Monday, December 31, 2018
Sunday, December 30, 2018
प्रेम एक आहट है.... सदा
जिसके पीछे सब हैं कतार में
कोई शब्दों से व्यक्त करता है
तो कोई मौन रहकर
प्रेम
बंसी के बजने में हो जाता है
धुन मीठी
तो कई बार हो जाता है प्रेम
विष के प्याले में अमृत !
...
प्रेम एक आहट है
जो बिना किसी पद़चाप के
शामिल हो जाता है जिंदगी में
धड़कनों का अहसास बनकर
प्रेम विश्वास है
जब भी साथ होता है
पूरा अस्तित्व
प्रेममय हो जाता है !
....
प्रेम जागता है जब
नष्ट हो जाते हैं सारे विकार
अहंकार दुबक जाता है
किसी कोने में
क्रोध के होठों पर भी
जाने कैसे आ जाती है
एक निश्छल मुस्कान
प्रेम का जादू देखो
लोभ संवर जाता है
इसकी स्मृतियों में !
....
ऐसी ही घड़ी में होता है
जन्म करूणा का
जहां प्रेम हो जाता है नतमस्तक
वहाँ दृष्टि होती है
सदा ही समर्पण की
समर्पण सिर्फ एक ही भाव
भरता है कूट-कूट कर
मन की ओखल में
विश्वास की मूसल से
जिनमें मिश्रित होते हैं
संस्कार परम्पराओं की मुट्ठी से
जो एक ताकत बन जाते हैं
हर हाथ की
तभी विजयी होता है प्रेम
उसके जागने का, होने का,
अहसास सबको होता है
नहीं मिटता फिर वो
किसी के मिटाने से !!
....
© सीमा 'सदा' सिंघल
Saturday, December 29, 2018
बिसूरती चाँदनी ....श्वेता सिन्हा
बिसूरती चाँदनी
खामोश मंजर पसरा है
मातमी सन्नाटा
ठंडी छत पर सर्द किरणें
बर्फीला एहसास
कुहासे जैसे घने बादलों का
काफ़िला कोई
नम नीरवता पाँव पसारती
पल-पल गहराती
पत्तियों की ओट में मद्धिम
फीका सा चाँद
अपने अस्तित्व के लिए लड़ता
चुपचाप अटल सा
कंपकपाते बर्फ़ के मानिंंद
सूनी हथेलियों को
अपने तन के इर्द-गिर्द लपेटे
ख़ुद से बेखबर
मौसम की बेरूख़ी को सहते
यादों को सीने से लगाये
अपनी ख़ता पूछती है नम पलकों से
बेवज़ह जो मिली
उस सज़ा की वजह पूछती है
एक रूह तड़पती-सी
यादों को मिटाने का रास्ता पूछती है।
Friday, December 28, 2018
Thursday, December 27, 2018
रात हेमन्त की..... गिरिजा कुमार माथुर
रात यह हेमन्त की
दीप-तन बन ऊष्म करने
सेज अपने कन्त की
नयन लालिम स्नेह दीपित
भुज मिलन तन-गन्ध सुरभित
उस नुकीले वक्ष की
वह छुवन, उकसन, चुभन अलसित
इस अगरु-सुधि से सलोनी हो गयी है
रात यह हेमन्त की
कामिनी सी अब लिपट कर सो गयी है
रात यह हेमन्त की
धूप चन्दन रेख सी
सल्मा-सितारा साँझ होगी
चाँदनी होगी न तपसिनि
दिन बना होगा न योगी
जब कली के खुले अंगों पर लगेगी
रंग छाप वसन्त की
कामिनी सी अब लिपट कर सो गयी है
कामिनी सी अब लिपट कर सो गयी है
Wednesday, December 26, 2018
रेत पे बिखरी मीन..........श्वेता सिन्हा
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEigC-LBhTsOUUhyphenhyphen9LMXqyW78eNQIc6eKFPJpV0BhP_hQdOblsIVZQpeIQuOD2tv-LqsOjEuxAWo56gPvrn1j-D3KTBi-I6yagHo8BAOk9IHJeea_awXCjJTuwwFafC18BUYulrh9s3_nn8/s320/FB_IMG_15049577024403040.jpg)
शब्द हो गये मौन सारे
भाव नयन से लगे टपकने,
अस्थिर चित बेजान देह में
मन पंछी बन लगा भटकने।
साँझ क्षितिज पर रोती किरणें
रेत पे बिखरी मीन पियासी,
कुछ भी सुने न हृदय है बेकल
धुंधली राह न टोह जरा सी।
रूठा चंदा बात करे न
स्याह नभ ने झटके सब तारे,
लुकछिप जुगनू बैठे झुरमुट
बिखरे स्वप्न के मोती खारे।
कौन से जाने शब्द गढ़ूँ मैं
तू मुस्काये पुष्प झरे फिर,
किन नयनों से तुझे निहारूँ
नेह के प्याले मधु भरे फिर।
तुम बिन जीवन मरूस्थल
अमित प्रीत तुम घट अमृत,
एक बूँद चख कर बौराऊँ
तुम यथार्थ बस जग ये भ्रमित।
-श्वेता सिन्हा
Tuesday, December 25, 2018
पत्थरों का शहर....कुसुम कोठारी
ये क्या कि पत्थरों के शहर में
शीशे का आशियाना ढूंढते हो!
आदमियत का पता तक नही
गजब करते हो इंसान ढूंढते हो !
यहाँ पता नही किसी नियत का
ये क्या कि आप ईमान ढूंढते हो !
आईनों में भी दगा भर गया यहां
अब क्या सही पहचान ढूंढते हो !
घरौदें रेत के बिखरने ही तो थे
तूफानों पर क्यूं इल्जाम ढूंढते हो !
जहां बालपन भी बुड्ढा हो गया
वहां मासूमियत की पनाह ढूढते हो!
भगवान अब महलों में सज के रह गये
क्यों गलियों में उन्हें सरे आम ढूंढते हो।
-कुसुम कोठारी
Monday, December 24, 2018
Sunday, December 23, 2018
सुविचार....रचनाकार अज्ञात
धार वक़्त की बड़ी प्रबल है, इसमें लय से बहा करो,
जीवन कितना क्षणभंगुर है, मिलते जुलते रहा करो।
यादों की भरपूर पोटली, क्षणभर में न बिखर जाए,
दोस्तों की अनकही कहानी, तुम भी थोड़ी कहा करो।
हँसते चेहरों के पीछे भी, दर्द भरा हो सकता है,
यही सोच मन में रखकर के, हाथ दोस्त का गहा करो।
सबके अपने-अपने दुःख हैं, अपनी-अपनी पीड़ा है,
यारों के संग थोड़े से दुःख, मिलजुल कर के सहा करो।
किसका साथ कहाँ तक होगा, कौन भला कह सकता है,
मिलने के कुछ नए बहाने नित, रचते-बुनते रहा करो।
मिलने जुलने से कुछ यादें, फिर ताज़ा हो उठती हैं,
इसीलिए यारो बिन कारण भी, मिलते जुलते रहा करो।
Saturday, December 22, 2018
बर्फ़ का शहर......सिब्त अली सबा
लब-ए-इज़हार पे जब हर्फ़-ए-गवाही आए
आहनी हार लिए दर पे सिपाही आए
वो किरन भी तो मिरे नाम से मंसूब करो
जिस के लुटने से मिरे घर में सियाही आए
मेरे ही अहद में सूरज की तमाज़त जागे
बर्फ़ का शहर चटख़ने की सदा ही आए
इतनी पुर-हौल सियाही कभी देखी तो न थी
शब की दहलीज़ पे जलने को दिया ही आए
रह-रव-ए-मंज़िल-ए-मक़्तल हूँ मिरे साथ 'सबा'
जो भी आए वो कफ़न ओढ़ के राही आए
-सिब्त अली सबा
Friday, December 21, 2018
आना जैसे बच्चा आ जाता...गुलज़ार
कभी आ भी जाना
बस वैसे ही जैसे
परिंदे आते हैं आंगन में
या अचानक आ जाता है
कोई झोंका ठंडी हवा का
जैसे कभी आती है सुगंध
पड़ोसी की रसोई से......
आना जैसे बच्चा आ जाता
है बगीचे में गेंद लेने
या आती है गिलहरी पूरे
हक़ से मुंडेर पर
जब आओ तो दरवाजे
पर घंटी मत बजाना
पुकारना मुझे नाम लेकर
मुझसे समय लेकर भी मत आना
हाँ , अपना समय साथ लाना
फिर दोनों समय को जोड़
बनाएंगे एक झूला
अतीत और भविष्य के बीच
उस झूले पर जब बतियाएंगे
तो शब्द वैसे ही उतरेंगे
जैसे कागज़ पर उतरते हैं
कविता बन
और जब लौटो तो थोड़ा
मुझे ले जाना साथ
थोड़ा खुद को छोड़े जाना
फिर वापस आने के लिए
खुद को एक-दूसरे से पाने
के लिए।
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhBxlD1O49C_hv6BE8XkcKJEHnvQ1Gow3Cpgc1O_tqV-mThJQ6ZKAvWs_30jGBy9eP83WLsHhJJBOVtpSUSBfTXaLsqzRkYyGAKCjCEFqYnEGnWb0R-UOpU7n962stS0Vww3PL_zbrORyo/s1600/GULZAR.jpg)
-गुलज़ार
Thursday, December 20, 2018
बर्फीला दिसम्बर......श्वेता सिन्हा
गुनगुनी किरणों का
बिछाकर जाल
उतार कुहरीले रजत
धुँध के पाश
चम्पई पुष्पों की ओढ़ चुनर
दिसम्बर मुस्कुराया
शीत बयार
सिहराये पोर-पोर
धरती को छू-छूकर
जगाये कलियों में खुमार
बेचैन भँवरों की फरियाद सुन
दिसम्बर मुस्कुराया
चाँदनी शबनमी
निशा आँचल में झरती
बर्फीला चाँद पूछे
रेशमी प्रीत की कहानी
मोरपंखी एहसास जगाकर
दिसम्बर मुस्कुराया
आग की तपिश में
मिठास घुली भाने लगी
गुड़ की चासनी में पगकर
ठंड गुलाब -सी मदमाने लगी
लिहाफ़ में सुगबुगाकर हौले से
दिसम्बर मुस्कुराया
Wednesday, December 19, 2018
ख़ुशी और ग़म ..........रवीन्द्र सिंह यादव
ख़ुशी आयी
ख़ुशी चली गयी
ख़ुशी आख़िर
ठहरती क्यों नहीं ?
आँख की चमक
मनमोहक हुई
कुछ देर के लिये
फिर वही
रूखा रुआँसापन
ग़म आता है
जगह बनाता है
ठहर जाता है
बेशर्मी से
ज़िन्दगी को
बोझिल बनाने
भारी क़दमों से
दुरूह सफ़र
तय करने के लिये
ख़ुशी और ग़म का
अभीष्ट अनुपात
तय करते-करते
एक जीवन बीत जाता है
अमृत घट रीत जाता है।
© रवीन्द्र सिंह यादव
Tuesday, December 18, 2018
दिसम्बर की बेदर्द रात....श्वेता सिन्हा
भोर धुँँध में
लपेटकर फटी चादर
ठंड़ी हवा के
कंटीले झोंकों से लड़कर
थरथराये पैरों को
पैडल पर जमाता
मंज़िल तक पहुँचाते
पेट की आग बुझाने को लाचार
पथराई आँखों में
जमती सर्दियाँ देखकर
सोचती हूँ मन ही मन
दिसम्बर तुम यूँ न क़हर बरपाया करो
वो भी अपनी माँ की
आँखों का तारा होगा
अपने पिता का राजदुलारा
फटे स्वेटर में कँपकँपाते हुए
बर्फीली हवाओं की चुभन
करता नज़रअंदाज़
काँच के गिलासों में
डालकर खौलती चाय
उड़ती भाप की लच्छियों से
बुनता गरम ख़्वाब
उसके मासूम गाल पर उभरी
मौसम की खुरदरी लकीर
देखकर सोचती हूँ
दिसम्बर तुम यूँ न क़हर बरपाया करो
बेदर्द रात के
क़हर से सहमे थरथराते
सीले,नम चीथड़ों के
ओढ़न-बिछावन में
करवट बदलते
सूरज का इंतज़ार करते
बेरहम चाँद की पहरेदारी में
बुझते अलाव की गरमाहट
भरकर स्मृतियों में
काटते रात के पहर
खाँसते बेदम बेबसों को
देखकर सोचती हूँ
दिसम्बर यूँ न क़हर बरपाया करो
Monday, December 17, 2018
इसी गुलाबी सर्दी के साथ याद आ रही हैं ........गुलज़ार
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhWvWXHOXs_DAceusiu_520sHSIithCg6wyrnd4PEYRFcr_nmz_zBT5E7S_UDPDsoTpWZ1wnSHyxcTCyxD3dm9WgrRNMmDebBjaegls7HoG2D3xFEsufeqf1fP7uvUPsExSrIYuhiJu258/s320/%25E0%25A4%2597%25E0%25A5%2581%25E0%25A4%25B2%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25AC%25E0%25A5%2580-%25E0%25A4%25B8%25E0%25A4%25B0%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25A6%25E0%25A5%2580-.jpg)
न जाने क्यों महसूस नहीं होती वो गरमाहट,
इन ब्राँडेड वूलन गारमेंट्स में ,
जो होती थी
दिन- रात, उलटे -सीधे फन्दों से बुने हुए स्वेटर और शाल में.
आते हैं याद अक्सर
वो जाड़े की छुट्टियों में दोपहर के आँगन के सीन,
पिघलने को रखा नारियल का तेल,
पकने को रखा लाल मिर्ची का अचार.
कुछ मटर छीलती,
कुछ स्वेटर बुनती,
कुछ धूप खाती
और कुछ को कुछ भी काम नहीं,
भाभियाँ, दादियाँ, बुआ, चाचियाँ.
अब आता है समझ,
क्यों हँसा करती थी कुछ भाभियाँ ,
चुभा-चुभा कर सलाइयों की नोक इधर -उधर,
स्वेटर का नाप लेने के बहाने,
याद है धूप के साथ-साथ खटिया
और
भाभियों और चाचियों की अठखेलियाँ.
अब कहाँ हाथ तापने की गर्माहट,
वार्मर जो है.
अब कहाँ एक-एक गरम पानी की बाल्टी का इन्तज़ार,
इन्स्टेंट गीजर जो है.
अब कहाँ खजूर-मूंगफली-गजक का कॉम्बिनेशन,
रम विथ हॉट वॉटर जो है.
सर्दियाँ तब भी थी
जो बेहद कठिनाइयों से कटती थीं,
सर्दियाँ आज भी हैं,
जो आसानी से गुजर जाती हैं.
फिर भी
वो ही जाड़े बहुत मिस करते हैं,
बहुत याद आते हैं.
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhBxlD1O49C_hv6BE8XkcKJEHnvQ1Gow3Cpgc1O_tqV-mThJQ6ZKAvWs_30jGBy9eP83WLsHhJJBOVtpSUSBfTXaLsqzRkYyGAKCjCEFqYnEGnWb0R-UOpU7n962stS0Vww3PL_zbrORyo/s1600/GULZAR.jpg)
-गुलज़ार
Sunday, December 16, 2018
सरकारी दस्तावेज़ों में थर्ड जेंडर हूँ....अपर्णा बाजपेई
न औरत हूँ न मर्द हूँ
अपने जन्मदाता का अनवरत दर्द हूँ।
सुन्दर नहीं हूँ, असुंदर भी नहीं
हुस्न और इश्क़ का सिकंदर भी नहीं।
मखौल हूँ समाज का, हँसी का लिबास हूँ,
ग़लत ही सही ईश्वर का हिसाब हूँ।
जान मुझमें भी है, संवेदना भी
जन्म भले न दूँ, पालक लाज़वाब हूँ।
हँसते हो, खिलखिलाते हो,मज़ाक बनाते हो,
तुम्हारी नीचता का क़रारा जवाब हूँ।
तुम्हारे जन्म पर तालियाँ बजाता हूँ,
अपने होने की क़ीमत माँग जाता हूँ,
मर्द का जिगर हूँ , औरत की ममता हूँ
पके हुए ज़ख्म सा हर पल रिसता हूँ
देहरी और दालान के बीच में अटका हूँ
पाच उँगलियों के साथ छठी उँगली सा लटका हूँ।
चंद सिक्के फेंक कर पीछा छुड़ाते हो,
क्यों नहीं मेरा दर्द थोड़ा सा बाँट जाते हो।
मुझमें भी साँसे हैं, मेरे भी सपने हैं,
पराये ही सही कुछ मेरे भी अपने हैं,
प्यार की झप्पी पर मेरा भी हक़ है,
इज़्ज़त की रोटी मुझे भी पसंद है।
नागरिक किताबों में बोया हुआ अक्षर हूँ,
पूरे लिखे पत्र का ज़रूरी हस्ताक्षर हूँ।
नर और नारायण के बीच का बवंडर हूँ
सरकारी दस्तावेज़ों में थर्ड जेंडर हूँ।
-अपर्णा बाजपेई
Saturday, December 15, 2018
मैं हूँ पर तुम-सी....दीप्ति शर्मा
पिता
मेरी धमनियों में दौड़ता रक्त
और तुम्हारी रिक्तता
महसूस करती मैं,
चेहरे की रंगत का तुमसा होना
सुकून भर देता है मुझमें
मैं हूँ पर तुम-सी
दिखती तो हूँ खैर
हर खूबी तुम्हारी पा नहीं सकी
पिता
सहनशीलता तुम्हारी,
गलतियों के बावजूद मॉफ करने की
साथ चलने की
सब जानते चुप रहने की
मुझे नहीं मिली
मैं मुँहफट हूँ कुछ, तुमसी नहीं
पर होना चाहती हूँ
सहनशील
तुम्हारे कर्तव्यों सी निष्ठ बन जाऊँ एक रोज
पिता
महसूस करती हूँ
मुरझाए चेहरे के पीछे का दर्द
तेज चिडचिडाती रौशनी में काम करते हाथ
कौन कहता है पिता मेहनती नहीं होते
उनकी भी बिवाइयों में दरार नहीं होती है
चेहरे पर झुर्रियां
कलेजे में अनगिनत दर्द समेटे
आँखों में आँसू छिपा
प्यार का अथाह सागर
होता है पिता
तुम
सागर हो
आकाश हो
रक्त हो
बीज हो
मुझमें हो
बस और क्या चाहिए
पिता
जो मैं हूबहू तुमसी हो जाऊँ ।
-दीप्ति शर्मा
Friday, December 14, 2018
शिशिर-ऋतु-राज, राका-रश्मियाँ चंचल !....महेन्द्र भटनागर
शिशिर-ऋतु-राज, राका-रश्मियाँ चंचल !
कि फैला दिग-दिगन्तों में सघन कुहरा,
सजल कण-कण कि मानों प्यार आ उतरा,
प्रकृति-संगीत-स्वर बस गूँजता अविरल !
शिथिल तरु-डाल, सम्पुट फूल-पाँखुड़ियाँ,
रहीं चुपचाप गिर ये ओस की लड़ियाँ,
धवल हैं सब दिशाएँ झूमती उज्वल !
गगन के वक्ष पर कुछ टिमटिमाते हैं,
सितारे जो नहीं फूले समाते हैं,
सुखद प्रत्येक उर है नृत्यमय-झलमल !
धरा आकाश एकाकार आलिंगन,
प्रणय के तार पर यौवन भरा गायन,
फिसलता नीलवर्णी शून्य में आँचल !
विहग तरु पर अकेला कूक देता है,
किसी की याद में बस हूक देता है,
नयन प्रिय-पंथ पर प्रतिपल बिछे निर्मल !
सबेरा है कहाँ ? संसार सब सोया,
पवन सुनसान में बहता हुआ खोया,
अभी हैं स्वप्न के पल शेष कुछ कोमल !
-महेन्द्र भटनागर
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