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Saturday, December 24, 2016

कभी इससे मेरी भी दोस्ती थी.... फिराक गोरखपुरी



यूँ माना ज़ि‍न्दगी है चार दिन की 
बहुत होते हैं यारो चार दिन भी

ख़ुदा को पा गया वायज़ मगर है 
ज़रूरत आदमी को आदमी की 

बसा-औक्रात1 दिल से कह गयी है 
बहुत कुछ वो निगाहे-मुख़्तसर भी 

मिला हूँ मुस्कुरा कर उससे हर बार 
मगर आँखों में भी थी कुछ नमी-सी 

महब्बत में करें क्या हाल दिल का 
ख़ुशी ही काम आती है न ग़म की 

भरी महफ़ि‍ल में हर इक से बचा कर 
तेरी आँखों ने मुझसे बात कर ली 

लड़कपन की अदा है जानलेवा 
गज़ब ये छोकरी है हाथ-भर की

है कितनी शोख़, तेज़ अय्यामे-गुल2 पर 
चमन में मुस्कुहराहट कर कली की 

रक़ीबे-ग़मज़दा3 अब सब्र कर ले 
कभी इससे मेरी भी दोस्ती थी 
फिराक गोरखपुरी 

1- कभी-कभी, 2- बहार के दिन, 3- दुखी प्रतिद्वन्द्वी 


Wednesday, November 25, 2015

है ये तो सुनी हुई आवाज़.......... फिराक गोरखपुरी

1896-1982
तमाम कैफ़ ख़मोशी तमाम नग़्म-ए-साज़ 
नवा-ए-राज़ है ऐ दोस्त या तेरी आवाज़ 

मेरी ग़ज़ल में मिलेगा तुझे वो आलमे-राज़ 
जहां हैं एक अज़ल से हक़ीक़त और मजाज़ 

वो ऐन महशरे-नज्‍़जारा हो कि ख़लवते-राज़
कहीं भी बन्द- नहीं है निगाहे-शाहिदबाज़

हवाएं नींद के खेतों से जैसे आती हों 
यहां से दूर नहीं है बहुत वो मक़तले-नाज़ 

ये जंग क्या है लहू थूकता है नज़्मे-कुहन 
शिगू़फ़े और खिलायेगा वक्‍़ते शोबदाबाज़

मशीअ़तों को बदलते हैं ज़ोरे-बाजू़ से 
'हरीफ़े-मतलबे-मुश्किल नहीं फ़सूने-नेयाज़

इशारे हैं ये बशर की उलूहियत की तरफ़ 
लवें-सीं दे उठी अकसर मेरी जबीने-नेयाज़

भरम तो क़ुर्बते-जानाँ का रह गया क़ाइम 
ले आड़े आ ही गया चर्खे़-तफ़र्का़-परदाज़

निगाहे-चश्मे-सियह कर रहा है शरहे-गुनाह 
न छेड़ ऐसे में बहसे-जवाज़ो-गै़रे-जवाज़

ये मौजे-नकहते-जाँ-बख्‍़श यूँ ही उठती है 
बहारे-गेसु-ए-शबरंग तेरी उम्र दराज़ 

ये है मेरी नयी आवाज़ जिसको सुनके हरेक 
ये बोल उठे कि है ये तो सुनी हुई आवाज़ 

हरीफ़े-जश्ने-चिरागाँ है नग़्म-ए-ग़मे-दोस्त 
कि थरथराये हुए देख उठे वो शोला-ए-साज़ 

‍फ़ि‍राक़ मंजि़ले-जानाँ वो दे रही है झलक 
बढ़ो कि आ ही गया वो मुक़ामे-दूरो-दराज़

-फिराक गोरखपुरी
(रघुपति सहाय)
1896-1982

ख़लवते-राज़ः गुप्त एकांत, निगाहे-शाहिदबाज़ः सौन्दर्य के प्रति आसक्त आँखें, 
शोबदाबाज़ः बाज़ीगर समय, फ़सूने-नेयाज़ः जादुई अदा, 
चर्खे़-तफ़र्का़-परदाज़ः वैमनस्य पैदा करने वाला आकाश। 
बहसे-जवाज़ो-गै़रे-जवाज़ःउचित-अनुचित का तर्क.