Wednesday, November 30, 2011

इतनी नादानी जहां के सारे दानाओं में थी |.....................अल्लामा इक़बाल

इक शोख़ 'किरण', शोख़ मिसाले-निगहे-हूर,
आराम से फ़ारिग़ सिफ़ते-जौहरे-सीमाब |
बोली की मुझे रूख़सते-तनवीर अता हो,
जब तक न हो मशरिक़ क़ा हर एक ज़र्रा जहांताब |
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तुझे याद क्या नहीं है मिरे दिल क़ा वो ज़माना,
वो अदब-गहे-मुहब्बत, वो निगह क़ा ताज़ियाना |
मिरा हमसफीर इसे भ़ी असरे-बहार समझे,
उन्हें क्या ख़बर कि क्या है यह नवा-ए-आशिक़ाना |
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यूं तो ऐ बज्में-जहां, दिलकश थे हंगामे तिरे,
इक ज़रा अफसुर्दगी तेरे तमाशाओं में थी |
पा गई आसूदगी, कू-ए-मुहब्बत में वो ख़ाक़,
मुद्दतों आवारा जो हिकमत के सहराओं में थी |
हुस्न की तासीर पर ग़ालिब न आ सकता था इल्म,
इतनी नादानी जहां के सारे दानाओं में थी |
-------------अल्लामा इक़बाल
प्रस्तुत कर्ता.............मुनीर अहमद मोमिन

Tuesday, November 29, 2011

निकाला करती है घर से ये कहकर तू तो मजनू है.......अकबर इलाहाबादी

उन्हें शौक़-ए-इबादत भी है और गाने की आदत भी
निकलती हैं दुआऎं उनके मुंह से ठुमरियाँ होकर

तअल्लुक़ आशिक़-ओ-माशूक़ का तो लुत्फ़ रखता था
मज़े अब वो कहाँ बाक़ी रहे बीबी मियाँ होकर

न थी मुतलक़ तव्क़्क़ो बिल बनाकर पेश कर दो गे
मेरी जाँ लुट गया मैं तो तुम्हारा मेहमाँ होकर

हक़ीक़त में मैं एक बुल्बुल हूँ मगर चारे की ख्वाहिश में
बना हूँ मिमबर-ए-कोंसिल यहाँ मिट्ठू मियाँ होकर

निकाला करती है घर से ये कहकर तू तो मजनू है
सता रक्खा है मुझको सास ने लैला की माँ होकर
---------अकबर इलाहाबादी
अकबर इलाहाबादी---शायर भी, सिपाही भी
शनिवार, 28 जून 2008