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Sunday, May 12, 2019

माँ .....डॉ. कविता भट्ट

माँ जब मैं तेरे पेट में पल रही थी
मेरे जन्म लेने की ख़ुशी का रास्ता देखती 
तेरी आँखों की प्रतीक्षा और गति
उस उमंग और उत्साह को
यदि लिख पाती 
तो शायद मैं लेखिका बन जाती

 पहाड़ के दुरूह
चढ़ाई-उतराई वाले रास्तों पर
घास-लकड़ी-पानी और तमाम बोझ के साथ
ढोती रही तू मुझे अपने गर्भ में
तेरे पैरों में उस समय जो छाले पड़े
उस दर्द को यदि शब्दों में पिरो लेती
तो शायद मैं लेखिका बन जाती

 तेज़ धूप-बारिश-आँधी में भी
तू पहाड़ी सीढ़ीदार खेतों में
दिन-दिन भर झुककर 
धान की रोपाई करती थी
पहाड़ी रास्तों पर चढ़ाई-उतराई को 
नापती तेरी आँखों का दर्द और
उनसे टपकते आँसुओं का हिसाब
यदि मैं काग़ज़ पर उकेर पाती
तो शायद मैं लेखिका बन जाती

 तेरी ज़िंदगी सूखती रही
मगर तू हँसती रही
तेरे चेहरे की एक-एक झुर्री पर
एक-एक किताब अगर मैं लिख पाती
तो शायद मैं लेखिका बन जाती

 आज मैं हवाई जहाज़ से उड़कर
करती रहती हूँ देश-विदेश की यात्रा
मेरी पास है सारी सुख-सुविधा
गहने-कपड़े सब कुछ है मेरे पास
मगर तेरे बदन पर नहीं था 
बदलने को फटा-पुराना कपड़ा
थी तो केवल मेहनत और आस
मैं जो भी हूँ तेरे उस संघर्ष से ही हूँ
उस मेहनत और आस का हिसाब
काश! मैं लिख पाती 
तो शायद मैं लेखिका बन जाती ...
-डॉ. कविता भट्ट