावना 

ट्रेनें बदलना 
विचार बदलने की तरह हो 
और हम सब जब जहाँ जिनके बीच हों 
वही हो 
घर पहुँचना
1927-2017
-कुंवर नारायण

Monday, November 20, 2017

अबकी बार लौटा तो .......कुंवर नारायण सिंह


1927-2017
अबकी बार लौटा तो 
बृहत्तर लौटूंगा 
चेहरे पर लगाए नोकदार मूँछें नहीं 
कमर में बांधें लोहे की पूँछे नहीं 
जगह दूंगा साथ चल रहे लोगों को 
तरेर कर न देखूंगा उन्हें 
भूखी शेर-आँखों से 

अबकी बार लौटा तो 
मनुष्यतर लौटूंगा 
घर से निकलते 
सड़को पर चलते 
बसों पर चढ़ते 
ट्रेनें पकड़ते 
जगह बेजगह कुचला पड़ा 
पिद्दी-सा जानवर नहीं 

अगर बचा रहा तो 
कृतज्ञतर लौटूंगा 

अबकी बार लौटा तो 
हताहत नहीं 
सबके हिताहित को सोचता 
पूर्णतर लौटूंगा
- कुंवर नारायण सिंह



Sunday, November 19, 2017

अपलक देखती रही.....मोनिका जैन 'पंछी'

तुम्हें याद है वो दिन 
जब हम आखिरी बार मिले थे 
फिर कभी ना मिलने के लिए। 

तुम्हें क्या महसूस हुआ 
ये तो नहीं जानती 
पर जुदाई के आखिरी पलों में 
मैं बिल्कुल हैरान थी। 

कुछ ऐसा लग रहा था जैसे 
अलग कर दिया है मेरी रूह को 
मेरे ही जिस्म से 
दिल काँप रहा था मेरा 
इस अनचाही विदाई की रस्म से। 

एक अनजाने से खौफ ने 
जकड़ लिया था मुझे 
और तेरे आँखों से ओझल होने के बाद भी 
अपलक देखती रही मैं बस तुझे। 

- मोनिका जैन 'पंछी'

Saturday, November 18, 2017

नन्हीं कलाइयों की गुलाबी चूड़ियाँ,,,,बाबा नागार्जुन

प्राइवेट बस का ड्राइवर है तो क्या हुआ,
सात साल की बच्ची का पिता तो है!
सामने गियर से उपर
हुक से लटका रक्खी हैं
काँच की चार चूड़ियाँ गुलाबी
बस की रफ़्तार के मुताबिक
हिलती रहती हैं…
झुककर मैंने पूछ लिया
खा गया मानो झटका
अधेड़ उम्र का मुच्छड़ रोबीला चेहरा
आहिस्ते से बोला: हाँ सा’ब
लाख कहता हूँ नहीं मानती मुनिया
टाँगे हुए है कई दिनों से
अपनी अमानत
यहाँ अब्बा की नज़रों के सामने
मैं भी सोचता हूँ
क्या बिगाड़ती हैं चूड़ियाँ
किस ज़ुर्म पे हटा दूँ इनको यहाँ से?
और ड्राइवर ने एक नज़र मुझे देखा
और मैंने एक नज़र उसे देखा
छलक रहा था दूधिया वात्सल्य बड़ी-बड़ी आँखों में
तरलता हावी थी सीधे-साधे प्रश्न पर
और अब वे निगाहें फिर से हो गईं सड़क की ओर
और मैंने झुककर कहा -
हाँ भाई, मैं भी पिता हूँ
वो तो बस यूँ ही पूछ लिया आपसे
वरना किसे नहीं भाँएगी?
नन्हीं कलाइयों की गुलाबी चूड़ियाँ!

- बाबा नागार्जुन

Friday, November 17, 2017

दीवारों की सीलन…उफ़...गौतम राजरिशी

ठिठुरी रातें, पतला कम्बल, दीवारों की सीलन…उफ़
और दिसम्बर ज़ालिम उस पर फुंफकारे है सन-सन …उफ़

दरवाजे पर दस्तक देकर बात नहीं जब बन पायी
खिड़की की छोटी झिर्री से झाँके है अब सिहरन…उफ़

छत पर ठाठ से पसरा पाला शब भर खिच-खिच शोर करे
सुब्ह को नीचे आए फिसल कर, गीला-गीला आँगन…उफ़

बूढ़े सूरज की बरछी में जंग लगी है अरसे से
कुहरे की मुस्तैद जवानी जैसे सैनिक रोमन…उफ़

ठंढ के मारे सिकुड़े-सिकुड़े लोग चलें ऐसे जैसे
सिमटी-सिमटी शरमायी-सी नई-नवेली दुल्हन…उफ़

हाँफ रही है धूप दिनों से बादल में अटकी-फटकी
शोख़ हवा ऐ ! तू ही उसमें डाल ज़रा अब ईंधन…उफ़

जैकेट-मफ़लर पहने महलों की किलकारी सुन-सुन कर
चिथड़े में लिपटा झुग्गी का थर-थर काँपे बचपन…उफ़

पछुआ के ज़ुल्मी झोंके से पिछवाड़े वाला पीपल
सीटी मारे दोपहरी में जैसे रेल का इंजन…उफ़
(01955-213171, 9419029557)

Thursday, November 16, 2017

ज़िन्दगी उम्मीद पर...गुलाब जैन

ज़िन्दगी उम्मीद पर कब तक रहेगी,
काग़ज़ की कश्ती है कब तक बहेगी।

क्यूँ, किसने, क्या कहा, फ़िक्र न करें,
दुनिया तो कहती है, कहती रहेगी।

जलती है वो भी इश्क़ में उसके,
शमा परवाने को, ये कैसे कहेगी।

ख़िज़ां गर है आई, फ़िज़ा होगी पीछे,
दोनों की दौड़ ये, बदस्तूर रहेगी।

तसव्वुर में जैसी परवाज़ होगी,
बुलंदी आसमां की भी वैसी रहेगी।
- गुलाब जैन

Wednesday, November 15, 2017

सोच में सीलन बहुत है......सीमा अग्रवाल

सोच में सीलन बहुत है
सड़ रही है,
धूप तो दिखलाइये

है फ़क़त उनको ही डर
बीमारियों का
जिन्हें माफ़िक हैं नहीं
बदली हवाएँ
बंद हैं सब खिड़कियाँ
जिनके घरों की
जो नहीं सुन सके मौसम
की सदाएँ

लाज़मी ही था बदलना
जीर्ण गत का
लाख अब झुंझलाइए

जड़ अगर आहत हुआ है
चेतना से,
ग़ैरमुमकिन, चेतना भी
जड़ बनेगी
है बहुत अँधियार को डर
रोशनी से,
किंतु तय है रोशनी
यूँ ही रहेगी

क्यों भला भयभीत है पिंजरा
परों से
साफ़ तो बतलाइए

कीच से लिपटे हुए है
तर्क सारे
आप पर, माला बनाकर
जापते हैं
और ज्यादा नग्न
होते है इरादे
जब अनर्गल शब्द उन पर
ढाँकते हैं

हैं स्वयं दलदल कि दलदल
में धंसे हैं
गौर तो फरमाइए

- सीमा अग्रवाल
काव्यालय