सिंदूरी आँचल
मुख पर फैलाये
सूरज
सागर की
इतराती लहरों पर
बूँद-बूँद टपकने लगा।
सागर पर
पाँव छपछपता
लहरों की
एड़ियों में
फेनिल झाँझरों से
सजाता
रक्तिम किरणों की
महावर।
स्याह होते
रेत के किनारों पर
ताड़ की
फुनगी पर
ठोढ़ी टिकाये
चाँद सो गया
चुपचाप बिन बोले
चाँदनी के
दूधिया छत्र खोले।
मौन प्रकृति का
रुप सलोना
मुखरित मन का
कोना-कोना
खुल गये पंख
कल्पनाओं के
छप से छलका
याद का दोना।
भरे नयनों के
रिक्त कटोरे
यादों के
स्नेहिल स्पर्शों से
धूल-धूसरित,
उपेक्षित-सा
पड़ा रहा
तह में बर्षों से।
बहुत सुन्दर कल्पना श्वेता !
ReplyDeleteप्राची का स्वर्ण लूटकर, नित्य, सागर के चरणों में अर्पित करने वाले सूर्य को देखकर चन्द्रमा डर कर कहीं छुप जाता है लेकिन मनुष्य, पशु-पक्षी, उसके आते ही अपना आलस्य छोड़ कर अपने काम में लग जाते हैं. सूर्य किसी के लिए जीवन-दायक है तो किसी के लिए काल के समान है.
वाह वाह वाह!!!
ReplyDeleteइतनी नयनाभिराम कल्पना आपकी श्वेता कई बार मैं स्तभित रह जाती हूं।
सौन्दर्य और रस दोनों बखूबी उकेर दिया।
अप्रतिम।
Waah anupm srijn
ReplyDeleteवाह!!श्वेता ,बहुत सुंदर कल्पना 👌👌👌बहुत ही सुंदर !!
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (29-01-2019) को "कटोरे यादों के" (चर्चा अंक-3231) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह
ReplyDeleteबहुत ही लाजवाब कल्पनाओं की उड़ान ...
ReplyDeleteकिसी शाम के मंज़र या उगते हुए सूर्य की लालिमा जब सागर के तल पर दिखती है तो अनेक कल्पनाएँ जन्म लेती हैं ... आपने उन्ही तो शब्दों से मूर्तिमान किया है ... सुन्दर राचन ...
बेहतरीन लेखन श्वेता जी
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