
जीवन-यात्रा में
बूँद भर तृप्ति की चाह लिये
रेगिस्तान-सी मरीचिका
में भटकता है मन,
छटपटाहटाता,
व्याकुलता से भर
गर्म रेत के अंगारें को
अमृत बूँद समझकर
अधरों पर रखता है,
प्यासे कंठ की तृषा मिटाने को
झुलसता है,
तन की वेदना में,
मौन दुपहरी की तपती
पगलाई गर्म रेत की अंधड़
से घबराया मन छौना
छिप जाना चाहता है
बबूल की परछाई की ओट में
घनी छाँह का
भ्रम लिये,
बारिश की आस में
क्षितिज के शुष्क किनारों को
रह-रहकर
ताकती मासूम आँखें
नभ पर छाये
मंडराते बादलों को देखकर
आहृलादित होती है,
स्वप्न बुनता है मन...
भुरभुरी रेत से
इंद्रधनुषी घरौंदें बनाने का
बारिश की बूँदें
देह से लिपटकर,
देह को भींगाकर,
देह को सींचकर
देह के भावों को
जीवित करती है
देह की कोंपल पर लगे
पुष्प की सुगंध के
आकर्षण में
भ्रमित हुआ मन
भूल जाता है
सम्मोहन में
पलभर को सर्वस्व ,
देह की अभेद्य
दीवार के भीतर
पानी की तलाश में
सूखी रेत पर रगड़ाता
अनछुआ मन
मरीचिका के भ्रम में
तड़पता रहता है
परविहीन पाखी-सा
आजीवन।
-श्वेता सिन्हा