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Tuesday, July 2, 2019

प्रकृति सुर में नहीं है..... ज्योत्सना मिश्रा 'सना'

वो कहते हैं आजकल प्रकृति 
बिलकुल भी सुर में नहीं है 
हम कहते हैं प्रकृति हेतु सम्मान 
कदाचित् तुम्हारे उर में नहीं है। 

अपने स्वार्थ के लिए कर रहे हम 
प्रकृति का इतना विलय 
कि जाने अनजाने ही भूल रही 
धरित्री अपनी उचित लय। 

दिया है माँ धरित्री ने इतना 
हो सके हर मनुष का पोषण 
परन्तु लोलुपता के वशीभूत हो 
कर रहे अपनी ही माँ का शोषण। 

जो तू बोएगा वही कल काटेगा 
हो रहा है पूर्ण यह वलय 
सावधान! मनुष्य तेरा ही कृत्य 
ला रहा प्रतिदिन नई प्रलय। 

चाहत है गर कि न हो जाए 
यह ब्रह्मांड इतना शीघ्र शेष 
तो जाग और जगा सबको 
बचा ले उसे जो रहा अवशेष। 

वो कहते हैं आजकल प्रकृति 
बिलकुल भी सुर में नहीं है 
हम कहते हैं प्रकृति हेतु सम्मान 
कदाचित् तुम्हारे उर में नहीं है। 
-ज्योत्सना मिश्रा  'सना'

Friday, June 28, 2019

असहिष्णु बादल.....लक्ष्मीनारायण गुप्ता

अषाढ़, सावन भादों निकले
रिमझिम बरसे बादल।
अपना नाम लिखाती वर्षा
निकली झलका छागल।
हिनहिनाते घोड़े जैसे, बादल निकल गये।

जाने कब से बैर बाँचते
राजनीति के पिट्ठू।
खोज रहे थे अवसर बैठे
वाज दौड़ के टट्टू।
देख बिगड़ता मौसम घोड़े, तिल से ताड़ हुए।

गत वर्षों के चलते चलते
घटित हुआ कुछ ऐसा।
अर्ध सत्य वे लिखकर गाकर
पाये आदर पैसा।
दाता का जब हुआ इशारा, वे  बलिदान किये।

मानवता की परख पखरते
अर्ध सत्य उद्घोषक।
सहिष्णुत को गाली देकर
पक्के बने विदूषक।
जिनसे थी अपेक्षित समता, वे विग्रह दूत हुए।
-लक्ष्मीनारायण गुप्ता

Friday, June 7, 2019

ख़त ....अनिल खन्ना


बरसों पहले 
बिछुड़ते वक़्त 
तुमने जो ख़त 
मुझे दिया था 
उसमे अब 
झुरीयाँ सी 
पड़ने लगी हैं, 
सियाही फीकी 
पड़ने लगी है।


अश्कों में 
डूबते-तैरते अल्फ़ाज़ 
अब बेजान से 
लगने लगे हैं , 
अपनी कशिश 
खोने लगे हैं ।
ख़त का रंग 
पीला पड़ने लगा है  
कहीं-कहीं से 
छितरने लगा है, 
सच कहुँ तो 
मुझ जैसा 
लगने लगा है।


बंद अलमारी मे रखी 
कमीज़ों की तह मे 
क़ैद हो कर 
बची हुई ज़िन्दगी 
जी रहा है ।
मेरी तरह ।
-अनिल खन्ना

Tuesday, June 4, 2019

वह नहीं भूलती .....रश्मि शर्मा

अपनी अँगूठी
कहीं रखकर भूल गयी
भूल जाती है अक्सर
वो इन दिनों
दराज़ की चाबी कहीं
कभी गैस पर कड़ाही चढ़ाकर
कई बार तो
गाड़ी चलाते वक़्त
चौराहे पर रुककर सोचने लगती है
कि उसे जाना कहाँ था
वो भूलती है
बारिश में अलगनी से कपड़े उतारना
चाय में चीनी डालना
और अख़बार पढ़ना भी
आश्चर्य है
इन दिनों वह भूल गयी है
बरसात में भीगना
तितलियों के पीछे भागना
काले मेघों से बतियाना और
पंछियों की मीठी बोली
दुहराना भी
मगर वह नहीं भूली
एक पल भी
वो बातें जो उसने की थी उससे
प्रेम में डूबकर
कभी नहीं भूलती वो
उन बातों का दर्द और दंश
जो उसी से मिला है
फ़रेब से उगा आया है
सीने में कोई नागफनी
वो नहीं भूलती
झूठी बातों का सिलसिला
सच सामने आने पर किया गया
घृणित पलटवार भी
घोर आश्चर्य है
कैसे वह भूल जाती है
हीरे की महँगी अँगूठी कहीं भी रखकर
कई बार तो ख़ुद को भी भुला दिया
मगर नहीं भूलती
मन के घाव किसी भी तरह।
-रश्मि शर्मा

Tuesday, May 7, 2019

हिंदी गौरव.....बासुदेव अग्रवाल 'नमन'

(असबंधा छंद)
भाषा हिंदी गौरव बड़पन की दाता।
देवी-भाषा संस्कृत मृदु इसकी माता॥
हिंदी प्यारी पावन शतदल वृन्दा सी।
साजे हिंदी विश्व पटल पर चन्दा सी॥

हिंदी भावों की मधुरिम परिभाषा है।
ये जाये आगे बस यह अभिलाषा है॥
त्यागें अंग्रेजी यह समझ बिमारी है।
ओजस्वी भाषा खुद जब कि हमारी है॥

गोसाँई ने रामचरित इस में राची।
मीरा बाँधे घूँघर पग इस में नाची॥
सूरा ने गाये सब पद इस में प्यारे।
ऐसी थाती पा कर हम सब से न्यारे॥

शोभा पाता भारत जग मँह हिंदी से।
जैसे नारी भाल सजत इक बिंदी से॥
हिंदी माँ को मान जगत भर में देवें।
ये प्यारी भाषा हम सब मन से सेवें॥

-बासुदेव अग्रवाल 'नमन'

Thursday, April 18, 2019

तू कहे तो...मधुलिका मिश्रा

तू अगर आग है,
मैं तुझमें जल जाऊँ।
है तू समुंदर तो,
नदिया बन तुझमें समाऊँ
मैं रेत बन कभी,
तुम्हें छू जाऊँ
तो कभी लहर बन कर, 
तेरे दर तक आऊँ।
हर लम्हे को जी लूँ
तेरी हो के ज़िन्दगी बिताऊँ॥
-मधुलिका मिश्रा

Friday, February 22, 2019

अंधी दौड़....राघवेन्द्र पाण्डेय ‘राघव’

घर गिराओ आज माटी का, लगी है होड़
हो चले हम सन्निकट पाषाण के
अब न कीचड़ में कमल दल उग रहा
मोर भी नाचे नहीं दिन बीतते आषाढ़ के
हे विधाता! क्या प्रकृति भी परवशा होगी? 

हो गए इतिहास ‘अर्पण’ और ‘न्योछावर’ शब्द
हम नित नयी बुनते कला अनुबंध की 
लूटते हैं सुख लुभावन और पछताते जनम भर 
हो रही बिकवालियाँ संबंध की
इस जहां की ज़िंदगी अब अनरसा होगी? 

पशु-पक्षी पी रहे किस घाट का पानी, न जाने
तज रहे क्यों स्वत्व का उपधान 
आदमी अब है लजाता आदमी के बीच
खो रही देवी यहाँ पहचान 
छोड़ ममता, दया नारी कर्कशा होगी? 

गगनभेदी, तड़ितरोधी, प्रकृति के पर सब विरोधी 
गा रहे हम प्रगति अपनी, चाँद-मंगल पर चढ़े
सुख सुई की नोंक भर, मुस्कान टेढ़ी नज़र की
ख़ाक मानवता हुई, अब सोच लो कितना बढ़े 
दौड़ अंधी, इस दिशा की क्या दशा होगी?

-राघवेन्द्र पाण्डेय ‘राघव’

Thursday, January 17, 2019

मानवता खतरे में पाकर, चिंतित रहते मानव गीत..........सतीश सक्सेना

हम तो केवल हँसना चाहें 
सबको ही, अपनाना चाहें
मुट्ठी भर जीवन पाए हैं
हँसकर इसे बिताना चाहें
खंड खंड संसार बंटा है, सबके अपने अपने गीत।
देश नियम,निषेध बंधन में, क्यों बाँधा जाए संगीत।

नदियाँ, झीलें, जंगल,पर्वत
हमने लड़कर बाँट लिए।
पैर जहाँ पड़ गए हमारे ,
टुकड़े, टुकड़े बाँट लिए।
मिलके साथ न रहना जाने,गा न सकें,सामूहिक गीत।
अगर बस चले तो हम बाँटे, चाँदनी रातें, मंजुल गीत।

कितना सुंदर सपना होता
पूरा विश्व हमारा होता।
मंदिर मस्जिद प्यारे होते
सारे धर्म, हमारे होते।
कैसे बँटे, मनोहर झरने, नदियाँ,पर्वत, अम्बर गीत।
हम तो सारी धरती चाहें, स्तुति करते मेरे गीत।

काश हमारे ही जीवन में
पूरा विश्व, एक हो जाए।
इक दूजे के साथ बैठकर,
बिना लड़े,भोजन कर पायें।
विश्वबन्धु, भावना जगाने, घर से निकले मेरे गीत।
एक दिवस जग अपना होगा, सपना देखें मेरे गीत।

जहाँ दिल करे, वहाँ रहेंगे
जहाँ स्वाद हो, वो खायेंगे।
काले, पीले, गोरे मिलकर
साथ जियेंगे, साथ मरेंगे।
तोड़ के दीवारें देशों की, सब मिल गायें मानव गीत।
मन से हम आवाहन करते, विश्व बंधु बन, गायें गीत।

श्रेष्ठ योनि में, मानव जन्में
भाषा कैसे समझ न पाए।
मूक जानवर प्रेम समझते
हम कैसे पहचान न पाए।
अंतःकरण समझ औरों का,सबसे करनी होगी प्रीत।
माँ से जन्में, धरा ने पाला, विश्वनिवासी बनते गीत?

सारी शक्ति लगा देते हैं
अपनी सीमा की रक्षा में,
सारे साधन, झोंक रहे हैं
इक दूजे को, धमकाने में,
अविश्वास को दूर भगाने, सब मिल गायें मानव गीत।
मानव कितने गिरे विश्व में, आपस में रहते भयभीत।

जानवरों के सारे अवगुण
हम सबके अन्दर बसते हैं।
सभ्य और विकसित लोगों
में,शोषण के कीड़े बसते हैं।
मानस जब तक बदल न पाए , कैसे कहते, उन्नत गीत।
ताकतवर मानव के भय की, खुल कर हँसी उड़ायें गीत।

मानव में भारी असुरक्षा
संवेदन मन, क्षीण करे।
भौतिक सुख,चिंता,कुंठाएं
मानवता का पतन करें।
रक्षित कर,भंगुर जीवन को, ठंडी साँसें लेते गीत।
खाई शोषित और शोषक में, बढ़ती देखें मेरे गीत।

अगर प्रेम, ज़ज्बात हटा दें
कुछ न बचेगा मानव में।
बिना सहानुभूति जीवन में
क्या रह जाए, मानव में।
जानवरों सी मनोवृत्ति पा, क्या उन्नति कर पायें गीत।
मानवता खतरे में पाकर, चिंतित रहते मानव गीत।

भेदभाव की, बलि चढ़ जाए
सारे राष्ट्र साथ मिल जाएँ,
तन मन धन सब बाँटे अपना
बच्चों से निश्छल बन जाएँ,
बेहिसाब रक्षा धन, बाँटें, दुखियारों में, बन के मीत।
लड़ते विश्व में, रंग खिलेंगे,पाकर सुंदर, राहत गीत।
सतीश सक्सेना

Sunday, January 6, 2019

माँग का मौसम....अपर्णा वाजपेई

प्रेम की मूसलाधार बारिश से,
हर बार बचा ले जाती है ख़ुद को,
वो तन्हा है........
है प्रेम की पीड़ा से सराबोर,
नहीं बचा है एक भी अंग इस दर्द से आज़ाद।
जब-जब बहारों का मौसम आता है,
वो ज़र्द पत्ते तलाशती है ख़ुद के भीतर,
हरियाले सावन में अपना पीला चेहरा...

छुपा ले जाती है बादलों की ओट,
कहीं बरस न पड़े.....
उसके अंतस का भादों;
पलकों की कोर से।

माँग में;
पतझड़ का बसेरा हुआ जब से,
सूख गयी है वो....
जेठ के दोपहर सी;
कि अब, बस एक ही मौसम बचा है
उसके आस-पास
वैधव्य का।
-अपर्णा बाजपेई

Friday, July 27, 2018

यही मेरी मुहब्बत का सिला है.....मोहन जीत ’तन्हा’

यही मेरी मुहब्बत का सिला है 
मिला है दर्द दिल तोड़ा गया है 

हुआ जो कुछ भी मेरे साथ यारो
“ज़माने में यही होता रहा है”

उसे मालूम है मैं बेख़ता हूँ 
न जाने फिर भी क्यों मुझसे ख़फ़ा है

ये जिस अंदाज़ से झटका है दामन
बिना बोले ही सब कुछ कह दिया है

बहा जिस के सुरों से दर्द दिल का 
वो साज़ अब बेसुरा सा हो गया है

हुए बरसों में उन से रु-ब-रु हम 
कोई ज़ख्म-ए-कुहन फिर खिल गया है

ये मेरी खोखली सी ज़िंदगी है 
गले में ढोल जैसे बज रहा है

मैं "तन्हा" चल रहा हूँ कारवाँ में
नहीं कोई किसी से वास्ता है
-मोहन जीत ’तन्हा’

ज़ख्म-ए-कुहन = पुराना घाव

Tuesday, July 10, 2018

संकल्प....शशि पाधा


रात गई , बात गई
आओ दिन का अह्वान करें
भूलें तम की नीरवता को
जीवन में नव प्राण भरें

आओ छू लें अरुणाई को
रंग लें अपना श्यामल तन
सूर्यकिरण से साँसे माँगें
चेतन कर लें अन्तर्मन

ओस कणों के मोती पीकर
स्नेह रस का मधुपान करें।

दोपहरी की धूप सुहानी
आओ इसका सोना घोलें,
छिटका दें वो रंग सुनहरी
पंखुड़ियों का आनन धो लें

डाली- डाली काँटे चुन लें
फूलों में मुसकान भरें।

मलय पवन से खुशबू माँगें
दिशा- दिशा महका दें
पंछी छेड़ें राग रागिनी
तार से तार मिला लें

नदिया की लहरों में बहकर
सागर से पहचान करें।

शशि किरणों से लेकर चाँदी
संध्या का श्रृंगार करें
आँचल में भर जुगनू सारे
सुख सपने साकार करें

निशी तारों के दीप जलाकर
आओ मंगल गान करें।

डाली पर इक नीड़ बना कर
हरी दूब की सेज बिछाएँ
नभ की नीली चादर ओढ़ें
सपनों का संसार बसाएं

सुख के मोती चुन लें सारे
चिर जीवन का मान करें

भूलें तम की नीरसता को
आओ नव रस पान करें
नव वर्षा की नई ऊषा में
जीवन में नव प्राण भरें।
-शशि पाधा

Friday, July 6, 2018

मन एकाकी आज...शशि पाधा

चहुँ ओर प्रकृति का आह्लाद
फिर क्यों मन एकाकी आज?

प्राची का अरुणिम विहान
नव किसलय का हरित वितान
रुनझुन-रुनझुन वायु के स्वर
नीड़-नीड़ में मुखरित गान

लहर-लहर बिम्बित उन्माद
फिर क्यों मन एकाकी आज?

बदली की रिमझिम फुहार
कोयल गाये मेघ मल्हार
तितली का सतरंगी आँचल
भँवरों की मीठी मनुहार

झरनों का कल-कल निनाद
फिर क्यों मन एकाकी आज?

अंजलि में भर लूँ अनुराग
त्यागूँ मन की पीर- विराग
किरणों की लड़ियों की माला
पहनूँ, गाऊँ जीवन-राग

छिपा कहीं वेदन-अवसाद
फिर भी मन एकाकी आज
-शशि पाधा

Tuesday, April 24, 2018

ढूँढती हूँ...अजन्ता शर्मा

उनको बिसारकर ढूँढती हूँ।
पहर-दर-पहर ढूँढती हूँ।

खाकर ज़हर ज़िन्दगी का,
शाम को, सहर ढूँढती हूँ।

अपने लफ्जों का गला घोंट,
उनमें असर ढूँढती हूँ।

अन्तिम पड़ाव पर आज,
अगला सफ़र ढूँढती हूँ।

बर्दाश्त की हद देखने को,
एक और कहर ढूँढती हूँ।

दीवारें न हों घरों के सिवा,
ऐसा एक शहर ढूँढती हूँ।

रंग बागों का जीवन में भरे,
फूलों का वो मंजर ढूँढती हूँ।

इश्क की रूह ज़िन्दा हो जहाँ,
ऐसी इक नज़र ढूँढती हूँ।

दिल को खुश करना चाहूँ,
वादों का नगर ढूँढती हूँ।

रौशनी आते आते टकरा गई,
सीधी - सी डगर ढूँढती हूँ।

छोड़ जाय मेरे आस का मोती,
किनारे खड़ी वो लहर ढूँढती हूँ।

जो मुझे डंसता है छूटते ही,
उसी के लिये ज़हर ढूँढती हूँ।

जानती हूँ कोई साथ नहीं देता।
क्या हुआ ! अगर ढूँढती हूँ।

कौन कहता है कि मै ज़िन्दा हूँ?
ज़िन्दगी ठहर ! ढूँढती हूँ!

पत्थर में भगवान बसते हैं,
मिलते नहीं, मगर ढूँढती हूँ।
-अजन्ता शर्मा

Monday, January 8, 2018

छह हाइकु.....विभा रानी श्रीवास्तव

1
ठूँठ का मैत्री
वल्लरी का सहारा
मर के जीया।
2
शीत में सरि
स्नेह छलकाती स्त्री
फिरोजा लगे।
3
गरीब खुशियाँ
बारम्बार जलाओ
बुझे दीप को।
4
क्षुधा साधन
ढूंढें गौ संग श्वान
मिलते शिशु।
5
आस बुनती
संस्कार सहेजती
सर्वानन्दी स्त्री।
सर्वानन्दी = जिसको सभी विषयों में आनंद हो 
6
स्त्री की त्रासदी
स्नेह की आलिंजर
प्रीत की प्यासी।
-विभा रानी श्रीवास्तव

Saturday, December 9, 2017

अहसास....डॉ. सरिता मेहता

इक सहमी सहमी आहट है
इक महका महका साया है।
अहसास की इस तन्हाई में,
ये साँझ ढले कौन आया है।

ये अहसास है या कोई सपना है,
या मेरा सगा कोई अपना है।
साँसों के रस्ते से वो मेरे,
दिल में यूँ आ के समाया है।
अहसास की इस तन्हाई में ......

गुलाब की पांखुड़ी सा नाज़ुक,
या ओस की बूँदों सा कोमल।
मेरे बदन की काया को,
छू कर उसने महकाया है।
अहसास की इस तन्हाई में ......

शीतल चन्दा की किरणों सा,
या नीर भरी इक बदरी सा।
जलतरंग सा संगीत लिए,
जीवन का गीत सुनाया है।
अहसास की इस तन्हाई में ......
-डॉ. सरिता मेहता

Saturday, November 25, 2017

चुप.....प्रियंका सिंह



मैं 
चुप से सुनती 
चुप से कहती और 
चुप सी ही रहती हूँ 

मेरे 
आप-पास भी 
चुप रहता है 
चुप ही कहता है और 
चुप सुनता भी है 

अपने 
अपनों में सभी 
चुप से हैं 
चुप लिए बैठे हैं और 
चुप से सोये भी रहते हैं 

मुझसे 
जो मिले वो भी 
चुप से मिले 
चुप सा साथ निभाया और 
चुप से चल दिए 

मेरी 
ज़िन्दगी लगता है 
चुप साथ बँधी 
चुप संग मिली और 
चुप के लिए ही गुज़री जाती है 

कितनी 
गहरी, लम्बी और 
ठहरी सी है ये 
मेरी 
चुप की दास्ताँ........

- प्रियंका सिंह
priyanka.2008singh@gmail.com

Sunday, November 12, 2017

अहसास....डॉ. शैलजा सक्सेना

अकेलापन..
अहसास मन का,

संग-साथ..
कब जीवन भर का ?

वादे ..
रहे अधूरे

सपने..
कब हुए पूरे?,

इच्छा"..
समुद्री तरंगें,

आशा"..
जगाती उमंगें,

अनुभव..
कब सदा मीठा?

यथार्थ.
रहा सदा सीठा,

जाना..
कब स्वीकारा?

इसीलिए..
मन रहा हारा।।

-डॉ. शैलजा सक्सेना

Thursday, November 2, 2017

हर शख्स अंधा हो रहा है............डॉ. अनिल चड्डा

ज़माने में धुँआ कैसा हुआ है,
यहाँ हर शख्स अंधा हो रहा है।

दुआ कोई नहीं है काम करती,
समय ने घात सब से ही किया है!

सवालों को घुमाये जो हमेशा,
नहीं आता उसे करना वफ़ा है! 

अदायें अब नहीं हमको लुभाती,
जफाओं ने यही हमको दिया है!

‘अनिल’ जैसे कई बैठे हैं तन्हा,
ज़माने में यही होता रहा है!
-डॉ. अनिल चड्डा