प्रेम का धागा नहीं टूटता
जब तक उसमें शक का दीमक
या
अविश्वास का घुन ना जुड़ता
खोखला होगा तभी तो टूटेगा
मैं जब कढ़ाई या बुनाई करती हूँ ...... तो जब गाँठ डालना होता है
गाँठ डालना होगा न ... क्योंकि लम्बे धागे उलझते हैं
और उलझाव से धुनते धुनते कमजोर भी होने लगते हैं
और ऊन का 25 या 50 ग्राम का गोला होता है
400 से 600 ग्राम का गोला तो
मिलता नहीं ना
जहाँ खत्म हुआ सिरा और शुरू होने वाला सिरा के पास
थोड़ा थोड़ा उधेड़ती हूँ
फिर दोनों के दो दो छोर हो चार छोर हो जाते हैं
दो दो छोर सामने से मिला बाट लेती हूँ
फिर गाँठ का पता नहीं चलता है
क्या रिश्ते के गाँठ को यूँ नहीं छुपाया
जा सकता है
कुछ कुछ छोर तक उधेड़ डालो न मन को
हर गाँठ को सुलझाया जा सकता है
रफ़ू से चलती है जिंदगी
-- विभा रानी श्रीवास्तव