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Tuesday, October 22, 2019

कभी कहाँ थे कभी कहीं हो.... डॉ. कुमार विश्वास

हो काल गति से परे चिरंतन,
अभी यहाँ थे अभी यही हो।
कभी धरा पर कभी गगन में,
कभी कहाँ थे कभी कहीं हो।

तुम्हारी राधा को भान है तुम,
सकल चराचर में हो समाये।
बस एक मेरा है भाग्य मोहन,
कि जिसमें होकर भी तुम नहीं हो।

न द्वारका में मिलें बिराजे,
बिरज की गलियों में भी नहीं हो।
न योगियों के हो ध्यान में तुम,
अहम जड़े ज्ञान में नहीं हो।

तुम्हें ये जग ढूँढता है मोहन,
मगर इसे ये खबर नहीं है।
बस एक मेरा है भाग्य मोहन,
अगर कहीं हो तो तुम यही हो।
डॉ. कुमार विश्वास
कविताकोश से

Monday, October 21, 2019

पता नहीं कितनी पुरानी रचना है ...डॉ. कुमार विश्वास

जब भी मुंह ढक लेता हूं, 
तेरे जुल्फों की छांव में.
कितने गीत उतर आते हैं, 
मेरे मन के गांव में!

एक गीत पलकों पे लिखना, 
एक गीत होंठो पे लिखना.
यानी सारे गीत हृदय की, 
मीठी चोटों पर लिखना !

जैसे चुभ जाता है 
कांटा नंगे पांव में.
ऐसे गीत उतर आता है, 
मेरे मन के गांव मे !

पलके बंद हुई जैसे, 
धरती के उन्माद सो गए.
पलकें अगर उठी तो जैसे, 
बिना बोले संवाद हो गए. !

जैसे धूप चुनरिया ओढ़े, 
आ बैठी हो छांव में.
ऐसे गीत उतर आता है, 
मेरे मन के गांव मे.!!
-डॉ. कुमार विश्वास