Tuesday, December 31, 2013

ये दुनिया अश्क से ग़म नापती है...............प्रखर मालवीय 'कान्हा'


कहीं जीने से मैं डरने लगा तो….?
अज़ल के वक़्त ही घबरा गया तो ?

ये दुनिया अश्क से ग़म नापती है
अगर मैं ज़ब्त करके रह गया तो….?

ख़ुशी से नींद में ही चल बसूंगा
वो गर ख़्वाबों में ही मेरा हुआ तो…

ये ऊंची बिल्डिंगें हैं जिसके दम से
वो ख़ुद फुटपाथ पर सोया मिला तो….?

मैं बरसों से जो अब तक कह न पाया
लबों तक फिर वही आकर रूका तो….?

क़रीने से सजा कमरा है जिसका
वो ख़ुद अंदर से गर बिखरा मिला तो ?

लकीरों से हैं मेरे हाथ ख़ाली
मगर फिर भी जो वो मुझको मिला तो ?

यहां हर शख़्स रो देगा यक़ीनन
ग़ज़ल गर मैं यूं ही कहता रहा तो…..

सफ़र जारी है जिसके दम पे `कान्हा
अगर नाराज़ वो जूगनू हुआ तो?

-प्रखर मालवीय कान्हा
- 08057575552

 http://wp.me/p2hxFs-1AL

Monday, December 30, 2013

हवा यूं तो हर दम भटकती है.............मुहम्मद अलवी साहब


हवा यूं तो हर दम भटकती है, लेकिन
हवा के भी घर हैं
भटकती हवा
जाने कितनी दफ:

 
शह्द की मक्खियों की तरह
घर में जाती है अपने !
अगर ये हवा
घर न जाए तो समझो
के उसके लिए घर का दरवाज़ा वा
फिर न होगा कभी
और उसे और ही घर बनाना पड़ेगा
ये हम और तुम
और कुछ भी नहीं
हवाओं के घर हैं !


-मुहम्मद अलवी साहब


http://wp.me/p2hxFs-1AN

कमल, गुलाब, जुही, गुलमुहर बचात भए..............नवीन सी. चतुर्वेदी



कमल, गुलाब, जुही, गुलमुहर बचात भए
महक रयौ ऊँ महकते नगर बचात भए

सरद की रात में चन्दा के घर चली पूनम
अधर, अधर पे धरैगी अधर बचात भए

सरल समझियो न बा कूँ घनी चपल ऐ बौ
नजर में सब कूँ रखतु ऐ नजर बचात भए

तू अपने आप कूँ इतनौ समझ न खबसूरत
बौ मेरे संग हू नाची, मगर बचात भए

जे खण्डहर नहीं जे तौ धनी एँ महलन के
बिखर रए एँ जो बच्चन के घर बचात भए

जो छंद-बंध सूँ डरत्वें बे देख लेंइ खुदइ
मैं कह रहयौ हूँ गजल कूँ बहर बचात भए

चमन कूँ देख कें मालिन के म्हों सूँ यों निकस्यौ
कटैगी सगरी उमरिया सजर बचात भए

-----

कमल, गुलाब, जुही, गुलमुहर बचाते हुये
महक रहा हूँ महकते नगर बचाते हुये

शरद की रात में चन्दा के घर चली पूनम
अधर, अधर पे धरेगी अधर बचाते हुये

सरल समझना न उस को बहुत चपल है वो
नज़र में रखती है सब को नज़र बचाते हुये

तुम अपने आप को इतना हसीन मत समझो
वो मेरे साथ भी नाची मगर बचाते हुये

ये खण्डहर नहीं ये तो धनी हैं महलों के
बिखर रहे हैं जो बच्चों के घर बचाते हुये

जो छन्द-बन्ध से डरते हैं आ के देख लें ख़ुद
मैं कह रहा हूँ ग़ज़ल को बहर बचाते हुये

चमन को देख के बरबस ही मालियों ने कहा
तमाम उम्र कटेगी शजर बचाते हुये



नवीन सी. चतुर्वेदी +91 9967024593

http://wp.me/p2hxFs-1AG

Sunday, December 29, 2013

तेरी यादों को भी रुसवा नहीं होने देते................मेराज फ़ैज़ाबादी



हम ग़ज़ल में तेरा चर्चा नहीं होने देते
तेरी यादों को भी रुसवा नहीं होने देते

कुछ तो हम खुद भी नहीं चाहते शोहरत अपनी
और कुछ लोग भी ऐसा नहीं होने देते

आज भी गाँव में कुछ कच्चे मकानों वाले
घर में हमसाये के फ़ाक़ा नहीं होने देते

ज़िक्र करते हैं तेरा नाम नहीं लेते हैं
हम समंदर को जज़ीरा नहीं होने देते

मुझको थकने नहीं देता ये ज़रुरत का पहाड़
मेरे बच्चे मुझे बूढ़ा नहीं होने देते

मेराज फ़ैज़ाबादी

Saturday, December 28, 2013

आप की हूक दिल में जो उठबे लगी..............नवीन सी. चतुर्वेदी


आप की हूक दिल में जो उठबे लगी
जिन्दगी सगरे पन्ना उलटिबे लगी

बस निहारौ हतो आप कौ चन्द्र-मुख
जा ह्रिदे की नदी घाट चढ़िबे लगी

पीउ तनिबे लग्यौ, बन गई बौ लता
छिन में चढ़िबे लगी छिन उतरिबे लगी

प्रेम कौ रंग जीबन में रस भर गयौ
रेत पानी सौ ब्यौहार करिबे लगी

मन की आबाज सुन कें भयौ जै गजब
ओस की बूँद सूँ प्यास बुझबे लगी
नवीन सी. चतुर्वेदी +91 9967024593

http://wp.me/p2hxFs-1Au


जैसे ही आप की हूक दिल में उठने लगी, 
ज़िन्दगी सारे पन्नों को उलटने लगी

बस आप के चन्द्र-मुख को देखा ही था 
कि इस हृदय की नदी घाट चढ़ने लगी

प्रिय तनने लगे तो वह लता बन कर 
क्षण-क्षण में चढ़ने और उतरने लगी

प्रेम के रंग ने जीवन में रस भर दिया है, 
मानो रेत पानी के जैसा व्यवहार करने लगी है

मन की आवाज़ सुन कर यह चमत्कार हुआ 
कि ओस की एक बूँद से ही प्यास बुझने लगी है


इन आंधियों के साथ यही दोस्ती सही................प्रखर मालवीय ‘कान्हा’


सीना जो खंजरों को नहीं पीठ ही सही
तुम दोस्त हो हमारे बताओ सही सही

इतना ही कह के बुझ सा गया आख़री चराग़,
इन आंधियों के साथ यही दोस्ती सही

आते ही रौशनी के नज़र आये बहते अश्क
इससे तो मेरे साथ वही तीरग़ी सही

सोचा था हमने आज सवारेंगे वक्त को
अब हाथ में है ज़ुल्फ़ तो फिर ज़ुल्फ़ ही सही

बातें करोगे अम्न की बलवाइयों के साथ?
तुम पर भी ऐसे में ये निपोरेंगे खीस ही

हमने किया सलाम तो होगा कोई तो काम
‘अच्छा ये आप समझे हैं अच्छा यही सही’

सोते हैं दर्द में ही हम इतने सकून से,
रातों में जाग जाग के हमने ख़ुशी सही

-प्रखर मालवीय ‘कान्हा’

Friday, December 27, 2013

अब एक रोज़ हमेशा के वास्‍ते आ जा..................प्रेम कुमार शर्मा ‘प्रेम’


जहां न कोई हो अपना वहां पै जाना क्‍या
जहां पै कोई हो अपना वहां से आना क्‍या

इसी में उलझा रहेगा भला ज़माना क्‍या
न दूट पायेगा इसका ये खोना पाना क्‍या

तुम्हें है ‍फ़ि‍क्र नशेमन की मुझको गुलशन की
न हो चमन ही सलामत तो आशियाना क्‍या

अब एक रोज़ हमेशा के वास्‍ते आ जा
ये रोज़ रोज़ का इस तरह आना जाना क्‍या

है शुक्र इनका उड़ा लायीं आँधियाँ तिनके
वगरना ‘प्रेम’ बना पाता आशियाना क्‍या

प्रेम कुमार शर्मा ‘प्रेम’ पहाड़पुरी 09352589810

http://wp.me/p2hxFs-1A7

Thursday, December 26, 2013

मैं दर-ब-दर हूँ बहुत मुझको ढूंढ पाना क्या.................अभय कुमार ‘अभय’




मैं दर-ब-दर हूँ बहुत मुझको ढूंढ पाना क्या
बताऊँ क्या तुन्हें यारो मिरा ठिकाना क्या

किनारे लाख कहें तुम यक़ीन मत करना
‘वो नर्मरौ है नदी का मगर ठिकाना क्या’

हरेक दिल में धड़कता है फ़िक्र में तू है
बना सकेगा कोई तुझसे फिर बहाना क्या

जो दिल चुराओ तो जानें कि चोर हो तुम भी
नज़र चुरायी है तुमने नज़र चुराना क्या

जहाने-शौक़ में हर सम्त जब तुम्हीं तुम हो
मिरी हक़ीक़तें क्या हैं मिरा फ़साना क्या

जो जी रहा है उसे मौत भी तो आयेगी
किसी के रोके रुका है ये आना-जाना क्या

नज़र-नज़र में हैं परछाइयाँ फ़रेबों की
तो ऐसी बज़्म में रुख़ से नक़ाब उठाना क्या

जिसे भी देखिये है अपनी ख़ाहिशों का असीर
अगर ये सच है तो दुनिया को आज़माना क्या

न जाने कब से ‘अभय’ हम निढाल हैं ग़म से
ख़ुशी मिले भी तो फिर उसपे मुस्कुराना क्या

अभय कुमार ‘अभय’ 09897201820
http://wp.me/p2hxFs-1yH

Wednesday, December 25, 2013

मुश्किल है ये जीवन, इसे आसान करेंगे..................सतीश शुक्ला "रकीब"





अंजान हैं, इक दूजे से पहचान करेंगे
मुश्किल है ये जीवन, इसे आसान करेंगे

खाई है क़सम साथ निभाने की हमेशा 
हम आज सरेआम ये ऐलान करेंगे 

इज़्ज़त हो बुज़ुर्गों की तो बच्चों को मिले नेह
इक दूजे के माँ-बाप का सम्मान करेंगे

हम त्याग, सदाचार, भरोसे की मदद से 
हर हाल में परिवार का उत्थान करेंगे 

आपस ही में रक्खेंगे फ़क़त, ख़ास वो रिश्ते 
हरगिज़ न किसी और का हम ध्यान करेंगे

हर धर्म निभाएंगे हम इक साथ है वादा
तन्हा न कोई आज से अभियान करेंगे

सुख-दुख हो, बुरा वक़्त हो, या कोई मुसीबत 
मिल बैठ के हम सबका समाधान करेंगे 

जीना है हक़ीक़त के धरातल पे ये जीवन 
सपनोँ से नहीं ख़ुद को परेशान करेंगे 

जन्नत को उतारेंगे यही मंत्र ज़मीं पर 
सब मिल के 'रक़ीब' इनका जो गुणगान करेंगे
 
-सतीश शुक्ला "रकीब"
 
सौजन्यः श्री नीरज गोस्वामी के ब्लाग से

Sunday, December 15, 2013

न रंग लायेगा मेरा जिगर जलाना क्या..............‘खुरशीद’ खैराड़ी



फ़क़ीर हम हैं बसायेंगे आशियाना क्या
लुटा के मस्ती को पाइंदगी कमाना क्या

तिरे सवाल का साक़ी जवाब दूं क्या मैं
दरे-हरम से भटक कर शराबख़ाना क्या

ये ज़र्ब भी मैं सहूंगा कि बेवफ़ा है वो
हक़ीक़तों से अज़ीज़ो नज़र चुराना क्या

हर इक नज़र है हिरासाँ हर इक ज़बाँ साकित
ख़ुलूसे-अहले-सियासत को आज़माना क्या

कोई क़ायम यहाँ मुस्तक़िल नहीं प्यारे
सराय ठहरी ये दुनिया तो हक़ जताना क्या

मुझे हरीफ़ों से शिकवा नहीं बस इक ग़म है
न लाज़िमी था हबीबों का साथ आना क्या

जुमूद सोच का तुझ तक रमीदगी तुझ से
इसी हिसार का मरकज़ है ये ज़माना क्या

तिरे लिये तो सजाये हैं थाल भक्तों ने
नहीं सवाब मिरी भूख को मिटाना क्या

सिमट रही है ये दुनिया सभी दिशाओं से
किसी दिशा में भटकते कदम बढ़ाना क्या

न बादबान उतारो ये देखकर माँझी
‘वो नर्मरौ है नदी का मगर ठिकाना क्या’

जदीद फ़िक्र है ‘ख़ुरशीद’ की यही यारो
न रंग लायेगा मेरा जिगर जलाना क्या

‘खुरशीद’ खैराड़ी जोधपुर 09413408422

http://wp.me/p2hxFs-1yu

Saturday, December 14, 2013

गुनाह कुछ तो मुझे बेतरह लुभाते हैं............सौरभ शेखर



मिला न खेत से उसको भी आबो-दाना क्या
किसान शह्र को फिर इक हुआ रवाना क्या

कहाँ से लाये हो पलकों पे तुम गुहर इतने
तुम्हारे हाथ लगा है कोई ख़ज़ाना क्या

उमस फ़ज़ा से किसी तौर अब नहीं जाती
कि तल्ख़ धूप क्या, मौसम कोई सुहाना क्या

तमाम तर्ह के समझौते करने पड़ते हैं
मियां मज़ाक़ गृहस्थी को है चलाना क्या

गुनाह कुछ तो मुझे बेतरह लुभाते हैं
ये राज़ खोल ही देता हूँ अब छुपाना क्या

हो दुश्मनी भी किसी से तो दाइमी क्यूँ हो
जो टूट जाये ज़रा में वो दोस्ताना क्या

ख़बरनवीस नहीं हूँ मैं एक शायर हूँ
तमाम मिसरे मिरे हैं, नया-पुराना क्या

न धर ले रूप कभी झोंक में तलातुम का
‘वो नर्म रौ है नदी का मगर ठिकाना क्या’

करो तो मुंह पे मलामत करो मिरी ‘सौरभ’
ये मेरी पीठ के पीछे से फुसफुसाना क्या.

-सौरभ शेखर 09873866653

http://wp.me/p2hxFs-1yw

Friday, December 13, 2013

अपने हाथ लरजते देखे, अपने आप ही संभली मैं................किश्वर नाहिद



उम्र में उससे बड़ी थी लेकिन पहले टूट के बिखरी मैं
साहिल-साहिल ज़ज़्बे थे और दरिया-दरिया पहुंची मैं

उसकी हथेली के दामन में सारे मौसम सिमटे थे
उसके हाथ में जागी मैं और उसके हाथ से उजली मैं

एक मुट्ठी तारीक़ी में था, एक मुट्ठी से बढ़कर प्यार
लम्स के जुगनू पल्लू बांधे ज़ीना-ज़ीना उतरी मैं

उसके आँगन मैं खुलता था शहरे-मुराद का दरवाज़ा
कुएँ के पास से ख़ाली गागर हाथ में लोकर पलटी मैं

मैंनें जो सोचा यूं, तो उसने भी वही सोचा था
दिन निकला तो वो भी नहीं था और मौज़ूद नहीं थी मैं

लम्हा-लम्हा जां पिघलेगी, क़तरा-क़तरा शब होगी
अपने हाथ लरजते देखे, अपने आप ही संभली मैं

-किश्वर नाहिद
जन्मः 1940, बुलन्द शहर (उ.प्र.)

Thursday, December 12, 2013

मैं तिरा साया हर इक रहगुज़र से चाहूं...............किश्वर नाहिद


मैं नज़र आऊं हर इक सिम्त जिधर चाहूं
ये गवाही मैं हर एक आईना गर से चाहूं

मैं तिरा रंग हर इक मत्ला-ए-दर से मांगूं
मैं तिरा साया हर इक रहगुज़र से चाहूं

सोहबतें खूब हैं व़क्ती-ए-गम की ख़ातिर
कोई ऐसा हो जिसे ज़ानों-जिगर से चाहूं

मैं बदल डालूं वफ़ाओं की जुनूं सामानी
मैं उसे चाहूं तो ख़ुद अपनी ख़बर से चाहूं

आंख जब तक है नज़ारे की तलब है बाकी
तेरी ख़ुश्बू को मैं किस ज़ौंके-नज़र से चाहूं

घर के धंधे कि निमटते ही नहीं है ‘नाहिद’
मैं निकलना भी अगर शाम को घर से चाहूं

-किश्वर नाहिद
जन्मः 1940, बुलन्द शहर (उ.प्र.)

Monday, December 2, 2013

कल तक कितने हंगामें थे अब कितनी ख़ामोशी है.............जमील मलिक


कल तक कितने हंगामें थे अब कितनी ख़ामोशी है
पहले दुनिया थी घर में अब दुनिया में रूपोशी है

पल भर जागे, गहरी नींद का झोंका आया, डूब गए
कोई ग़फ़लत सी ग़फ़लत, मदहोशी सी मदहोशी है

जितना प्यार बढ़ाया हमसे,उतना दर्द दिया दिल को
जितने दूर हुए हो हमसे, उतनी हम-आगोशी है

सहको फूल और कलियां बांटो हमको दो सूखे पत्ते
ये कैसै तुहफ़े लाए हो ये क्या बर्ग-फ़रोशी है

रंगे-हक़ीक़त क्या उभरेगा ख़्वाब ही देखते रहने से
जिसको तुम कोशिश़ कहते हो वो तो लज़्ज़त-कोशी है

होश में सब कुछ देख के भी चुप रहने की मज़बूरी थी
कितनी मानी-ख़ेज़ जमील हमारी ये बेहोशी है

-जमील मलिक

रूपोशी: मुंह छिपाना, हम-आगोशी: आलिंगन, बर्ग-फ़रोशी: पत्ते बेचना,
लज़्ज़त-कोशी: यथार्थता का रंग, मानी-ख़ेज़: अर्थ पूर्ण.

Sunday, December 1, 2013

खुद अपनी आग में जलता रहा........जमील मलिक




जो ख़याल आया, तुम्हारी याद में ढलता रहा
दिल चराग़े-शाम बनकर सुबह तक जलता रहा

हम कहां रुकते सदियों का सफर दरपेश था
घंटियां बजती रही और कारवां चलता रहा

कितने लम्हों के पतंगे आए, आकर जल बुझे
मैं चराग़े-जिन्दगी था, ता-अबद जलता रहा

हुस्न की तबानियां मेरा मुकद्दर बन गई
चांद में चमका,कभी ख़ुरशीद में ढलता रहा

जाने क्या गुजरी कि फरजाने भी दीवने हुए
मैं तो श़ायर था,खुद अपनी आग में जलता रहा

जमील मलिक
जन्मः 12 अगस्त.1928, रावलपिण्डी, पाकिस्तान


दरपेशः समस्या सामने होना, ता-अबदः अनंत काल तक,
तबानियां: ज्योति, ख़ुरशीदः सूरज, फ़रजानेः बुद्धिमान