कागज की नैया किसकी दीवानी ?
नभ के पत्थर धरा पर कहानी ,
कठोर गड्ढा सड़क पर विवश जवानी ।
बचपन की याद और मौन वाणी,
बुढापा तक तो बोल उठा ज्ञानी ।
नदी रचें यात्रा में न आनाकानी,
सिंधु तक जा न शेष मनमानी ।।
प्रकृति तो नहीं कभी भी बेपानी,
गुलाब और शूल से प्रकट नादानी ।
धूल,कीचड़,हवा भी है खानदानी,
धूप और पसीना की भी मेहरबानी ।।
कुछ तो रहने दो अपनी निशानी,
तनातनी में हर आहट है गुमानी ।
निर्मल निशा भी सरल नहीं अनजानी ,
तन- मन में पीड़ादायक है भाव बदजुबानी ।।
आह से वाह रे चाह प्राणी,
अश्क और इश्क क्या स्वप्न अज्ञानी ??
गुलाम की टीस भी पुरानी ,
अभिसारिका अब क्या है ठानी ???
- विजय शंकर प्रसाद.