मेरी शोहरत उड़ान तक पहुँची
फिर अना भी उफान तक पहुँची
बोझ घर का जो उम्र भर ढोया
ज़िंदगी अब थकान तक पहुँची
अब न दूंगा उधार लिक्खा था
मुफलिसी जब दुकान तक पहुँची
मैं बुरा था कसूर घर का क्या
बात जो खानदान तक पहुँची
खौफ पाया अँधेरों' का दिल में
तीरगी जब मकान तक पहुंचा
जिक्र उसका हो शायरी में जब
वो ग़ज़ल आसमान तक पहुँची
नफरतों का शरर उठा कैसे
आग हिन्दोस्तान तक पहुँची
फ़ैली अफवाह रफ्ता रफ्ता वो
बात जब थी जुबान तक पहुँची
बात घर की रही नहीं घर की
घर से निकली जहान तक पहुँची
पाँव उखड़े नहीं जमीं से भी
जब थी मैं आसमान तक पहुंची
तब तो लगता कसूर आशिक का
जब मुहब्बत ही जान तक पहुँची
- निर्मला कपिला