क्यों ख़्यालों से कभी
ख़्याल तुम्हारा जुदा नहीं,
बिन छुये एहसास जगाते हो
मौजूदगी तेरी लम्हों में,
पाक बंदगी में दिल की
तुम ही हो ख़ुदा नहीं।
ज़िस्म के दायरे में सिमटी
ख़्वाहिश तड़पकर रूलाती है,
तेरी ख़ुशियों के सज़दे में
काँटों को चूमकर भी लब
सदा ही मुसकुराते हैं
तन्हाई में फैले हो तुम ही तुम
क्यों तुम्हारी आती सदा नहीं।
बचपना दिल का छूटता नहीं
तेरी बे-रुख़ी की बातों पर भी
दिल तुझसे रूठता नहीं
क़तरा-क़तरा घुलकर इश्क़
सुरुर बना छा गया
हरेक शय में तस्वीर तेरी
उफ़!,ये क्या हुआ पता नहीं....!
-श्वेता सिन्हा
बेहतरीन रचना
ReplyDeleteऔर क्या हुआ?
ReplyDelete'जिस का डर था, बेदर्दी वही बात हो गयी !'
बढ़िया हुआ। अच्छी ग़ज़ल बं गई।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (14-01-2019) को "उड़ती हुई पतंग" (चर्चा अंक-3216) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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लोहड़ीःमकरक संक्रान्ति (उत्तरायणी) की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
अच्छी ग़ज़ल
ReplyDeleteतन्हाई में फैले हो तुम ही तुम
ReplyDeleteक्यों तुम्हारी आती सदा नहीं...आपने बहुत खूब लिखा है श्वेता सिन्हा जी
बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteवक़्त मिले तो हमारे ब्लॉग पर भी आयें|
ReplyDeleteRecent Post शब्दों की मुस्कराहट पर कुछ मेरी कलम से यशोदा अग्रवाल:)