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Thursday, September 5, 2019

कहमुकरियाँ ....त्रिलोक सिंह ठकुरेला

1.
जब देखूँ तब मन हरसाये। 
मन को भावों से भर जाये। 
चूमूँ, कभी लगाऊँ छाती। 
क्या सखि साजन? ना सखि पाती॥
2.
रातों में सुख से भर देता। 
दिन में नहीं कभी सुधि लेता। 
फिर भी मुझे बहुत ही प्यारा।
क्या सखि साजन? ना सखि तारा॥
3.
मुझे देखकर लाड़ लड़ाये। 
मेरी बातों को  दोहराये। 
मन में मीठे सपने बोता। 
क्या सखि साजन? ना सखि तोता॥
4.
सबके सन्मुख मान बढ़ाये। 
गले लिपटकर सुख पंहुचाये। 
मुझ पर जैसे जादू डाला।
क्या सखि साजन? ना सखि माला।
5.
जब आये तब खुशियाँ लाता। 
मुझको अपने पास बुलाता।
लगती मधुर मिलन की बेला। 
क्या सखि साजन? ना सखि मेला। 
6.
पाकर उसे फिरूँ इतराती।
जो मन चाहे सो मैं पाती।
सहज नशा होता अलबत्ता।
क्या सखि साजन? ना सखि सत्ता।
7.
मैं झूमूँ तो वह भी झूमे। 
जब चाहे गालों को चूमे। 
खुश होकर नाचूँ दे ठुमका। 
क्या सखि साजन? ना सखि झुमका।
8.
वह सुख की डुगडुगी बजाये। 
तरह तरह से मन बहलाये। 
होती भीड़ इकट्ठी भारी। 
क्या सखि साजन? नहीं, मदारी।
 9.
जब आये,रस-रंग बरसाये।
बार बार मन को हरसाये। 
चलती रहती हँसी - ठिठोली। 
क्या सखि साजन? ना सखि, होली।
10.
मेरी गति पर खुश हो घूमे।  
झूमे, जब जब लहँगा झूमे।
मन को भाये, हाय, अनाड़ी।
क्या सखि,साजन? ना सखि साड़ी।
11.
बिना बुलाये, घर आ जाता।
अपनी धुन में गीत सुनाता।
नहीं जानता ढाई अक्षर।
क्या सखि,साजन? ना सखि, मच्छर।
-त्रिलोक सिंह ठकुरेला..

Wednesday, October 25, 2017

ग्यारह कहमुकरियाँ....त्रिलोक सिंह ठकुरेला


 1.
जब भी देखूँ, आतप हरता। 
मेरे मन में सपने भरता। 
जादूगर है, डाले फंदा। 
क्या सखि, साजन? ना सखि, चंदा। 

2.
लंबा क़द है, चिकनी काया।
उसने सब पर रौब जमाया।
पहलवान भी पड़ता ठंडा। 
क्या सखि, साजन? ना सखि, डंडा।

3.
उससे सटकर, मैं सुख पाती।
नई ताज़गी मन में आती।
कभी न मिलती उससे झिड़की।
क्या सखि, साजन? ना सखि, खिड़की।

4.
जैसे चाहे वह तन छूता।
उसको रोके, किसका बूता।
करता रहता अपनी मर्ज़ी। 
क्या सखि, साजन? ना सखि, दर्ज़ी। 

5.
कभी किसी की धाक न माने। 
जग की सारी बातें जाने।
उससे हारे सारे ट्यूटर। 
क्या सखि, साजन? ना, कंप्यूटर।

6.
यूँ तो हर दिन साथ निभाये।
जाड़े में कुछ ज़्यादा भाये।
कभी कभी बन जाता चीटर।
क्या सखि, साजन? ना सखि, हीटर। 

7.
देख देख कर मैं हरषाऊँ।
खुश होकर के अंग लगाऊँ।
सीख चुकी मैं सुख-दुख सहना। 
क्या सखि, साजन? ना सखि,गहना। 

8.
दिन में घर के बाहर भाता। 
किन्तु शाम को घर में लाता। 
कभी पिलाता तुलसी काढ़ा।
क्या सखि, साजन? ना सखि, जाड़ा। 

9.
रात दिवस का साथ हमारा।
सखि, वह मुझको लगता प्यारा।
गाये गीत कि नाचे पायल।
क्या सखि, साजन? ना, मोबाइल।

10.
मन बहलाता जब ढिंग होती।
ख़ूब लुटाता ख़ुश हो मोती। 
फिर भी प्यासी मन की गागर।
क्या सखि, साजन? ना सखि, सागर।

11.
बार बार वह पास बुलाता।
मेरे मन को ख़ूब रिझाता।
ख़ुद को उस पर करती अर्पण।
क्या सखि, साजन? ना सखि, दर्पण। 

-त्रिलोक सिंह ठकुरेला