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Tuesday, December 29, 2020

सोच की परिधि ....डॉ. ऋतु नरेन्द्र

कभी कभी,,,
लगता है
कहीं मेरे शब्द,,
न चल दें ,,
समापन रेखा की ओर,,
मेरी संवेदनाएं ,,
मेरे विरुद्ध ,,
ना खड़ी हो जाएं,,,
कदाचित,,
चेतना शून्य,,
ना हो जाए , मेरे भाव,,
तभी ।।
अचानक,,
हृदय पोखर में,,
समय का,,
कंकड़ गिरता है,,
तडाक,
और,,
सोच की परिधि,,
विशाल होती जाती है,,
इक छोटी वृत से,,,
बड़े वृत की ओर,,,
भागती हुई,,
और ,,
समझाती है,,
जब तक
संसार प्रकाशित है,,
नित्य नए समीकरण,
उदित होंगे,,
और ।।
नवीन प्रयोग,,
होते रहेंगे
और,,,
बनते रहेंगे,,
नवीन शब्द योग,,,
और होता रहेगा,,,
नयी ,,
कविताओं,,
का सृजन।
-ऋतु