धर्मवीर भारती ने दूसरे तार सप्तक में कविता की मौत शीर्षक से एक कविता लिखी थी जो आज के भारत के उदय होते कवियों के प्रकाश में जबरन भारत का भूषण बनाने की कोशिशों के आलोक में पढी जानी चाहिए-
कविता की मौत
25-12-1926 - 4-9-1997
लादकर ये आज किसका शव चले?
और इस छतनार बरगद के तले,
किस अभागन का जनाजा है रुका
बैठ इसके पांयते, गर्दन झुका,
कौन कहता है कि कविता मर गयी?
मर गयी कविता,
नहीं तुमने सुना?
हाँ, वही कविता
कि जिसकी आग से
सूरज बना
धरती जमी
बरसात लहराई
और जिसकी गोद में बेहोश पुरवाई
पंखुरियों पर थमी?
वही कविता
विष्णुपद से जो निकल
और ब्रह्मा के कमंडल से उबल
बादलों की तहों को झकझोरती
चांदनी के रजत फूल बटोरती
शम्भु के कैलाश पर्वत को हिला
उतर आई आदमी की जमीं पर,
चल पड़ी फिर मुस्कुराती
शस्यश्यामलफूल, फल, फसल खिलाती,
स्वर्ग से पाताल तक
जो एक धारा बन बही
पर न आखिर एक दिन वह भी रही!
मर गई कविता वही
एक तुलसी-पत्र 'औ'
दो बूंद गंगाजल बिना,
मर गई कविता, नहीं तुमने सुना?
भूख ने उसकी जवानी तोड़ दी,
उस अभागिन की अछूती मांग का सिंदूर
मर गया बनकर तपेदिक का मरीज
'औ' सितारों से कहीं मासूम संतानें,
मांगने को भीख हैं मजबूर,
या पटरियों के किनारे से उठा
बेचते है,
अधजले
कोयले.
(याद आती है मुझे
भागवत की वह बड़ी मशहूर बात
जबकि ब्रज की एक गोपी
बेचने को दही निकली,
औ' कन्हैया की रसीली याद में
बिसर कर सुध-बुध
बन गई थी खुद दही.
और ये मासूम बच्चे भी,
बेचने जो कोयले निकले
बन गए खुद कोयले
श्याम की माया)
और अब ये कोयले भी हैं अनाथ
क्योंकि उनका भी सहारा चल बसा!
भूख ने उसकी जवानी तोड़ दी!
यूँ बड़ी ही नेक थी कविता
मगर धनहीन थी, कमजोर थी
और बेचारी गरीबिन मर गई!
मर गई कविता?
जवानी मर गई?
मर गया सूरज सितारे मर गए,
मर गए, सौन्दर्य सारे मर गए?
सृष्टि के प्रारंभ से चलती हुई
प्यार की हर सांस पर पलती हुई
आदमीयत की कहानी मर गयी?
झूठ है यह !
आदमी इतना नहीं कमजोर है !
पलक के जल और माथे के पसीने से
सींचता आया सदा जो स्वर्ग की भी नींव
ये परिस्थितियां बना देंगी उसे निर्जीव !
झूठ है यह !
फिर उठेगा वह
और सूरज की मिलेगी रोशनी
सितारों की जगमगाहट मिलेगी !
कफन में लिपटे हुए सौन्दर्य को
फिर किरन की नरम आहट मिलेगी !
फिर उठेगा वह,
और बिखरे हुए सारे स्वर समेट
पोंछ उनसे खून,
फिर बुनेगा नयी कविता का वितान
नए मनु के नए युग का जगमगाता गान !
भूख, खूँरेजी, गरीबी हो मगर
आदमी के सृजन की ताक़त
इन सबों की शक्ति के ऊपर
और कविता सृजन कीआवाज़ है.
फिर उभरकर कहेगी कविता
"क्या हुआ दुनिया अगर मरघट बनी,
अभी मेरी आख़िरी आवाज़ बाक़ी है,
हो चुकी हैवानियत की इन्तेहा,
आदमीयत का अभी आगाज़ बाकी है !
लो तुम्हें मैं फिर नया विश्वास देती हूँ,
नया इतिहास देती हूँ !
कौन कहता है कि कविता मर गयी?"
यह कविता मुझे मेरे फेसबुक वाल पर मिली.. पढी और चुरा कर ले आई
आज ये कविता आप के सन्मुख है