Monday, October 4, 2021

ये चराग़ कोई चराग़ है न जला हुआ न बुझा हुआ ...बशीर बद्र


कोई फूल धूप की पत्तियों में हरे रिबन से बँधा हुआ
वो ग़ज़ल का लहजा नया नया न कहा हुआ न सुना हुआ

जिसे ले गई है अभी हवा वो वरक़ था दिल की किताब का
कहीं आँसुओं से मिटा हुआ कहीं आँसुओं से लिखा हुआ

कई मील रेत को काट कर कोई मौज फूल खिला गई
कोई पेड़ प्यास से मर रहा है नदी के पास खड़ा हुआ

वही ख़त कि जिस पे जगह जगह दो महकते होंटों के चाँद थे
किसी भूले-बिसरे से ताक़ पर तह-ए-गर्द होगा दबा हुआ

मुझे हादसों ने सजा सजा के बहुत हसीन बना दिया
मिरा दिल भी जैसे दुल्हन का हाथ हो मेहँदियों से रचा हुआ

वही शहर है वही रास्ते वही घर है और वही लॉन भी
मगर इस दरीचे से पूछना वो दरख़्त अनार का क्या हुआ

मिरे साथ जुगनू है हम-सफ़र मगर इस शरर की बिसात क्या
ये चराग़ कोई चराग़ है न जला हुआ न बुझा हुआ  


- बशीर बद्र

Sunday, October 3, 2021

प्रतीक्षारत था तपसी एक, खड़ा पावन कालिंदी कूल

  प्रायः लोग कहते हैं कि पराशर ऋषि ने सत्यवती के साथ संसर्ग किया था, 

किन्तु  मेरा हृदय कभी इसे स्वीकार नहीं  कर पाता। 
प्रस्तुत है इस विषयक एक काल्पनिक किन्तु तर्कसंगत दृष्टि:

प्रतीक्षारत  था  तपसी  एक, 
खड़ा  पावन  कालिंदी  कूल।
पवन की गति थी अतिशय तीव्र, 
फहर जाता था श्वेत दुकूल।

वक्ष उभरे अरु बाहु विशाल, 
जटायें जलद सदृश थीं श्याम।
चक्षु रतनारे, नासा तीक्ष्ण 
और उन्नत ललाट अभिराम।

तपोबल की आभा से दीप्त
 हो रहा था उसका प्रत्यंग।
निरख चित्ताकर्षक वह रूप, 
लजाता शत-शत बार अनंग।

स्मरण करता रह-रह प्रभुपाद, 
कृपा कर दो हे जग-दातार।
निरर्थक बीत रहा है काल, 
मिले तारिणी तो जाऊँ पार।

अचानक दृष्टि पड़ी जब दूर,
दिखी उसको नौका फिर एक।
किलक बैठा वह ज्यों नवजात,
किलकते जननि-वक्ष को देख।

हुई जैसे किंचित निकटस्थ,
मन्द गति से तिरती वह नाव।
नाविका श्यामल तरुणी देख,
हुए परिवर्तित ऋषि के भाव।

विवश क्यों खेने को है नाव, 
अद्य कोमल कुमारिका एक?
जनक होगा इसका असमर्थ 
लिए निर्धनता का अतिरेक।

अये रमणी! ले चल उस पार,
हो चुका अतिशय मुझे विलम्ब।
आज इस निर्जन यमुना तीर,
मिली तू इकलौती अवलम्ब।

हुए ज्यों ही उद्यत ऋषिराज,
बैठने को नौका के बीच।
वमन करते वे अपने पाँव
लिये बाहर सहसा ही खींच।

कुवासित सड़ी हुई ज्यों मीन,
अरी तरुणी! तेरी क्यों देह?
अश्रुओं की भारी बरसात, 
लगे करने उसके दृग-मेह।

देव..! मैं सुता मत्स्य की एक, 
मत्स्यगंधा है मेरा नाम।
एक नाविक ने उर से भेंट,
मुझे पाला-पोसा निष्काम।

भरण -पोषण में निज असहाय,
हुए हैं मेरे पालक वृद्ध।
सुताएँ भी रखतीं सामर्थ्य, 
कर रही हूँ मैं  तबसे सिध्द।

किन्तु मेरी दाहक-दुर्गंध, 
कर रही नित मुझको श्रीहीन।
लोग करते रहते उपहास,
मीन की दुहिता भी है मीन।

न कर तू री! अब पश्चाताप,
भले तेरी माता थी मीन।
किन्तु कहता है तेरा भाल,
तुझे ब्याहेगा एक कुलीन।

किसी दुखिया-अबला का एक, 
तपस्वी भी करते अपमान।
हुआ सुनकर अतिशय नैराश्य,
नहीं था किंचित इसका भान।

लपेटे रहती अपनी देह,
मरी मछली की जो दुर्गंध।
उसे पूछेगा कौन कुलीन,
कौन है इस जग में मतिमन्द?

अरी पगली! मैं कहता सत्य,
लिखा है तेरे यही ललाट।
भला जगती में किसके पास,
विधाता के लेखे की काट।

तपोबल से मेटूंगा अद्य,
तुम्हारी असहनीय दुर्गंध।
आज से निःसृत होगी सुनो !
बदन से पारिजात की गंध।

एक योजन तक निर्मल गन्ध,
भरेगी जन-जन में आह्लाद।
अरी योजनगन्धे ! निज-हृदय 
न रख कोई अब और विषाद।

संग ही मिट जाएगा आज,
बदन का तेरे मैला रंग।
और पा यौवन का अधिभार,
निखर जाएंगे सारे अंग।

मिट गया उसका सारा म्लान,
पड़ी ज्यों उस पर मुनि की दृष्टि।
देखकर उसका मोहक  रूप,
चकित हो बैठी सारी सृष्टि।

आपका यह पावन उपकार,
नहीं बिसरा सकती मैं नाथ।
मुझे चरणों की दासी मान,
ले चलें प्रभुवर अपने साथ।

अरी पगली, भोली, मतिमन्द !
तुझे है स्यात नहीं आभास।
लिखेगा तेरा मोहक रूप,
राष्ट्र का एक नवल इतिहास।

बनेगी रानी एक महान,
किन्तु विपदाएँ होंगी साथ।
सौख्य के संग दुखों के रंग,
लिखे हैं विधि ने तेरे माथ।

आह! यह रूप-राशि तब व्यर्थ,
आह! फिर राजयोग भी व्यर्थ।
हरो आसन्न दुखों को नाथ!
सुखों का निकले किंचित अर्थ।

अरी रमणी कहने में किन्तु,
 हो रहा है अतिशय संकोच।
कहीं तू मान न बैठे सद्य, 
माँग बैठा यह मुनि उत्कोच।

अरे ऋषिवर! दीजै आदेश,
आप दासी को निःसंकोच।
आपने बदला मेरा भाग्य, 
आप मांगेंगे क्यों उत्कोच?

सुनो तब..! मुझसे होगा प्राप्त 
तुम्हे अति विदुष एक शुभ-पुत्र।
उसी के पास रहेगा सदा, 
तुम्हारी हर विपदा का सूत्र।

आह ! मिट जायेगा कौमार्य,
पतित मैं कहलाऊंगी नाथ।
न जीवित रह पाऊंगी लिए,
कलंकित अपना अवनत माथ।

अरी रमणी सुन मेरी बात!
न आयेगा ऐसा दुर्भाग्य।
न कलुषित होगा तेरा गात,
न टूटेगा मेरा वैराग्य।

मात्र दिखला दे अपनी देह!
अभी तू होकर वस्त्र विमुक्त।
डाल कर एक दृष्टि मैं मात्र,
करूँ मैं कुक्षि पुत्र से युक्त।

किन्तु ऋषि ! दिवा अभी है शेष, 
और यह खुला हुआ स्थान।
अगर पड़ गयी अन्य की दृष्टि,
मिटेगी मेरी लाज महान।

किया तपबल से ऋषि ने पुनः,
घने कुहरे का आविर्भाव।
बना बैठी पावन इतिहास,
मत्स्यगंधा की वह शुचि नाव।

-राकेश मिश्रा

Saturday, October 2, 2021

एक उद्योगपति को शिक्षक की समझाइश

 


एक उद्योगपति को  शिक्षक की समझाइश


 एक बड़े  उद्योगपति शिक्षा संस्थानों के शिक्षकों को संबोधित कर रहे थे-  "देखिए! बुरा मत मानिए ! लेकिन जिस तरह से आप काम करते हैं; जिस तरह से आपके संस्थान चलते हैं यदि मैं ऐसा करता तो अब तक मेरा बिजनेस डूब चुका होता । "चेहरे पर सफलता का दर्प साफ दिखाई दे रहा था !

 "समझिए ! आपको बदलना होगा;  आपके राजकीय संस्थानों को बदलना होगा; आप लोग आउटडेटेड पैटर्न पर चल रहे हैं;  और सबसे बड़ी समस्या आप शिक्षक स्वयं हैं, जो किसी भी परिवर्तन के विरोध में रहते हैं  !"

"हमसे सीखे ! बिजनेस चलाना है तो लगातार सुधार करना होता है किसी तरह की चूक की कोई गुंजाइश नहीं !"

प्रश्न पूछने के लिए एक शिक्षिका का हाथ खड़ा था..!

"सर ! आप दुनिया की सबसे अच्छी कॉफी बनाने वाली कंपनी के मालिक हैं ।  एक जिज्ञासा थी  कि आप कॉफी के कैसे बीज खरीदते हैं..? "

उद्योगपति का गर्व भरा ज़वाब था-  "एकदम सुपर प्रीमियम! कोई समझौता नहीं..!" 

शिक्षिका ने फिर पूछा:-
"अच्छा मान लीजिए आपके पास जो माल भेजा जाए उसमें कॉफी के बीज घटिया क्वालिटी के हों तो..??"

उद्योगपति:-
" सवाल ही नहीं ! हम उसे  तुरंत वापस भेज देंगे; वेंडर कंपनी को ज़वाब देना पड़ेगा;  हम उससे अपना क़रार रद्द कर सकते हैं !

कॉफी के बीज के चयन के हमारे बहुत सख्त मापदंड है, इसी कारण हमारी कॉफी की प्रसिद्धि है! 

"आत्मविश्वास से भरे उद्योगपति का लगभग स्वचालित उत्तर था !

शिक्षिका:-
 "अच्छा है ! अब हमें यूँ समझिए कि हमारे पास रंग-स्वाद-और गुण में अत्यधिक विभिन्नता के बीज आते हैं लेकिन हम अपने कॉफी के बीज वापस नहीं भेजते !"

"हमारे यहां सब तरह के बच्चे आते है; अमीर-गरीब, होशियार-कमजोर,  गाँव के-शहर के,  चप्पल वाले-जूते वाले,  हिंदी माध्यम के-अंग्रेजी माध्यम के, शांत- बिगड़ैल...सब तरह के  !
हम उनके अवगुण देखकर उनको निकाल नहीं देते ! 

सबको लेते हैं ;..सबको पढ़ाते हैं;,..सबको बनाते हैं.. !"

"..... क्योंकि सर !  हम व्यापारी नहीं,  शिक्षक हैं ।

सदैव प्रसन्न रहिये!!....जो प्राप्त है-पर्याप्त है!!

लॉक डाउन में शिक्षक वर्ग की किसी को सुध लेने का ख्याल तक नहीं आ रहा। फिर भी सबसे शांत चित्त वही वर्ग है। पता है क्यों क्योंकि वह राष्ट्र निर्माता है, अगर वह विचलित हो गया तो पुनर्निर्माण संभव नही।

Friday, October 1, 2021

कुछ एक फैसले मजबूरियों के होते है

तमाम फतवे कहाँ मुफ्तियों के होते है
कुछ एक फैसले मजबूरियों के होते है

बुजुर्ग जिनके उठाते नही किसी पे नज़र
दुपट्टे सर पे उन्ही बच्चियों के होते है

जो आँधियों में भी रूकती नहीं है रोके से
गुलाब सिर्फ उन्ही तितलियों के होते है

वो सब्ज़ रंग का स्वेटर वो सुर्ख सेब से गाल
कई मज़े भी मियां सर्दियों के होते है

तअल्लुकात में बरसो के पड़ गई है दरार
यही नतीजे गलतफहमियों के होते है

ज़मीन बांटना अच्छा नहीं मिरे भाई
खसारे इसमें कई पीढ़ियों के होते है

ये कारोबार तो मीरासियो के होते है

"तुफ़ैल' आयेंगे इतने कहाँ से राजकुमार
कि ऐसे ख्वाब सभी लड़कियों के होते है
-तुफैल चतुर्वेदी