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Friday, December 18, 2020

उठ समाधि से ध्यान की, उठ चल .... जौन एलिया




उठ समाधि से ध्यान की, उठ चल

उस गली से गुमान की, उठ चल


मांगते हो जहाँ लहू भी उधार

तुने वां क्यों दूकान की, उठ चल


बैठ मत एक आस्तान पे अभी

उम्र है यह उठान की, उठ चल


किसी बस्ती का हो न वाबस्ता

सैर कर इस जहाँ की, उठ चल


जिस्म में पाँव है अभी मौजूद 

जंग करना है जान की, उठ चल

 

तू है बेहाल और यहाँ साजिश  

है किसी इम्तेहान की, उठ चल 


है मदारो में अपने सय्यारे 

ये घड़ी है अमान की, उठ चल 


क्या है परदेस को देस कहाँ  

थी वह लुकनत जुबां की, उठ चल 


हर किनारा खुर्म मौज थे 

याद करती है बान की, उठ चल 


- जौन एलिया

मूल रचना



Wednesday, April 29, 2020

जीना भी इक मुश्किल फन है ..डॉ. राही मासूम रजा

जीना भी इक मुश्किल फन है 
सबके बस की बात नहीं 
कुछ तूफान ज़मीं से हारे, 
कुछ क़तरे तूफ़ान हुए 

अपना हाल न देखे कैसे, सहरा भी आईना है 
नाहक़ हमने घर को छोड़ा, नाहक़ हम हैरान हुए 

दिल की वीरानी से ज्यादा मुझको 
है इस बात का ग़म 
तुमने वो घर कैसे लुटा 
जिस घर में मेहमान हुए 

लोरी गाकर जिनको सुलाती थी दिवाने की वहशत 
वो घर तनहा जाग रहे है, वो कुचे वीरान हुए 

कितना बेबस कर देती है 
शोहरत की जंजीरे भी 
अब जो चाहे बात बना ले 
हम इतने आसान हुए 
- डॉ. राही मासूम रजा

Sunday, September 8, 2019

हेकड़ी ......गुलज़ार

एक सिकंदर था पहले, मै आज सिकंदर हूँ 
अपनी धुन में रहता हूँ, मै मस्त कलंदर हूँ 

ताजमहल पे बैठ के मैंने ठुमरी-वुमरी गाई 
शाहजहाँ भी जाग गए, आ बैठे ओढ़ रजाई 
मै जितना ऊपर दीखता हूँ उतना ही अन्दर हूँ 
एक सिकंदर था पहले, मै आज सिकंदर हूँ 

कार्ल मार्क्स से बचपन में खेला है गिल्ली डंडा 
एफिल टावर पे चढ़ के छीना है चील से अंडा 
एवरेस्ट की चोटी भी हूँ मै एक समन्दर हूँ 
एक सिकंदर था पहले, मै आज सिकंदर हूँ 

लन्दन जा के जॉर्ज किंग को मैंने गाना सुनाया 
क्या नाम था रब-रक्खे उस को तबला सिखाया 
हरफन-मौला कहते है, मै एक धुरंधर हूँ 
एक सिकंदर था पहले, मै आज सिकंदर हूँ 

एक सिकंदर था पहले, मै आज सिकंदर हूँ   
-  गुलज़ार

Monday, January 7, 2019

मेरे पर निकलने लगते हैं..........राहत इन्दोरी

पुराने शहर के मंजर निकलने लगते है 
ज़मी जहा भी खुले, घर निकलने लगते है

मैं खोलता हूँ सदफ मोतियों के चक्कर में 
मगर यहाँ भी समन्दर निकलने लगते है 

हसीन लगते है जाडो में सुबह के मंजर 
सितारे धूप पहन कर जब निकलने लगते हैं 

बुरे दिनो से बचाना मुझे मेरे मौला 
करीबी दोस्त भी बचकर निकलने लगते हैं

बुलन्दियो का तसव्वुर भी खुब होता हैं 
कभी-कभी तो मेरे पर निकलने लगते हैं 

अगर ख्याल भी आए कि तुझको खत लिखू 
तो घोसले से कबूतर निकलने लगते हैं। 
- राहत इन्दोरी