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Monday, April 5, 2021

जो एक डोर से बंधे है ...सुरेन्द्रनाथ कपूर


क्या चाहता है मन ?
क्यों इतना उदास है?
वह मिल के नहीं मिलते
जिनसे 
मिलने की प्यास है!
अपने को खोजता है 
किसी और की छाया में
रहता है खुद से दूर
मगर  गैरों के पास है!
खुशियों के सारे पल
इसी
वहशत में गुज़र जाते है
साध अधूरी रहने का सोग
हम रोज़ ही मनाते हैं!
इतना 
समझना काफी है
जो भी होता है
आकस्मिक नहीं ,
निर्धारित है।
हर चीज़ का  समय है
किसी सूत्र से 
संचालित है।
मौसम भी रंग बदलते हैं
चाँद सूरज भी 
रोज़ ढलते हैं
कुछ लोग चले जाते हैं
कुछ मीत नए मिलते है!
जो बेगाने है 
तुम्हारे थे ही नहीं,
खुद ही चले जायेंगे।
जो
एक डोर से बंधे है
वह
जाकर भी लौट आयेगे।
अपना चाहा
हो जाये तो बहुत अच्छा,
न हो ,तो उससे बेहतर।
शाश्वत सत्य है,
यकीन कर लो तो सोना है
वर्ना  गर्द से भी बदतर!
- सुरेन्द्रनाथ कपूर


Friday, July 24, 2020

रूह बेचैन हुई होगी ...प्रीती श्री वास्तव

उसने गैर को सदा देके बुलाया होगा।
मुझे ख्वाब में ही ये ख्याल आया होगा।।

जब यादों का बवन्डर छाया होगा।
मन को मेरे मैने आइना बनाया होगा।।

रूह बेचैन हुई होगी जब मेरे दिल की।
मुट्ठी में उसको कैद करके सताया होगा।।

बेतहाशा जो हुई होगी जलन सीने में।
मौत को फिर रूबरू अपने पाया होगा।।

नींद टूटी तो जिन्दगी से खफा हो बैठे।
चर्चा में गली गली मेरा साया होगा।।

-प्रीती श्री वास्तव

Wednesday, July 22, 2020

वो नन्हा अंकुर ....अनु

बारिश की बूंदों ने 
सहला दिया,प्यासी धरती के
तन को,नम होकर,
बूंदे जब समा गई,
धरती के आगोश में,
अंकुरो की कुलबुलाहट से,
माटी हुवी बैचेन,
फाड़ धरती का सीना,
वो नन्हा अंकुर, 
निकल आया बाहर,
मगर कुछ लोग,
खड़े थे,
हाथों ‌में फवाड़े,
दिमाग में शोर मचाते,
वो भेड़िए नुमा शक्ल वालों ने,
तबाड़ -तोड़ हमले कर,
उसे मार गिराया,
बस सिर्फ इसलिए कि,
जहां गर्भ से उत्पन्न हुआ,
वो जमीन एक आदिवासी की
ज़मीन थी,क्या....?
तुम देख नहीं सकते,
उनको,फलते फुलते,
वो अपने जंगल, जमीन पर
उग आए,
अंकुरो को सहेज नहीं सकते,
अपने ही अस्तित्व को बचाए रखने के लिए,
हर सुबह गीली आंखों से,
सुखी हो चुकी,
धरती पर जीवन तलाशते
अंकुर की लंबी उम्र की दुआ करते
वो तमाशबीन क्यूं  बने ...??
क्यूं खड़े रहे कतारों में,
अपने हिस्से की जमीन के लिए..!!
 -अनु,, 

Wednesday, July 1, 2020

ज़िंदगी की डोर सिर्फ़ ऊपरवाले के हाथ में है ...सीमा सदा सिंघल


सब की बोलती बंद है इन दिनों,
वक़्त बोल रहा है ..
बड़ी ही ख़ामोशी से
कोई बहस नहीं,
ना ही कोई,
सुनवाई होती है
एक इशारा होता है
और पूरी क़ायनात उस पर
अमल करती है!!!

सब तैयार हैं कमर कसकर,
बादल, बिजली, बरखा
के साथ कुछ ऐसे वायरस भी
जिनका इलाज़,
सिर्फ़ सतर्कता है
जाने किस घड़ी
करादे, वक़्त ये मुनादी.…
ढेर लगा दो लाशों के,
कोई बचना नहीं चाहिये!!
2020 फिर लौट कर
नहीं आएगा,
जो बच गया उसे
ये सबक याद रहेगा,
ज़िंदगी की डोर
सिर्फ़ ऊपरवाले के हाथ में है!!!
© सीमा सदा सिंघल

Tuesday, June 30, 2020

पानी सी होती हैं स्त्रियां ...निधि सक्सेना


पानी सी होती हैं स्त्रियाँ
हर खाली स्थान बड़ी सरलता से
अपने वजूद से भर देती हैं
बगैर किसी आडंबर के
बगैर किसी अतिरंजना के..
आश्चर्य ये
कि जिस रंग का अभाव हो 
उसी रंग में रंग जाती हैं ..
जाड़े में धूप ..
उमस में चांदनी ..
आँसुओं में बादल..
उदासी में धनक..

छोटी बहन को एक भाई की कमी खटकी
बड़ी ने तुरंत कलाई आगे बढ़ाई
राखी सिर्फ बंधवाई ही नहीं
बल्कि राखी का हर कर्तव्य 
खुशी खुशी निभाया..

माँ बाबा को बेटा चाहिए था
बेटी न जाने कब बेटा बन गई
और आजीवन बनी रही..
जब जब राष्ट्र को शूरवीरों की आवश्यकता हुई
बेटियों ने हर संकोच त्याग
केसरिया चोला ओढ़ा..
और जब जब किन्ही बच्चों ने पिता की 
अनुपस्थिति में उन्हें याद किया
माओं ने यह दायित्व भी बखूबी निभाया..
उन्होंने ममता और वात्सलय में
थोड़ा अनुशासन
और पूरी जिम्मेदारी मिलाई
और लो बन गई पापा वाली मां...
कि यूँ ही नही बन जाती हैं स्त्रियाँ
शक्ति पुंज..

~निधि सक्सेना

Monday, June 8, 2020

क़त्ल का कैसा है ...डॉ.नवीन मणि त्रिपाठी


2122 1122 1122 22

दिल सलामत भी नहीं और ये टूटा भी नहीं ।
दर्द बढ़ता ही गया जख़्म कहीं था भी नहीं ।।

कास वो साथ किसी का तो निभाया होता ।
क्या भरोसा करें जो शख्स किसी का भी नहीं ।।

क़त्ल का कैसा है अंदाज़ ये क़ातिल जाने ।
कोई दहशत भी नहीं है कोई चर्चा भी नहीं ।।

मैकदे में हैं तेरे रिंद तो ऐसे साकी ।
जाम पीते भी नही और कोई तौबा भी नहीं ।।

सोचते रह गए इज़हारे मुहब्बत होगी ।
काम आसां है मगर आपसे होता भी नहीं ।।

वो बदल जाएंगे इकदिन किसी मौसम की तरह।
इश्क से पहले कभी हमने ये सोचा भी नहीं ।।

रूठ कर जाने की फ़ितरत है पुरानी उसकी ।
मैंने रोका भी नहीं और वो रुकता भी नहीं ।।

कोशिशें कुछ तो ज़रा कीजिए अपनी साहब ।
मंजिलें ख़ुद ही चली आएंगी ऐसा भी नहीं ।।

हिज्र के बाद तो जिंदा रही इतनी सी ख़लिश ।
हाले दिल आपने मेरा कभी पूछा भी नहीं ।।

-डॉ.नवीन मणि त्रिपाठी

Wednesday, June 3, 2020

इश्क है मेहमान दिल में ....अरुणिमा सक्सेना

वज़्न   2122.   2122.   212
मतला

रस्मे उल्फत है गवारा क्यों नहीं
दर्द है दिल का सहारा क्यों नहीं ।।
लाड़ से उसने निहारा क्यों नहीं
और नज़रों का इशारा क्यों नहीं ।।

इश्क मे ऐसा अजब दस्तूर है
वो किसी का है हमारा क्यों नहीं ।।

प्यार से उसने लगाया जब गले
आपने देखा नज़ारा क्यों नहीं ।।

आंख नम है गर्म सांसे किसलिए
दर्द का दिल में शरारा क्यों नहीं ।।

इश्क है मेहमान दिल में आज भी
प्यार कम है पर ज़ियादा क्यों नहीं ।।

जा रहा था राह से मेरी मगर
प्यार से उसने पुकारा क्यों नहीं।।

-अरुणिमा सक्सेना
28. 05. 20

Tuesday, June 2, 2020

संस्कारों में व्यथा उलझ गई .....निधि सक्सेना

तनिक ठहरो
रुको तो
देखो साड़ी में पायल उलझ गई
कि दायित्व में अलंकार उलझ गए
संस्कारों में व्यथा उलझ गई..
कल भी ऐसा ही हुआ था
कल भी पुकारा था तुम्हें
कल भी तुम न रुके..
सुनो ये वही पायल हैं
जो मैंने भांवरों में पहनी थी
ये साक्षी हैं तुम्हारे उस वचन की
कि तुम मुझे अनुगामिनी नहीं
सखा स्वीकारोगे..
तुम मेरे स्वामी नहीं
मित्र बनोगे..
अब यहां आओ
और इसे सुलझाओ
सुलझाओ कि मैं  
तुम्हारे दायित्वों को 
अलंकार की भांति घारण करूँ..
सुलझाओ की 
संस्कारों के वहन में 
हम सहभागी हैं
सुलझाओ कि इस यात्रा की 
परिणति ही प्रेम  है..
-निधि सक्सेना

Thursday, May 28, 2020

मैं स्त्री हूं ...उमा त्रिलोक


दहेज में मिला है मुझे
एक बड़ा संदूक हिदायतों का
आसमानी साड़ी में लिपटा हुआ संतोष
सतरंगी ओढ़नी में बंधी सहनशीलता
गांठ में बांध दिया था मां ने
आशीष,
"अपने घर बसना और....
विदा होना वहीं से "

फिर चलते चलते रोक कर कहा था
"सुनो,
किसी महत्वाकांक्षा को मत पालना
जो मिले स्वीकारना
जो ना मिले
उसे अपनी नियति मान लेना
बस चुप रहना
सेवा और बलिदान को ही धर्म जानना "
और
कहा था

"तेरी श्रृंगार पिटारी में
सुर्खी की जगह
लाल कपड़े में बांध कर मैंने
रख दिया है
" मीठा बोल "
बस उसे ही श्रृंगार मानना
और
चुप रहना

मां ने इतना कुछ दिया
मगर भूल गई देना मुझे
अन्याय से लडने का मंत्र
और
मैं भी पूछना भूल गई
कि
यदि सीता की तरह, वह मेरा
परित्याग कर दे
तो भी क्या मैं चुप रहूं
और यदि द्रौपदी की तरह
बेइज्जत की जाऊं
क्या, तो भी

क्या,
दे दूं उसे हक
कि
वह मुझे उपभोक्ता वस्तु समझे
लतादे मारे, प्रताड़े

क्या
उसके छल कपट को अनदेखा कर दूं
समझौता कर लूं
उस की व्यभिचारिता से
पायदान की तरह पड़ी रहूं
सहती सब कुछ
फिर भी ना बोलूं
अन्याय के आगे
झुक जायूं

मां
अगर ऐसा करूंगी तो फिर किस
स्वाभिमान से
अपने बच्चों को
बुरे भले की पहचान करवाऊंगी
किस मुंह से उन्हें
यातना और अन्याय के आगे
न झुकने का पाठ पढ़ाऊंगी

मां
"मुझे अपनी अस्मिता की
रक्षा करनी है"

"सदियों से
स्त्री का छीना गया है हक
कभी उसके होने का हक
कभी उसके जीने का हक
बस अब और नहीं"

अब तो उसने
विवशता के बंधनों से जूझते जूझते
गाड़ दिए हैं
अनेकों झंडे
लहरा दिए हैं
सफलताओं के कई परचम

मां
अब तो कहो मुझ से
कि कोशिश करूं मैं
सृष्टि का यह विधान

क्यों कि नहीं जीना है मुझे
इस हारी सोच की व्यथा के साथ
"मुझे जीना है
हंस ध्वनि सा
गुनगुनाता जीवन
गीत सा लहराता जीवन"

मैं स्त्री हूं

-उमा त्रिलोक


Sunday, May 24, 2020

चन्द अपनो की तलाश होती है ...कात्यायनी गौड़

वो होतीं है ना
कुछ लड़कियां,
जिन्हें पंक्ति के अंत मे दिखते है
प्रश्नचिन्ह ना की पूर्णविराम

वो
जिन्हें संस्कारी और मूक बधिर
होने में अंतर मालूम
होता है

वो जो
धार्मिक नहीं आध्यात्मिक
होने में विश्वास रखतीं हैं

जिन्हें भीड़ नहीं
चन्द अपनो की
तलाश होती है

जो किसी भी कार्य के
अंत का सोच कर
आरम्भ करने से
पीछे नहीं हटतीं

जो सही दूसरो का
और गलती अपनो
की भी बताती हैं

हाँ वो ही लड़कियाँ ,
हकदार है ये बताने को
कि लड़कियाँ कैसी होनी चाहिए
© कात्यायनी गौड़

Saturday, May 23, 2020

जाने कहाँ खो गई हूँ , मैं .......वीणा जैन


चहुँ ओर
चहकती चहल - पहल में
जाने कहाँ खो गई हूँ , मैं !!
और , तुम कहते हो
इस चहल - पहल का एक अहम हिस्सा हूँ , मैं .....
एक हलचल
एक बेचैनी
एक तलाश
एक तिश्नगी
कुछ भ्रान्त हूँ .. मैं क्लांत हूँ
कि, कौन कहानी का किस्सा हूँ ,
मैं ?
कितने मुखौटे पहने मैंने
कब - कब दर्पण देखे मैंने ....
कौन जगह है
कायनात में , मेरे खातिर
क्या है मेरा ठिकाना .....
कहाँ छुपे हैं , अर्श मेरे
कौन गढ़ता है , संघर्ष मेरे ...
किस ने लिखी यह अधूरी कहानी
मैं कहाँ सम्पूर्ण कहानी ...
कि , मेरे ही आंगन में
महज मेहमां नवाजी का
एक अनूठा किस्सा हूँ , मैं ...
और , तुम कहते हो
इस चहल - पहल का एक अहम हिस्सा हूँ , मैं ....

-वीणा जैन

Thursday, May 14, 2020

औरतें बहुत बुरी होती है, जब वे खड़ी होकर बोलने लगती हैं ...अज्ञात

कई दिनो से पीठ में बहुत दर्द था
डाक्टर ने कहा
अब और
झुकना मत
अब और झुकने की
गुंजाइश नहीं
तुम्हारी रीढ की हड्डी में गैप आ गया है
सुनते ही उसे
हँसी और रोना
एक साथ आ गया..

ज़िंदगी में पहली बार
वह किसी के मुँह से
सुन रही थी
ये शब्द ...

बचपन से ही वह
घर के बड़े, बूढ़ों
माता-पिता
और समाज से
यही सुनती आई है,
झुकी रहना...

औरत के
झुके रहने से ही
बनी रहती है गृहस्थी..
बने रहते हैं संबंध
प्रेम..प्यार,
घर परिवार
वो
झुकती गई
भूल ही गई
उसकी कोई रीढ भी है..
और ये आज कोई
कह रहा है
झुकना मत..

वह परेशान सी सोच रही है
कि क्या सच में
लगातार झुकने से रीढ की हड्डी
अपनी जगह से
खिसक जाती हैं
और उनमें
खालीपन आ जाता है..

वह सोच रही है...
बचपन से आज तक
क्या क्या खिसक गया
उसके जीवन से
बिना उसके जाने समझे...

उसका खिलंदड़ापन,
अल्हड़पन
उसके सपने
उसका मन
उसकी चाहत..
इच्छा, अनिच्छा
सच
कितना कुछ खिसक गया
जीवन से..

क्या वाकई में औरत की
रीढ की हड्डी बनाई है भगवान ने
समझ नहीं आ रहा.....
-अज्ञात
साभार :- Womaniya

Monday, May 11, 2020

वो करके नशा फिर झिझकने लगे ...प्रीती श्रीवास्तव

जो हम आइनें में सवरनें लगे।
हमें देखकर वो मचलनें लगे।।

नशा इस कदर उनपे छाया के फिर।
वो तो नींद में यारों चलने लगे।।

जो आयी कयामत न पूछों ये तुम।
सरे बज्म ही वो बहकने लगे।।

न पूछों मुहब्बत में हाल फिर।
वो शम्मा के जैसे पिघलने लगे।।

गजब की कहानी लिखी शाम तक।
हुई शाम वो फिर सँभलने लगे।।

कहूं आगे कुछ तो बहकना नही।
वो करके नशा फिर झिझकने लगे।।
-प्रीती श्रीवास्तव

Saturday, November 9, 2019

अपना बना कर देखो ना ..निधि सक्सेना

ग़ैरों को अपना बनाने का हुनर है तुममें
कभी अपनो को अपना बना कर देखो ना..

ग़ैरों का मन जो घड़ी में परख लेते हो
कभी अपनो का मन टटोल कर देखो ना..

माना कि ग़ैरों संग हँसना मुस्कुराना आसां है
कभी मुश्किल काम भी करके देखो ना..

कामकाजी बातचीत ज़रूरी है ज़माने से
कभी अपनो संग ग़ैरज़रूरी गुफ़्तगू भी कर देखो ना ..

इतने मुश्किल नहीं जो अपने हैं
कभी मुस्कुरा कर हाथ बढ़ा कर देखो ना..
चित्र कविताकोश से
-निधि सक्सेना
फेसबुक से

Saturday, October 26, 2019

लुटे न देश कहीं आज ...नवीन मणि त्रिपाठी

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लुटे न देश कहीं आज लंतरानी में ।
लगा रहे हैं मियां आग आप पानी में।।

खबर है सबको किधर जा रही है ये कश्ती ।
जनाब जीते रहें आप शादमानी में ।।

अजीब शोर है खामोशियों के बीच यहाँ ।
बहें हैं ख़्वाब भी दरिया के इस रवानी में ।।

सवाल जब से तरक़्क़ी पे उठ रहा यारो ।।
चुरा रहे हैं नज़र लोग राजधानी में ।।

लिखेगा जब भी कोई क़त्ल की सियासत को ।
तुम्हारा जिक्र तो आएगा हर कहानी में ।।

किसे है फिक्र यहां उनकी बदनसीबी की ।
कटोरे ले के जो निकले हैं इस जवानी में ।।

ऐ नौजवां तू जरा मांग हक़ की रोटी को ।
बहुत है जादू सुना उनकी मिह्रबानी में ।।

यकीन हम भी न करते अगर खबर होती ।
मिलेंगे ज़ख्म बहुत प्यार की निशानी में ।।

- नवीन मणि त्रिपाठी

Monday, July 29, 2019

सावन ......देवेन्द्र पाण्डेय

भीड़ देख अझुरायल हउवा?
भाँग छान बहुरायल हउवा?

बुधिया जरल बीज से घायल
कइसे कही कि सावन आयल!

पुरूब नीला, पच्छुम पीयर
नीम अशोक पीपल भी पीयर

केहू ना जरको हरियायल
कइसे कही कि सावन आयल!

कउने डांड़े में बदरा-बदरी
खेलत हउवन पकरा-पकरी

धुपिया से अंखिया चुंधियायल
कइसे कही कि सावन आयल!

कत्तो बिजुरी नाहीं चमकल 
एक्को बुन्नी नाहीं बरसल

धरती धूप ताप धधायल
कइसे कही कि सावन आयल!

का भोले बाबा का कइला
बुन्नी के जटवा मा धइला?

खोला ! बरसे दा ! हहरायल
कइसे कही कि सावन आयल!
@देवेन्द्र पाण्डेय
मूल रचना

Saturday, July 27, 2019

तू बता दे कि फायदा क्या है ....डॉ.नवीन मणि त्रिपाठी

2122 1212 22
पूछिये मत कि हादसा क्या है ।
पूछिये दिल कोई बचा क्या है।।

दरमियाँ इश्क़ मसअला क्या है।
तेरी उल्फ़त का फ़लसफ़ा क्या है ।।

सारी बस्ती तबाह है तुझसे ।
हुस्न तेरी बता रज़ा क्या है ।।

आसरा तोड़ शान से लेकिन ।
तू बता दे कि फायदा क्या है ।।

रिन्द के होश उड़ गए कैसे ।
रुख से चिलमन तेरा हटा क्या है ।।

बारहा पूछिये न दर्दो गम ।
हाले दिल आपसे छुपा क्या है ।।

फूँक कर छाछ पी रहा है वो ।
आदमी दूध का जला क्या है ।।

चाँद दिखता नहीं है कुछ दिन से ।
घर पे पहरा कोई लगा क्या है ।।

अश्क़ उतरे हैं तेरी आंखों में ।
ख़त में उसने तुझे लिखा क्या है ।।

-डॉ.नवीन मणि त्रिपाठी 
मौलिक अप्रकाशित

Saturday, June 29, 2019

सुनो ज़िंदगी ....निधि सक्सेना

नहीं ज़िंदगी
यूँ नग्न न चली आया करो 
कुरूप लगती हो 
बेहतर है कि कुछ लिबास पहन लो
कि जब शिशुओं के पास जाओ
तो तंदुरुस्ती का लिबास ओढ़ो..

जब बेटियों के पास जाओ
तो यूँ तो ओढ़ सकती हो गुलाबी पुष्पगुच्छ से सजी चुनरी
या इंद्रधनुषी रंगों से सिली क़ुर्ती
परंतु सुनो 
तुम सुरक्षा का लिबास ओढ़ना..

जो गर इत्तफ़ाक़न किसी स्त्री के पास पहुँचो
तो पहन कर जाना प्रेम बुना झालरदार सम्मान ..

जब बेटों के पास जाओ
तो समझ कर लिबास पहनना 
मत पहनना उन्माद आक्रोश
पहनना ज़िम्मेदारी वाली उम्मीद ..

पुरुषों के पास संवेदनाओं से भरा पैरहन पहन कर जाना
जिसमें ईमानदारी के बटन लगे हो ..

सुनो ज़िंदगी
किसी आँख में आँसू का आवरण मत बनना 
हाथों में मत उतरना गिड़गिड़ाहट बन कर ..

कि सुनो 
शिशु की किलकारी
बालकों की खिलखिलाहट 
बारिश का पानी
गीतों की सरगम 
घर पहुँचने की ठेलमठेल 
ये सब ख़ूबसूरत है
इन्हें पहन कर किसी का भी दरवाज़ा खटखटाओ..
फिर सुनो फुसफुसाहट वाली हँसी..
-निधि सक्सेना

Monday, June 24, 2019

मुहब्बत का श्री गणेश.....नवीन मणि त्रिपाठी

2122 2122 212

हुस्न का बेहतर नज़ारा चाहिए ।
कुछ तो जीने का सहारा चाहिए ।।

हो मुहब्बत का यहां पर श्री गणेश ।
आप का बस इक इशारा चाहिए ।।

हैं टिके रिश्ते सभी दौलत पे जब ।
आपको भी क्या गुजारा चाहिए ।।

है किसी तूफ़ान की आहट यहां ।
कश्तियों को अब किनारा चाहिए ।।

चाँद कायम रह सके जलवा तेरा ।
आसमा में हर सितारा चाहिए ।।

फर्ज उनका है तुम्हें वो काम दें ।
वोट जिनको भी तुम्हारा चाहिए ।।

अब न लॉलीपॉप की चर्चा करें ।
सिर्फ हमको हक़ हमारा चाहिए ।।

कब तलक लुटता रहे इंसान यह ।
अब तरक्की वाली धारा चाहिए ।।

जात मजहब।से जरा ऊपर उठो ।
हर जुबाँ पर ये ही नारा चाहिए ।।

अम्न को घर में जला देगा कोई ।
नफरतों का इक शरारा चाहिए ।।
- नवीन मणि त्रिपाठी
शब्दार्थ - शरारा - चिंगारी