Sunday, May 31, 2020

इश्क है मेहमान दिल में ...अरुणिमा सक्सेना

वज़्न   2122.   2122.   212
मतला

रस्मे उल्फत है गवारा क्यों नहीं
दर्द है दिल का सहारा क्यों नहीं ।।

लाड़ से उसने निहारा क्यों नहीं
और नज़रों का इशारा क्यों नहीं ।।

इश्क मे ऐसा अजब दस्तूर है
वो किसी का है हमारा क्यों नहीं ।।

प्यार से उसने लगाया जब गले
आपने देखा नज़ारा क्यों नहीं .।।

आंख नम है गर्म सांसे किसलिए
दर्द का दिल में शरारा क्यों नहीं ।।

इश्क है मेहमान दिल में आज भी
प्यार कम है पर ज़ियादा क्यों नहीं ।।

जा रहा था राह से मेरी मगर
प्यार से उसने पुकारा क्यों नहीं।।

-अरुणिमा सक्सेना
28. 05. 20

Saturday, May 30, 2020

कुछ तो असर था मेरी चाहतों में ...नामालूम

हवाओं सा जब से वो छू कर गया है 
मेरी रूह तक को वो महका गया है 

सजाया है किसने "अयान" मेरे घर को 
मेरे अंगना ये कौन आ गया है 

कुछ ऐसे है रौशन तेरे नूर से हम 
यूँ लगता है दिल मे खुदा आ गया है 

महफ़िल सी ले के मेरे जहन ओ दिल मे 
तेरी यादों का कारवां आ गया है 

कुछ तो असर था मेरी चाहतों में 
वो हो के सब से जुदा आ गया है.
-नामालूम

Friday, May 29, 2020

समय की शिला पर ....शम्भुनाथ सिंह

समय की शिला पर मधुर चित्र कितने
किसी ने बनाये, किसी ने मिटाये।

किसी ने लिखी आँसुओं से कहानी
किसी ने पढ़ा किन्तु दो बूंद पानी
इसी में गये बीत दिन ज़िन्दगी के
गयी घुल जवानी, गयी मिट निशानी।
विकल सिन्धु के साध के मेघ कितने
धरा ने उठाये, गगन ने गिराये।

शलभ ने शिखा को सदा ध्येय माना,
किसी को लगा यह मरण का बहाना,
शलभ जल न पाया, शलभ मिट न पाया
तिमिर में उसे पर मिला क्या ठिकाना?
प्रणय-पंथ पर प्राण के दीप कितने
मिलन ने जलाये, विरह ने बुझाये।

भटकती हुई राह में वंचना की
रुकी श्रांत हो जब लहर चेतना की
तिमिर-आवरण ज्योति का वर बना तब
कि टूटी तभी श्रृंखला साधना की।
नयन-प्राण में रूप के स्वप्न कितने
निशा ने जगाये, उषा ने सुलाये।

सुरभि की अनिल-पंख पर मौन भाषा
उड़ी, वंदना की जगी सुप्त आशा
नहीं बुझ सकी अर्चना की पिपासा।
किसी के चरण पर वरण-फूल कितने
लता ने चढ़ाये, लहर ने बहाये।
- शम्भुनाथ सिंह
मूल रचना


जरा बता दो है क्या ...प्रीती श्रीवास्तव

बहुत ग़ज़ल से मुहब्बत वो करतें हैं यारों
उसी में शामों सहर रंग भरतें हैं यारों।।

नजर उठी मेरी उनकी तरफ देखा उन्हें।
वो करते इश्क से दीदार डरतें हैं यारों।।

कोई बता दो मेरी आरजू उन्हें जाकर।
लिखा है खत में कि वो आहें भरतें हैं यारों।।

करूं मैं कैसे यूं दीदार अपने साहिब का।
वो तो नकाब हटातें भी डरतें हैं यारों।।

खुदा ही जाने मुहब्बत में क्या होगा मेरा।
देखा है लोग होकर खाक मरतें हैं यारों।।

जरा बता दो है क्या हाथ की लकीरों में।
ये सच है इश्क तो उन्ही से करतें हैं यारों।।
-प्रीती श्रीवास्तव

Thursday, May 28, 2020

मैं स्त्री हूं ...उमा त्रिलोक


दहेज में मिला है मुझे
एक बड़ा संदूक हिदायतों का
आसमानी साड़ी में लिपटा हुआ संतोष
सतरंगी ओढ़नी में बंधी सहनशीलता
गांठ में बांध दिया था मां ने
आशीष,
"अपने घर बसना और....
विदा होना वहीं से "

फिर चलते चलते रोक कर कहा था
"सुनो,
किसी महत्वाकांक्षा को मत पालना
जो मिले स्वीकारना
जो ना मिले
उसे अपनी नियति मान लेना
बस चुप रहना
सेवा और बलिदान को ही धर्म जानना "
और
कहा था

"तेरी श्रृंगार पिटारी में
सुर्खी की जगह
लाल कपड़े में बांध कर मैंने
रख दिया है
" मीठा बोल "
बस उसे ही श्रृंगार मानना
और
चुप रहना

मां ने इतना कुछ दिया
मगर भूल गई देना मुझे
अन्याय से लडने का मंत्र
और
मैं भी पूछना भूल गई
कि
यदि सीता की तरह, वह मेरा
परित्याग कर दे
तो भी क्या मैं चुप रहूं
और यदि द्रौपदी की तरह
बेइज्जत की जाऊं
क्या, तो भी

क्या,
दे दूं उसे हक
कि
वह मुझे उपभोक्ता वस्तु समझे
लतादे मारे, प्रताड़े

क्या
उसके छल कपट को अनदेखा कर दूं
समझौता कर लूं
उस की व्यभिचारिता से
पायदान की तरह पड़ी रहूं
सहती सब कुछ
फिर भी ना बोलूं
अन्याय के आगे
झुक जायूं

मां
अगर ऐसा करूंगी तो फिर किस
स्वाभिमान से
अपने बच्चों को
बुरे भले की पहचान करवाऊंगी
किस मुंह से उन्हें
यातना और अन्याय के आगे
न झुकने का पाठ पढ़ाऊंगी

मां
"मुझे अपनी अस्मिता की
रक्षा करनी है"

"सदियों से
स्त्री का छीना गया है हक
कभी उसके होने का हक
कभी उसके जीने का हक
बस अब और नहीं"

अब तो उसने
विवशता के बंधनों से जूझते जूझते
गाड़ दिए हैं
अनेकों झंडे
लहरा दिए हैं
सफलताओं के कई परचम

मां
अब तो कहो मुझ से
कि कोशिश करूं मैं
सृष्टि का यह विधान

क्यों कि नहीं जीना है मुझे
इस हारी सोच की व्यथा के साथ
"मुझे जीना है
हंस ध्वनि सा
गुनगुनाता जीवन
गीत सा लहराता जीवन"

मैं स्त्री हूं

-उमा त्रिलोक


Wednesday, May 27, 2020

शलभ मैं शापमय वर हूँ! ...महादेवी वर्मा

शलभ मैं शापमय वर हूँ !
किसी का दीप निष्ठुर हूँ !

ताज है जलती शिखा
चिनगारियाँ शृंगारमाला;
ज्वाल अक्षय कोष सी
अंगार मेरी रंगशाला;
नाश में जीवित किसी की साध सुंदर हूँ !

नयन में रह किंतु जलती
पुतलियाँ आगार होंगी;
प्राण मैं कैसे बसाऊँ
कठिन अग्नि-समाधि होगी;
फिर कहाँ पालूँ तुझे मैं मृत्यु-मंदिर हूँ!

हो रहे झर कर दृगों से
अग्नि-कण भी क्षार शीतल;
पिघलते उर से निकल
निश्वास बनते धूम श्यामल;
एक ज्वाला के बिना मैं राख का घर हूँ !

कौन आया था न जाना
स्वप्न में मुझको जगाने;
याद में उन अँगुलियों के
है मुझे पर युग बिताने;
रात के उर में दिवस की चाह का शर हूँ !

शून्य मेरा जन्म था
अवसान है मूझको सबेरा;
प्राण आकुल के लिए
संगी मिला केवल अँधेरा;
मिलन का मत नाम ले मैं विरह में चिर हूँ !
महादेवी वर्मा  MAHADEVI VARMA
-महादेवी वर्मा
मूल रचना

Tuesday, May 26, 2020

अभिव्यक्तियां ... ना-मालूम


शब्दों की अनुभूति...
जो कह दिया वे शब्द थे
जो न कह सके वो अनुभूति थी
और ..जो कहना है मगर
कह नहीं सकते
वो मर्यादा है
.....

जिंदगी....
जिन्दगी क्या है
आकर नहाया
और नहाकर चल दिया
....

पत्ते....
पत्तों सी होती है
रिश्तों की उम्र
आज हरे...
कल सूखे...
क्यों न हम
जड़ों से रिश्ते निभाना सीखें
...

निबाह...
रिश्तों के निभाने के लिए,
कभी अंधा,
कभी बहरा,
और कभी बहरा
होना ही पड़ता है
....

गर्मी...
बरसात गिरी और कानों
में इतना कह गई कि
गर्मी हमेशा
किसी की भी नही रहती
....

नसीहत....
नर्म लहजे में ही
अच्छी लगती है नसीहत.
क्योंकि,
दस्तक का मतलब
दरवाजा खुलवाना होता है
उसे तोड़ना नहीं
.....

घमण्ड..
किसी का न रहा,
टूटने से पहले
गुल्लक को भी लगता है कि
सारे पैसे उसी के हैं
....

खूबसूरत बात...
जिस बात पर,
कोई मुस्कुरा दे,
बस वही खूबसूरत है..
....

अपने...
थमती नहीं,
ज़िंदगी कभी,
किसी के बिना.
मगर हम भी नहीं,
अपनों के बिना
- नामालूम


Monday, May 25, 2020

अनछुआ मन ....श्वेता सिन्हा


जीवन-यात्रा में
बूँद भर तृप्ति की चाह लिये
रेगिस्तान-सी मरीचिका
में भटकता है मन,
छटपटाहटाता,
व्याकुलता से भर
गर्म रेत के अंगारें को
अमृत बूँद समझकर
अधरों पर रखता है,
प्यासे कंठ की तृषा मिटाने को
झुलसता है,
तन की वेदना में,
मौन दुपहरी की तपती
पगलाई गर्म रेत की अंधड़
से घबराया मन छौना
छिप जाना चाहता है
बबूल की परछाई की ओट में
घनी छाँह का 
भ्रम लिये,
बारिश की आस में
क्षितिज के शुष्क किनारों को
रह-रहकर
ताकती मासूम आँखें
 नभ पर छाये
मंडराते बादलों को देखकर  
आहृलादित होती है,
स्वप्न बुनता है मन...
भुरभुरी रेत से 
इंद्रधनुषी घरौंदें बनाने का
बारिश की बूँदें
देह से लिपटकर,
देह को भींगाकर,
देह को सींचकर
देह के भावों को 
जीवित करती है
देह की कोंपल पर लगे
पुष्प की सुगंध के 
आकर्षण में
भ्रमित हुआ मन 
भूल जाता है
सम्मोहन में
पलभर को सर्वस्व ,
देह की अभेद्य
दीवार के भीतर
पानी की तलाश में
सूखी रेत पर रगड़ाता
अनछुआ मन
मरीचिका के भ्रम में
तड़पता रहता है
परविहीन पाखी-सा
आजीवन।

-श्वेता सिन्हा

Sunday, May 24, 2020

चन्द अपनो की तलाश होती है ...कात्यायनी गौड़

वो होतीं है ना
कुछ लड़कियां,
जिन्हें पंक्ति के अंत मे दिखते है
प्रश्नचिन्ह ना की पूर्णविराम

वो
जिन्हें संस्कारी और मूक बधिर
होने में अंतर मालूम
होता है

वो जो
धार्मिक नहीं आध्यात्मिक
होने में विश्वास रखतीं हैं

जिन्हें भीड़ नहीं
चन्द अपनो की
तलाश होती है

जो किसी भी कार्य के
अंत का सोच कर
आरम्भ करने से
पीछे नहीं हटतीं

जो सही दूसरो का
और गलती अपनो
की भी बताती हैं

हाँ वो ही लड़कियाँ ,
हकदार है ये बताने को
कि लड़कियाँ कैसी होनी चाहिए
© कात्यायनी गौड़

Saturday, May 23, 2020

जाने कहाँ खो गई हूँ , मैं .......वीणा जैन


चहुँ ओर
चहकती चहल - पहल में
जाने कहाँ खो गई हूँ , मैं !!
और , तुम कहते हो
इस चहल - पहल का एक अहम हिस्सा हूँ , मैं .....
एक हलचल
एक बेचैनी
एक तलाश
एक तिश्नगी
कुछ भ्रान्त हूँ .. मैं क्लांत हूँ
कि, कौन कहानी का किस्सा हूँ ,
मैं ?
कितने मुखौटे पहने मैंने
कब - कब दर्पण देखे मैंने ....
कौन जगह है
कायनात में , मेरे खातिर
क्या है मेरा ठिकाना .....
कहाँ छुपे हैं , अर्श मेरे
कौन गढ़ता है , संघर्ष मेरे ...
किस ने लिखी यह अधूरी कहानी
मैं कहाँ सम्पूर्ण कहानी ...
कि , मेरे ही आंगन में
महज मेहमां नवाजी का
एक अनूठा किस्सा हूँ , मैं ...
और , तुम कहते हो
इस चहल - पहल का एक अहम हिस्सा हूँ , मैं ....

-वीणा जैन

Friday, May 22, 2020

नींद ....संध्या गुप्ता

यह कोई बहुत व्याकुल कर देने वाली
जैसे युद्ध के दिनों की नींद है

देखना-
जैसे हहराकर वेग से बहती हुई नदी को

जैसे समुद्र पार करने की इच्छा से भरी
चिड़ियों का थक कर अथाह जल राशि में
समाने के पहले की अनुभूति

यह उम्र बढ़ती जा रही है
घट रहा है हमारे भीतर आवेग
मिट रही हैं स्मृतियाँ उसी गति में

मेरी व्याकुलता
जैसे लड़ाई के दिनों में एक सैनिक का
परिवार को लिखा पत्र
और उसके लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाने की पीड़ा में
घुला जीवन!

बहुत धीरे- धीरे व्यतीत हो रहा है यह समय
हमारे ही बुने जाल में
बड़े कौशल से उलझ गयी है हमारी नींद

जैसे
मैं किसी सौदे में व्यस्त हूँ
और खिड़की से बाहर कोई रेल मेरी नींद में
धड़धडाती हुई गुज़र रही है रोज़ !
-संध्या गुप्ता
मूल रचना

Thursday, May 21, 2020

हाहाकार कर उठता है मन ...चंचलिका शर्मा


मेरे सीने में
एक दर्द उठता है 
एक बार नहीं
बार बार उठता है ...

एक औरत हूँ 
दूसरी औरत को 
बेइज्जत होते देख मन 
हाहाकार कर उठता है ....... 

अखबार के पन्ने हों या 
दूरदर्शन में खबर हो 
तन ,मन,जान से खेली जाती 
बेबस औरत की कहानी होती है ..... 

ईश्वर ने क्या वरदान दिया है 
औरत के तन मन को 
दुधमुंही बच्ची से बूढी तक 
हवस में रौंदी जाती है ....... 

निष्पाप शिशु क्या जाने 
ज़िंदगी की इस बेबसी को 
दर्द से कराहती , बिलखती 
बस ज़ार ज़ार रो लेती है ...... 

जिस मर्द को औरत ने 
जन्म दिया ,माँ का रुप धरा 
देवी कहलाने वाली भी क्योंकर 
हवस का शिकार बनती है ........ 

शिक्षा ,दीक्षा ,मान ,प्रतिष्ठा
सब धरे रह जाते हैं
माँ बहनों के लाज के रक्षक ही 
जब कभी भक्षक बन जाते हैं ........ 

औरत की बेबसी ,लाचारी सुन 
मन विचलित हो जाता है 
समाज में वह केवल क्यों
हाड़ मांस ही समझी जाती है .... 

पुरुष की मानसिकता में
क्यों इतनी बर्बरता छाई है 
कुछ पल की कुत्सित सोच लिए 
औरत की आबरु से क्यों खेलता है ....... 

बेटी बचाओ के नारे को 
हर पुरुष समझ नहीं पाता है 
स्वच्छ भारत की स्वच्छ सोच पर 
हर पुरुष क्यों अमल नहीं करता है .....

- चंचलिका शर्मा

Wednesday, May 20, 2020

ख़्वाबों से आंखें नहीं फोड़ा करते ....गुलज़ार

हाथ छूटें भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते
वक़्त की शाख़ से लम्हे नहीं तोड़ा करते

जिस की आवाज़ में सिलवट हो निगाहों में शिकन
ऐसी तस्वीर के टुकड़े नहीं जोड़ा करते

लग के साहिल से जो बहता है उसे बहने दो
ऐसे दरिया का कभी रुख़ नहीं मोड़ा करते

जागने पर भी नहीं आंख से गिरतीं किर्चें
इस तरह ख़्वाबों से आंखें नहीं फोड़ा करते

शहद जीने का मिला करता है थोड़ा थोड़ा
जाने वालों के लिए दिल नहीं थोड़ा करते

जा के कोहसार से सर मारो कि आवाज़ तो हो
ख़स्ता दीवारों से माथा नहीं फोड़ा करते
 
- गुलज़ार

Tuesday, May 19, 2020

माँ .....उषा किरण


माँ..
सारे दिन खटपट करतीं 
लस्त- पस्त हो 
जब झुँझला जातीं  
तब... 
तुम कहतीं-एक दिन   
ऐसे ही मर जाउँगी   
कभी कहतीं - 
देखना मर कर भी  
एक बार तो उठ जाउँगी  
कि चलो-  
समेटते चलें 
हम इस कान सुनते 
तुम्हारा झींकना 
और उस कान निकाल देते 
क्योंकि- 
हम अच्छी तरह जानते थे 
माँ भी कभी मरती हैं ! 
कितने सच थे हम 
आज..
जब अपनी बेटी के पीछे 
किटकिट करती  
घर- गृहस्थी झींकती हूँ  
तो कहीं- 
मन के किसी कोने में छिपी 
आँचल में मुँह दबा    
तुम धीमे-धीमे
हंसती हो माँ...!!!
-उषा किरण
"ताना- बाना” से

Monday, May 18, 2020

भींगी पलकें ....पूनम सिन्हा

बुझी नजरें ना चुरा,मुझे अपना गम तो बता,
भींगी पलकें ना झुका,मुझे तेरा हाल है पता।

मैं सारी दुनियां से लड़ जाऊँगा सनम तेरे लिए,
मैं तो हद से भी गुजर जाऊँगा सनम तेरे लिए।

मैं अपना आशियाना बनाऊँगा तेरे पलकों के तले,
अब जीऊँगा और मरूँगा तेरे पलकों के तले।

तूँ जो पलकें उठाती है तो मेरी सुबह होती है ,
तूँ जो पलकें झुकाती है तो मेरी शाम ढलती है।

तेरी पलकों के तले मेरे अरमान पलते हैं,
तेरी पलकों के तलेउम्मीदों के दीप जलते हैं।

तेरी भींगी हुई पलकें मुझे झकझोर देती हैं,
तेरी भींगी हुई पलकें क्यूँ दिल को तोड़ देती हैं।

भींगी पलकें ना झुकाओ मेरी धड़कन ना थम जाए,
भींगी पलकें ना झुकाओ मेरी साँसे ना रूक जाए।

लाऊँगा सनम तुझको मैं तुझसे ही चुरा के,
रखूँगा सनम तुझको सदा पलकों पे बिठा के।
-पूनम सिन्हा
देवघर,झारखंड।

Sunday, May 17, 2020

कुछ ही दिनों में ...सालिहा मंसूरी


कुछ ही दिनों में
कितना सब कुछ बदल गया
तुम बदल गए
मैं बदल गई
तेरे मेरे रिश्ते की
परिभाषा ही बदल गई
कितना चाहा था मैंने तुमको
क्या तुम्हें मालूम है
दिल से अपना बनाना
चाहा था मैंने तुमको
क्या तुम्हें मालूम है
पर तुम तो किसी
और के हो लिए
इक बार भी नहीं सोचा
कि मुझ पर क्या बीतेगी
तुम क्यों बदल गए
कैसे बदल गए
जब तुमको पाया तब
ऐसे तो नहीं थे तुम
अच्छे ,भले इंसान थे
मानवता को समझने वाले
रिश्तों को समझने वाले
सबके दर्द को समझने वाले
फिर इतना परिवर्तन कैसे ??

- सालिहा मंसूरी
मूल रचना


Saturday, May 16, 2020

महजबी अलाव को सलाम ...विनोद प्रसाद

धूप को सलाम है,है छांव को सलाम
छोड़ जो आए हरेक गाँव को सलाम

निःस्वार्थ समर्पित है सेवार्थ सभी के
तपते रास्तों के नंगे पाँव को सलाम

लहरों को नमन प्रणाम आँधियों को
मंझधार में डूबी उस नाव को सलाम

टीस ने जो गीत बुने आपका आभार
जख्मों से उपजे हुए धाव को सलाम

मन्दिर ओ मस्जिद नहीं बस्तियाँ जलाते
सुलगे हुए महजबी अलाव को सलाम

उँची सियासती कद को है मेरे आदाब
आदमी के गिरते हुए भाव को सलाम
-विनोद प्रसाद

Friday, May 15, 2020

एक ऊटपटाँग प्रतिक्रिया के लिए क्षमाप्रार्थी ... सुबोध सिन्हा

श्वेता सिन्हा के ब्लॉग में  एक प्रतिक्रिया पढ़ी

 आप भी पढ़िए-

हे कवि !
निकलो अपने ही शहर में,
कम से कम अपने मुहल्लों में
भर दो पेट एक भी मजबूर परिवार का
जो तुम्हारी हजार सकारात्मक
या नकारात्मक लेखनी से
लाख गुणा बेहतर है ..

तो उठो ना कवि !
पटको अपनी लेखनी
उठा लो बस चन्द रोटियों की पोटली
निकल पड़ो और कहीं दूर नहीं तो
अपने ही आस-पड़ोस में, मोहल्ले में ...
कब तक भला लेखनी के भुलावे
परोसते रहोगे निरीह,बेबस,दुखियों,निर्धनों के लिए ...
जरुरत नहीं उन्हें तुम्हारी कोरी शब्दों वाली सहानुभूति की
बस .. एक बार समानुभूति में तो भींजो
बस एक बार .. आज , अभी ही भींजो
आज, अभी ही भींजोगे ना कवि ?
बोलो ना कवि ...
-सुबोध सिन्हा