Showing posts with label मधु सिंह. Show all posts
Showing posts with label मधु सिंह. Show all posts

Saturday, September 9, 2017

रज सुरभित आलोक उड़ाता...मधु सिंह




तुहिन सेज पर ठिठुर-ठिठुर कर  
निशा  काल  के  प्रथम प्रहर में  
बैठा   एक     पथिक    अंजाना  
था तीब्र प्रकम्पित हिमजल में 

तभी प्रात की स्वर्णिम किरणें 
लगी मचलने व्योंम प्राची पर
हाथ पसारे  निस्सीम तेज ले  
लगी उतरने  हिम छाती  पर 

रज  सुरभित  आलोक  उड़ाता 
हिम-  शैलों   पर  भर अनुराग 
 मृदुल अनंग नित क्रीड़ा करता 
 भर- भर  बाँहों  में प्रेम- पराग


निद्रा   भंग    हुई   शैवालों की 
हिम-चादर गल लगी पिघलने
धवल   धरा   के    आँगन  में  
हरियाली  उग  लगी  बिहसनें


स्वांस सुगन्धित लगी मचलने 
पवन  हुआ   सुरभित  गतिमान 
प्रात  काल  की  लाली  बिखरी 
शीर्ष  शिखर  पंहुचा  दिनमान 


रह - रह  नेत्र  निमीलन करती 
बार-  बार  सोने  को  मचलती   
कल-कल निनाद के महारोर में 
स्नेह की बाती जल-जल बुझती