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Monday, September 2, 2019

कौन है ऐसा जिसका करें अनुसरण ...अंसार क़म्बरी

आप कहते हैं दूषित है वातावरण,
पहले देखें स्वयं अपना अंतःकरण।

कितना संदिग्ध है आपका आचरण,
रात इसकी शरण,प्रातः उसकी शरण।

आप सोते हैं सत्ता की मदिरा लिये,
चाहते हैं कि होता रहे जागरण।

फूल भी हैं यहां, शूल भी हैं यहां,
देखना है कहां पर धरोगे चरण।

आप सूरज को मुट्ठी में दाबे हुये, 
कर रहे हैं उजालों का पंजीकरण।

शब्द हमको मिले, अर्थ वो ले गये,
न इधर व्याकरण,न उधर व्याकरण।

लीक पर हम भी चलते मगर 'क़म्बरी',
कौन है ऐसा जिसका करें अनुसरण।
- अंसार क़म्बरी

Friday, July 26, 2019

आत्मविश्वास से कदम आगे बढ़ाओ ....निधि सक्सेना

सुनो लड़कियों
अपने पैरों का खास ख्याल रक्खो..
देखो एड़ियाँ कटी फटी न हों
नाखून ठीक आकार लिए हों
बढ़िया नेल पॉलिश लगी हो..
इसलिये भी कि इन्ही से दौड़ना है
अपने सपनो के पीछे
अपने अपनो के पीछे
और सबको पीछे कर के सबके आगे
तो इन्हें सर पर बैठा कर रखना होगा..

और इसलिए भी कि
व्यस्तता कितनी भी हो
गाहेबगाहे
अपने पैरों पर नज़र पड़ती ही रहती है..
अपने खूबसूरत पैर देख आत्मविश्वास 
का बढ़ जाना लाज़मी है..

चेहरा देखने तो आईना खोजना पड़ता है
या फिर किसी की आंखों में अपना अक्स देखो
मगर आजकल आंखे अंधी बहरी और गूंगी हो गई है
ईर्ष्यालु और फ़रेबी अलग
सो दूसरों की नज़रों पर क्यो निर्भर रहना
अपने खूबसूरत पावों को देख आत्ममुग्धता अनुभव करो
और 
आत्मविश्वास से कदम आगे बढ़ाओ..
-निधि सक्सेना

Saturday, December 8, 2018

सार्थक....सरोज दहिया


कष्टों से मुक्ति मिल जाये
ऐसा कुछ प्रयास करो,
सावधान रहकर कांटों से
फूल फूल चुन लिया करो;
तो भी कंटक चुभ ही जायें
तो भी क्या परेशानी है,
उसका तो स्वभाव चुभन है
तो भी क्या बेमानी है;
कंटक भी कोमल हो जायें,
कोमलता को पूछे कौन
सब कुछ कोमल-कोमल होगा,
ज्ञान चुभन का देगा कौन ?
जिसको जितना ज्ञान चुभन का
उतना कोमल खुद बन जाता,
खुद कितने भी कंटक झेले,
औरों का दीपक बन जाता;
अपने हाथ-पैर छलनी कर
जो औरों को मार्ग बताता,
जीवन की सार्थकता मिलती
जग के मग में फूल बिछाता ।

-सरोज दहिया

Saturday, October 29, 2016

न्याय.............अधीर













न्याय बिक जाता है ...
कोतवाल बिक जाता है....
वकीलों का भी,
हर सवाल बिक जाता है,
सच को भी यहाँ….
अक्सर बिकते देखा है,
मुजरिमों को ऐश.... 
हमने करते देखा है,
मिलती है सज़ायें..
नेकी ..करने वालो को,
मिटा देते है कभी कभी 
ये अंधेरें भी.. उजालो को
हाँ... 
इस बात से,
नही मुझे इंकार है,
की नेकियाँ जहां में..
फिर भी बरक़रार है।

-सुरेश पसारी "अधीर"

Monday, September 5, 2016

इसलिए मै टूट गया …..फेसबुक


एक राजमहल में कामवाली और उसका बेटा काम करते थे!
एक दिन राजमहल में कामवाली के बेटे को हीरा मिलता है।
वो माँ को बताता है….
कामवाली होशियारी से वो हीरा बाहर फेककर कहती है ये कांच है हीरा नहीं…..
कामवाली घर जाते वक्त चुपके से वो हीरा उठाके ले जाती है।
वह सुनार के पास जाती है…
सुनार समझ जाता है इसको कही मिला होगा,
ये असली या नकली पता नही इसलिए पूछने आ गई.
सुनार भी होशियारी से वो हीरा बाहर फेंक कर कहता है!! 
ये कांच है हीरा नहीं।
कामवाली लौट जाती है। सुनार वो हीरा चुपके सेे उठाकर जौहरी के पास ले जाता है,
जौहरी हीरा पहचान लेता है।
अनमोल हीरा देखकर उसकी नियत बदल जाती है।
वो भी हीरा बाहर फेंक कर कहता है ये कांच है हीरा नहीं।
जैसे ही जौहरी हीरा बाहर फेंकता है…उसके टुकडे टुकडे हो जाते है…
यह सब एक राहगीर निहार रहा था…वह हीरे के पास जाकर पूछता है…
कामवाली और सुनार ने दो बार तुम्हे फेंका…तब तो तूम नही टूटे…
फिर अब कैसे टूटे? हीरा बोला….
कामवाली और सुनार ने दो बार मुझे फेंका
क्योंकि…वो मेरी असलियत से अनजान थे।
लेकिन….जौहरी तो मेरी असलियत जानता था…
तब भी उसने मुझे बाहर फेंक दिया…यह दुःख मै सहन न कर सका…
इसलिए मै टूट गया …..

ऐसा ही…
हम मनुष्यों के साथ भी होता है !!!
जो लोग आपको जानते है,
उसके बावजूद भी आपका दिल दुःखाते है
तब यह बात आप सहन नही कर पाते….!
इसलिए….
कभी भी अपने स्वार्थ के लिए करीबियों का दिल ना तोड़ें…!!
हमारे आसपास भी… बहुत से लोग… हीरे जैसे होते है !
उनकी दिल और भावनाओं को .. कभी भी न दुखाएं…
और ना ही… उनके अच्छे गुणों के टुकड़े करिये…!!

फेसबुक, हंसमुख जी के वाल से

Thursday, August 25, 2016

कविता की मौत.......... धर्मवीर भारती

धर्मवीर भारती ने दूसरे तार सप्तक में कविता की मौत शीर्षक से एक कविता लिखी थी जो आज के भारत के उदय होते कवियों के प्रकाश में जबरन भारत का भूषण बनाने की कोशिशों के आलोक में पढी जानी चाहिए-

कविता की मौत 


25-12-1926 - 4-9-1997




लादकर ये आज किसका शव चले?
और इस छतनार बरगद के तले,
किस अभागन का जनाजा है रुका
बैठ इसके पांयते, गर्दन झुका,
कौन कहता है कि कविता मर गयी?
मर गयी कविता,
नहीं तुमने सुना?
हाँ, वही कविता
कि जिसकी आग से
सूरज बना
धरती जमी
बरसात लहराई
और जिसकी गोद में बेहोश पुरवाई
पंखुरियों पर थमी?
वही कविता
विष्णुपद से जो निकल
और ब्रह्मा के कमंडल से उबल
बादलों की तहों को झकझोरती
चांदनी के रजत फूल बटोरती
शम्भु के कैलाश पर्वत को हिला
उतर आई आदमी की जमीं पर,
चल पड़ी फिर मुस्कुराती
शस्यश्यामलफूल, फल, फसल खिलाती,
स्वर्ग से पाताल तक
जो एक धारा बन बही
पर न आखिर एक दिन वह भी रही!
मर गई कविता वही
एक तुलसी-पत्र 'औ'
दो बूंद गंगाजल बिना,
मर गई कविता, नहीं तुमने सुना?
भूख ने उसकी जवानी तोड़ दी,
उस अभागिन की अछूती मांग का सिंदूर
मर गया बनकर तपेदिक का मरीज
'औ' सितारों से कहीं मासूम संतानें,
मांगने को भीख हैं मजबूर,
या पटरियों के किनारे से उठा
बेचते है,
अधजले
कोयले.
(याद आती है मुझे
भागवत की वह बड़ी मशहूर बात
जबकि ब्रज की एक गोपी
बेचने को दही निकली,
औ' कन्हैया की रसीली याद में
बिसर कर सुध-बुध
बन गई थी खुद दही.
और ये मासूम बच्चे भी,
बेचने जो कोयले निकले
बन गए खुद कोयले
श्याम की माया)
और अब ये कोयले भी हैं अनाथ
क्योंकि उनका भी सहारा चल बसा!
भूख ने उसकी जवानी तोड़ दी!
यूँ बड़ी ही नेक थी कविता
मगर धनहीन थी, कमजोर थी
और बेचारी गरीबिन मर गई!
मर गई कविता?
जवानी मर गई?
मर गया सूरज सितारे मर गए,
मर गए, सौन्दर्य सारे मर गए?
सृष्टि के प्रारंभ से चलती हुई 
प्यार की हर सांस पर पलती हुई
आदमीयत की कहानी मर गयी?
झूठ है यह !
आदमी इतना नहीं कमजोर है !
पलक के जल और माथे के पसीने से
सींचता आया सदा जो स्वर्ग की भी नींव
ये परिस्थितियां बना देंगी उसे निर्जीव !
झूठ है यह !
फिर उठेगा वह
और सूरज की मिलेगी रोशनी
सितारों की जगमगाहट मिलेगी !
कफन में लिपटे हुए सौन्दर्य को
फिर किरन की नरम आहट मिलेगी !
फिर उठेगा वह,
और बिखरे हुए सारे स्वर समेट
पोंछ उनसे खून,
फिर बुनेगा नयी कविता का वितान
नए मनु के नए युग का जगमगाता गान !
भूख, खूँरेजी, गरीबी हो मगर 
आदमी के सृजन की ताक़त
इन सबों की शक्ति के ऊपर
और कविता सृजन कीआवाज़ है.
फिर उभरकर कहेगी कविता
"क्या हुआ दुनिया अगर मरघट बनी,
अभी मेरी आख़िरी आवाज़ बाक़ी है,
हो चुकी हैवानियत की इन्तेहा,
आदमीयत का अभी आगाज़ बाकी है !
लो तुम्हें मैं फिर नया विश्वास देती हूँ,
नया इतिहास देती हूँ !
कौन कहता है कि कविता मर गयी?"

यह कविता मुझे मेरे फेसबुक वाल पर मिली.. पढी और चुरा कर ले आई
आज ये कविता आप के सन्मुख है


Saturday, January 16, 2016

हो गया यार वो बरी कैसे.......कुँवर कुसुमेश


रस्मे-दुनिया उलट गई कैसे। 
बर्फ़ में आग ये लगी कैसे।

वो न आये,तो कौन आया है ?
हो गई शाम सुरमई कैसे ?

वो है इल्मे-अदब से नावाक़िफ़,
कर रहा फिर भी शायरी कैसे ?

जेल से छूटने लगे मुल्ज़िम,
हो गया यार वो बरी कैसे।

ज़िन्दगी में अजीब हलचल है,
कट रही फिर भी ज़िन्दगी कैसे।

प्यार का अब सुबूत क्या माँगूं,
तुमने देखा, लिपट गई कैसे।

शेर मैंने "कुँवर" कहा था जो,
कह गया शेर वो वही कैसे।


-कुँवर कुसुमेश

Friday, August 1, 2014

उदासी भरी शाम ढ़लती रही.......प्रदीप दीक्षित


साहिल की उम्मीद बाँधकर कश्ती चलती रही,
एक बेमानी सी जिगर मेँ पलती रही।

लौटने वाले चले गये रास्तोँ को अकेले छोड़कर,
उनकी याद मेँ उदासी भरी शाम ढ़लती रही।

आकर देख लो इस सिसकती जिन्दगी की तस्वीर,
जिसके बिखरते रंगो मेँ आरजू पिघलती रही।

सोच कर चला था कैद कर लूंगा तेरे अक्स को,
देखा तो दूर से तेरी परछाईँ गुजरती रही।

-प्रदीप दीक्षित

फेसबुक से