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Thursday, September 2, 2021

मैं तुझे फिर मिलूँगी ....अमृता प्रीतम


मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
शायद तेरे कल्पनाओं
की प्रेरणा बन
तेरे केनवास पर उतरुँगी
या तेरे केनवास पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
ख़ामोश तुझे देखती रहूँगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं

या सूरज की लौ बन कर
तेरे रंगो में घुलती रहूँगी
या रंगो की बाँहों में बैठ कर
तेरे केनवास पर बिछ जाऊँगी
पता नहीं कहाँ किस तरह
पर तुझे ज़रुर मिलूँगी

या फिर एक चश्मा बनी
जैसे झरने से पानी उड़ता है
मैं पानी की बूंदें
तेरे बदन पर मलूँगी
और एक शीतल अहसास बन कर
तेरे सीने से लगूँगी

मैं और तो कुछ नहीं जानती
पर इतना जानती हूँ
कि वक्त जो भी करेगा
यह जनम मेरे साथ चलेगा
यह जिस्म ख़त्म होता है
तो सब कुछ ख़त्म हो जाता है

पर यादों के धागे
कायनात के लम्हें की तरह होते हैं
मैं उन लम्हों को चुनूँगी
उन धागों को समेट लूंगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
मैं तुझे फिर मिलूँगी!! 
-अमृता प्रीतम


Wednesday, November 4, 2020

मैं तुझे फिर मिलूँगी - अमृता प्रीतम


मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
शायद तेरे कल्पनाओं
की प्रेरणा बन
तेरे केनवास पर उतरुँगी
या तेरे केनवास पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
ख़ामोश तुझे देखती रहूँगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं

या सूरज की लौ बन कर
तेरे रंगो में घुलती रहूँगी
या रंगो की बाँहों में बैठ कर
तेरे केनवास पर बिछ जाऊँगी
पता नहीं कहाँ किस तरह
पर तुझे ज़रुर मिलूँगी

या फिर एक चश्मा बनी
जैसे झरने से पानी उड़ता है
मैं पानी की बूंदें
तेरे बदन पर मलूँगी
और एक शीतल अहसास बन कर
तेरे सीने से लगूँगी

मैं और तो कुछ नहीं जानती
पर इतना जानती हूँ
कि वक्त जो भी करेगा
यह जनम मेरे साथ चलेगा
यह जिस्म ख़त्म होता है
तो सब कुछ ख़त्म हो जाता है

पर यादों के धागे
कायनात के लम्हें की तरह होते हैं
मैं उन लम्हों को चुनूँगी
उन धागों को समेट लूंगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं

मैं तुझे फिर मिलूँगी!
- अमृता प्रीतम

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Wednesday, September 9, 2020

"मायका" पुराना नही होता ...अमृता प्रीतम

सुविख्यात पंजाबी लेखिका 
अमृता प्रीतम जी ने 
"मायके" पर क्या खूब लिखा है:

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रिश्ते पुराने होते हैं 
पर "मायका" पुराना नही होता 

जब भी जाओ .....
अलाय बलायें टल जाये 
यह दुआयें मांगी जाती हैं 



यहां वहां बचपन के कतरे बिखरे होते है 
कही हंसी कही खुशी कही आंसू सिमटे होते हैं 



बचपन का गिलास....कटोरी ....
खाने का स्वाद बढ़ा देते हैं 
अलबम की तस्वीरें 
कई किस्से याद दिला देते हैं 



सामान कितना भी समेटू 
कुछ ना कुछ छूट जाता है 
सब ध्यान से रख लेना 
हिदायत पिता की ....
कैसे कहूं सामान तो  नही 
पर दिल का एक हिस्सा यही छूट जाता है 



आते वक्त माँ, आँचल मेवों से भर देती हैं 
खुश रहना कह कर अपने आँचल मे भर लेती  है ....



आ जाती हूँ मुस्करा कर मैं भी 
कुछ ना कुछ छोड कर अपना



रिश्ते पुराने होते हैं 
जाने क्यों मायका पुराना नही होता 
उस  देहरी को छोडना हर बार ....आसान नही होता।


- अमृता प्रीतम
साभार कुसुम शुक्ला

Monday, April 14, 2014

धूप का एक टुकड़ा.............अमृता प्रीतम





मुझे वह समय याद है-
जब धूप का एक टुकड़ा
सूरज की उंगली थाम कर
अंधेरे का मेला देखता

सोचती हूं- सहम का
और सूनेपन का एक नाता है
मैं इसकी कुछ नहीं लगती
पर इस खोए बच्चे ने
मेरा हाथ थाम लिया

तु कहीं नहीं मिलते
हाथ को छू रहा है
एक नन्हा-सा गर्म सांस
न हाथ से बहलता है,
न हाथ छोड़ता है

अंधेरे का कोई पार नहीं
मेले के शोर में भी
एक खोमोशी का आलम है
और तुम्हारी याद इस तरह
जैसे धूप का एक टुकड़ा....


-अमृता प्रीतम
जन्म: 31 अगस्त 1919.
निधन: 31 अक्तूबर 2005.
जन्म स्थान: गुजरांवाला पंजाब. 
1957 में साहित्य अकादमी पुरस्कार