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Monday, May 25, 2020

अनछुआ मन ....श्वेता सिन्हा


जीवन-यात्रा में
बूँद भर तृप्ति की चाह लिये
रेगिस्तान-सी मरीचिका
में भटकता है मन,
छटपटाहटाता,
व्याकुलता से भर
गर्म रेत के अंगारें को
अमृत बूँद समझकर
अधरों पर रखता है,
प्यासे कंठ की तृषा मिटाने को
झुलसता है,
तन की वेदना में,
मौन दुपहरी की तपती
पगलाई गर्म रेत की अंधड़
से घबराया मन छौना
छिप जाना चाहता है
बबूल की परछाई की ओट में
घनी छाँह का 
भ्रम लिये,
बारिश की आस में
क्षितिज के शुष्क किनारों को
रह-रहकर
ताकती मासूम आँखें
 नभ पर छाये
मंडराते बादलों को देखकर  
आहृलादित होती है,
स्वप्न बुनता है मन...
भुरभुरी रेत से 
इंद्रधनुषी घरौंदें बनाने का
बारिश की बूँदें
देह से लिपटकर,
देह को भींगाकर,
देह को सींचकर
देह के भावों को 
जीवित करती है
देह की कोंपल पर लगे
पुष्प की सुगंध के 
आकर्षण में
भ्रमित हुआ मन 
भूल जाता है
सम्मोहन में
पलभर को सर्वस्व ,
देह की अभेद्य
दीवार के भीतर
पानी की तलाश में
सूखी रेत पर रगड़ाता
अनछुआ मन
मरीचिका के भ्रम में
तड़पता रहता है
परविहीन पाखी-सा
आजीवन।

-श्वेता सिन्हा

Wednesday, June 6, 2018

देहरी...श्वेता सिन्हा

चित्र:साभार गूगल

तन और मन की
देहरी के बीच
भावों के उफनते
अथाह उद्वेगों के ज्वार 
सिर पटकते रहते है।
देहरी पर खड़ा
अपनी मनचाही
इच्छाओं को 
पाने को आतुर
चंचल मन,
अपनी सहुलियत के
हिसाब से
तोड़कर देहरी की 
मर्यादा पर रखी
हर ईंट
बनाना चाहता है
नयी देहरी 
भूल कर वर्जनाएँ
भँवर में उलझ
मादक गंध में बौराया
अवश छूने को 
मरीचिका के पुष्प
अंजुरी भर
तृप्ति की चाह लिये
अतृप्ति के अनंत
प्यास में तड़पता है
नादान है कितना
समझना नहीं चाहता
देहरी के बंधन से
व्याकुल मन
उन्मुक्त नभ सरित के
अमृत जल पीकर भी
घट मन की इच्छाओं का
रिक्त ही रहेगा।
-श्वेता सिन्हा