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Friday, July 10, 2015

तुम्हारे हाथ में कालर हो..........दुष्यन्त कुमार



तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं 

मैं बेपनाह अँधेरों को सुबह कैसे कहूँ
मैं इन नज़ारों का अँधा तमाशबीन नहीं 

तेरी ज़ुबान है झूठी जम्हूरियत की तरह
तू एक ज़लील-सी गाली से बेहतरीन नहीं 

तुम्हीं से प्यार जतायें तुम्हीं को खा जाएँ
अदीब यों तो सियासी हैं पर कमीन नहीं 

तुझे क़सम है ख़ुदी को बहुत हलाक न कर
तु इस मशीन का पुर्ज़ा है तू मशीन नहीं 

बहुत मशहूर है आएँ ज़रूर आप यहाँ
ये मुल्क देखने लायक़ तो है हसीन नहीं 

ज़रा-सा तौर-तरीक़ों में हेर-फेर करो
तुम्हारे हाथ में कालर हो, आस्तीन नहीं

-दुष्यन्त कुमार

Wednesday, July 8, 2015

कौन ये फ़ासला निभाएगा...........दुष्यन्त कुमार


मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ
वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ 

एक जंगल है तेरी आँखों में
मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ 

तू किसी रेल-सी गुज़रती है
मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ 

हर तरफ़ ऐतराज़ होता है
मैं अगर रौशनी में आता हूँ 

एक बाज़ू उखड़ गया जबसे
और ज़्यादा वज़न उठाता हूँ 

मैं तुझे भूलने की कोशिश में
आज कितने क़रीब पाता हूँ 

कौन ये फ़ासला निभाएगा
मैं फ़रिश्ता हूँ सच बताता हूँ

-दुष्यन्त कुमार

Tuesday, July 7, 2015

क्यों न हुए.......ठाकुर दास 'सिद्ध'



बेखबर मिलता तो वो,बनाते बेवकूफ
बाखबर मिला तो कहते, बेखबर क्यों न हुए

फैली जब-जब आग नफरत की,तो इनके घर जले
पर कभी लपटों की जद में,उनके घर क्यों न हुए 

शैतानियत का हर हुनर, अब सीखने की होड़ है
इंसान की इन्सानियत के, कुछ हुनर क्यों न हुए

भरपूर होता दिख रहा है, हर बुराई का असर
नेक बातें भी हैं पर, उनके ऊपर असर क्यों न हुए

जो जमाने को कुचलने के, लिए हसरत खड़े हैं
इस समय की ओखली में, उनके सर क्यों न हुए

इसको जाना था जहां, उसको भी जाना वहीं था
एक  थी मंजिल तो फिर,वो हमसफर क्यों न हुए

'सिद्ध' ये चक्का समय का, बिन थमें चलता निरन्तर
थे उस पहर जो-जो मजे, वो इस पहर क्यों न हुए

-ठाकुर दास 'सिद्ध'
सुभाष नगर, दुर्ग, छत्तीसगढ़

Monday, July 6, 2015

ये ज़िन्दगी लहू में नहाईं हुई तो है.........‘काविश’ हैदरी



इस रंग में भी अपनी सफ़ाई हुई तो है
ये ज़िन्दगी लहू में नहाईं हुई तो है

जिस आग में झुलसता है ख़ुद आप का यक़ीं
वो आग आप ही की, लगाई हुई तो है

परदे में लाख छुपिये पर तस्वीर आपकी
ख़ाबो-ख़याल में सही, आई हुई तो है


भटके जो कोरचश्म कोई मेरा क्या क़ुसूर
रस्ते में मैंने शम्म, जलाई हुई तो है

आये न आये मर्ज़ी-ए-हुस्ने-सरापा-नाज़
बज़्मे-नियाज़ मैंने, सजाई हुई तो है

पहलू से उठ के चल दिए वो, हर अदा मगर
अब तक दिलो-दिमाग़ पे, छाई हुई तो है

पी कर जिसे दरीचा-ए-फ़िक्रे-सुख़न खुला
वो मय भी आप ही की, पिलाई हुई तो है

मानें न मानें आप हक़ीक़त है ये मगर
झूठे ख़ुदाओं से भी, ख़ुदाई हुई तो है

हैरत की बात है कि अभी तक न भर सका
‘ये ज़ख़्मे-दिल है इसकी, दवाई हुई तो है’

‘काविश’ ये बात अलग है न कुछ गुफ़्तगू हुई
उनके हुज़ूर तेरी, रसाई हुई तो है

‘काविश’ हैदरी, 

Wednesday, October 22, 2014

उम्मीदों के शहर में............जितेन्द्र "सुकुमार"

 


उम्मीदें लेकर आया था, ना उम्मीदों के शहर में
मौत ने पीछा किया बहोत, ज़िन्दगी के शहर में

सारे लोग परोशां मायूस थे, न जाने क्यों
बड़ा अजीब हो रहा था, खुशी के शहर में

दुश्मनों की मुहब्बत, दोस्तों का सितम था
ये भी देखना पड़ा, हमें दोस्ती के शहर में

अश्कों ने रुलाया, ख़्वाबों ने जगाया बहुत
उस रोज हंसी भूल गया, हंसी के शहर में

ये सन्नाटे बहुत शोर करते थे, वक्त बेवक्त
मैं चैन से सो नहीं पाया, खामोशी के शहर में

दिल को पत्थर बना के रखेगा तो जी लेगा
ए-दिल मत धड़कना, दिल्लगी के शहर में

-जितेन्द्र "सुकुमार"  

चौबे बांधा, राजिम, छत्तीसगढ़

प्राप्ति स्रोत : रविवारीय नवभारत