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रे कवि मन
बस अब वीरों का
कर अभिनन्दन
भाए न मुझे
बिंदिया या कजरे
कंगन का वंदन।
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लें केसरिया
गूँज उठे धरती
केसरी -सा गर्जन
जागें जो सोए
शावक सिंहनी के
डरे, विद्रोही मन।
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धवल कान्ति
बने मन निर्मल
सौम्य शांत उज्ज्वल
तिरंगा मेरा
जग में फहराए
सुख -शान्ति बढ़ाए।
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क्षमा सहेजें
अनाचार गद्दार
कभी नहीं स्वीकार,
उग्र तेज से
रहे दीपित माथा
लिखें गौरव गाथा।
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हरित हरे
पीड़ाएँ जगती की
तपती धरती की
सुख समृद्धि
बिखरे चहुँ ओर
होए निशि से भोर।
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मै तारिका -सी
मन आकाश दिपी
उज्ज्वल औ शीतल
मधुर गीत
भाव भरा कोमल
रुनझुन पायल।
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मेरी गोद में
छुपोगे अभी तुम
यू आँचल पसारा,
ममता कहे-
दुख की छाया न हो
हाँ,सुख पा लो सारा।
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अनुरागिनी
चाहा अनुराग से
भरूँ मन तुम्हारा
दूँ प्यार सारा
अपनाते तो तुम
सहज विश्वास से।
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जानोगे कब ?
मै हूँ तुम्हारे लिए
प्रेम अमृत लिये
बना लो मुझे
बस द्वार- तोरण
या आँगन की वृन्दा।
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तेजोमयी सी
तेरे दिये ताप से
जागरित हो गई
उदात्त हो या
अनुदात्त हो तुम
मै स्वरित हो गई।
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सुरभित- सी
पवन, ले अनंग
धरा पीत वसना
हे ऋतुराज!
कुहू, पिक पुकारे -
स्वागत है तुम्हारा!
-डॉ. ज्योत्सना शर्मा