Thursday, July 31, 2014

आज गाँव हमें याद आया है........सचिन अग्रवाल








अब मैं भी बेगुनाह हूँ रिश्तों के सामने
मैंने भी झूठ कह दिया झूठों के सामने

एक पट्टी बाँध रक्खी है मुंसिफ ने आँख पर
चिल्लाते हुए गूंगे हैं बहरों के सामने

मुझको मेरे उसूलों का कुछ तो बनाके दो
खाली ही हाथ जाऊं क्या बच्चों के सामने

एक वक़्त तक तो भूख को बर्दाश्त भी किया
फिर यूँ हुआ वो बिछ गयी भूखों के सामने

वो रौब और वो हुक्म गए बेटियों के साथ
खामोश बैठे रहते हैं बेटों के सामने

मुद्दत में आज गाँव हमें याद आया है
थाली लगा के बैठे हैं चूल्हों के सामने






 सचिन अग्रवाल
फेसबुक से

Wednesday, July 30, 2014

यादों की किरचें ..................................फाल्गुनी
















दिल की कोमल धरा पर
धँसी हुई है
तुम्हारी यादों की किरचें
और
रिस रहा है उनसे
बीते वक्त का लहू,

कितना शहद था वह वक्त
जो आज तुम्हारी बेवफाई से
रक्त-सा लग रहा है।
तुम लौटकर आ सकते थे
मगर तुमने चाहा नहीं

मैं आगे बढ़ जाना चाहती थी
मगर ऐसा मुझसे हुआ नहीं।

तुम्हारी यादों की
बहुत बारीक किरचें है
दुखती हैं
पर निकल नहीं पाती

तुमने कहा तो कोशिश भी की।
किरचें दिल से निकलती हैं तो
अँगुलियों में लग जाती है

कहाँ आसान है
इन्हें निकाल पाना
निकल भी गई तो कहाँ जी पाऊँगी
तुम्हारी यादों के बिना। 
-फाल्गुनी

Tuesday, July 29, 2014

घबरा रही हूँ अन्तर्मन के शोर से..........फाल्गुनी






सहजता से कह दिया तुमने,
फाल्गुनी, मैं नहीं कर सकता तुमसे प्यार,
क्योंकि मैं डरता हूँ,
तुम्हारी आँखों की उजली भोर से..!

फिर कहा था यह भी कि
'वह' मैं कर चुका हूँ किसी और से...!

कभी अकेले में पूछना अपने मन के चोर से...
क्यों फिर हम आज भी बँधे हैं 

एक सुगंधित डोर से।

अतीत के गुलाबी पन्ने पढ़ना कभी गौर से,
तुम्हीं ने मेरे दिल को पुकारा था जोर से,

वह पल महका हुआ भेज रही हूँ आज इस छोर से,
ऊपर से शांत हूँ लेकिन घबरा रही हूँ अन्तर्मन के शोर से।

-फाल्गुनी

नहीं होता है सावन खुशगवार........फाल्गुनी

 




















नहीं दिखता तुम्हारी आँखों में
अब वो शहदीया राज


नहीं खिलता देखकर तुम्हें
मेरे मन का अमलतास,


नहीं गुदगुदाते तुम्हारी
सुरीली आँखों के कचनार


नहीं झरता मुझ पर अब
तुम्हारे नेह का हरसिंगार,


सेमल के कोमल फूलों से
नहीं करती माटी श्रृंगार


बहुत दिनों से उदास खड़ा है
आँगन का चंपा सदाबहार,


रिमझिम-रिमझिम बूँदों से
मन में नहीं उठती सौंधी बयार


रुनझुन-रुनझुन बरखा से

नहीं होता है सावन खुशगवार,

बीते दिन की कच्ची यादें
चुभती है बन कर शूल
मत आना साथी लौटकर
अब गई हूँ तुमको भूल।


-फाल्गुनी

Friday, July 25, 2014

औरतें...............श्रीमती रश्मि रमानी



 











हां
स्त्री ही है वह
सूर्यमुखी की तरह
जिसके सूर्य को निहारने भर से
झरता है भीतर के अंधेरों में
पीला प्रकाश।

जिस खुशमिजाज अजनबी के साथ
बड़ी आसानी से तय कर लिया जाता है
वीरानों का उदास सफर
यकीनन
हो सकती है वो कोई औरत ही
आसमान की तरह साधारण
हवी-सी मुक्त
और पानी जैसी पारदर्शी
संसार में कोई है
तो बेशक
वह स्त्री ही है।

दुनिया जहान के जंगल में
राह भूले मुसाफिर को मिल जाती है
किसी पगडंडी की तरह
और, आसानी से पहुंचा देती है सही मुकाम पर
कोई और नहीं वो औरत ही होती है


जिंदगी के सफर को आसान बनातीं
वे हथेलियां औरतों की ही होती हैं


जिन पर चलते नहीं थकते मर्दों के पांव
बहुत ज्यादा न सही
पर उनकी मौजूदगी
बचा सके मर्द के वजूद को झुलसने से
इतनी तो दे ही देती है छांव।



- श्रीमती रश्मि रमानी


स्रोतः वेब दुनिया

Thursday, July 24, 2014

कभी मुझसे वो मिला भी है...........राहत इन्दौरी


जो मेरा दोस्त भी है, मेरा हमनवा भी है
वो शख़्स, सिर्फ भला ही नहीं, बुरा भी है

मैं पूजता हूं जिसे, उससे बेनियाज भी हूं
मेरी नज़र में वो पत्थर भी है, ख़ुदा भी है

सवाल नींद का होता तो कोई बात न थी
हमारे सामने ख़्वाबों का मसअला भी है

जवाब दे न सका, और बन गया दुश्मन
सवाल था ,के तेरे घर में आईना भी है

जरूर वो मेरे बारे में राय दें लेकिन 'राहत'
ये पूछ लेना कभी मुझसे वो मिला भी है

-राहत इन्दौरी 
प्राप्ति स्रोतः मधुरिमा


Wednesday, July 23, 2014

तेरे होठों पर मुस्कुराहट हो...............सुनीता घिल्डियाल







 














जिंदगी !!!
तेरे होठों पर मुस्कुराहट हो
तेरे माथे पर चमकता सूरज हो
तेरे कांधों पर घटाओं के घेरे हों
तेरी छुअन में एक उष्णता हो

जिंदगी !!!
तू जब भी मिले मुझसे
तेरा चेहरा मां से मिलता हो
तेरी आंखों में पिता का लाड़ हो
तेरी हथेलियों में हरारत हो

जिंदगी !!!
तू मिले, तो मिलना उजाला बनकर
सूरज की गुनगुनी धूप बनकर
वर्षा की रिमझिम बनकर
तारों की झिलमिल बनकर

जिंदगी !!!
मिलना होगा तुझे सागर के पार
क्षितिज के उस बिंदु पर
मिलते हैं जहां मौजों की गवाही में
अंबर और धरती एक-दूजे से

जिंदगी !!!
मिलना होगा तुझे...


- सुनीता घिल्डियाल


Monday, July 21, 2014

सपना टूट गया.....अटल बिहारी बाजपेयी

हाथों का हल्दी है पीली
पैरों की मेहंदी है कुछ गीली
पलक झपकने के पहले ही
सपना टूट गया

दीप बुझाया रची दिवाली
लेकिन कटी न अमावस काली
व्यर्थ हुआ आह्वान, स्वर्ण सवेरा रूठ गया
सपना टूट गया

नियति नटी की लीला न्यारी
सब कुछ स्वाही की तैयारी
अभी चला दो कदम कारवां,साथी छूट गया
सपना टूट गया

अटल बिहारी बाजपेयी
जन्मः 25,दिसम्बर,1924, ग्वालियर, मध्यप्रदेश
स्रोतः रसरंग

Sunday, July 20, 2014

अहसास.................जया चक्रवर्ती







 





जानती हूँ कि मेरे आसपास
मुंह लगे शिकारी कुत्तों का
जमघट लग चुका है,


जिनके दांतों से
रोटी की सोंधी महक की बजाय
ताजे इंसानी ख़ून की
बदबू आ रही है.


पर अब
किया भी क्या जा सकता है
मैंनें ही तो उनकी ओर
रोटी के बजाय-
गोश्त का टुकड़ा
...उछाला था

-जया चक्रवर्ती

श्रीमती जया चक्रवर्ती के बारे में...
वे जानी-मानी फिल्म अभिनेत्री हेमा मालिनी की माता हैं
और वे एक कठोर अनुशासन वाली माँ के साथ-साथ कवि भी थी
श्रीमती जया चक्रवर्ती मूलतः तमिल मे ही लिखती हैं...
उनकी कुछ ही कविताओं का हिन्दी अनुवाद उपलब्ध है
उनकी यह रचना एक पुराने समाचार के पन्नों से प्राप्त हुई 
 
मेरी सोच........
ये कविता कुछ अधूरी सी लग रही है
किसी जानकार को इसका बाकी हिस्सा मिले तो कृपया मुझे बताने की कृपा करें
 


तुम्हारा भीना संदेश............फाल्गुनी



















जब सोचा था तुमने
दूर कहीं मेरे बारे में
यहाँ मेरे हाथों की चुड़ियाँ छनछनाई थी।


जब तोड़ा था मेरे लिए तुमने
अपनी क्यारी से पीला फूल
यहाँ मेरी जुल्फें लहराई थी।


जब महकी थी कोई कच्ची शाख
तुमसे लिपट कर
यहाँ मेरी चुनरी मुस्कुराई थी।


जब निहारा था तुमने उजला गोरा चाँद
यहाँ मेरे माथे की
नाजुक बिंदिया शर्माई थी।


जब उछाला था तुमने हवा में
अपना नशीला प्यार
यहाँ मेरे बदन में बिजली सरसराई थी।


तुम कहीं भी रहो और
कुछ भी करों मेरे लिए,
मेरी आत्मा ले आती है
तुम्हारा भीना संदेश
मेरे जीवन का बस यही है शेष।


-फाल्गुनी


Saturday, July 19, 2014

आज खुद को विश्वास दिला रहा हूँ..............फाल्गुनी























जब देखता हूँ मैं
तुम्हारे माथे पर
चमकती पसीने की बूँदें,


ओस झरती हैं
मेरे दिल की महकती क्यारी में,


जब देखता हूँ मैं
तुम्हें गोबर और पीली मिट्टी से
घर का आँगन लीपते हुए
मेरे मन के आँगन से सौंधी खुशबू उड़ती है,


जब बुनती हो तुम
ठिठुरती सर्दियों में कोई मफलर मेरे लिए
मेरे अंदर का मुस्कुराता प्यार
ख्वाब बुनता है तुम्हारे लिए।
कभी-कभी सोचता हूँ कि
काश,
तुम मेरे इन देखे-अनदेखे सपनों की
एक झलक भी देख पाती तो
शायद यूँ कुँवारा छोड़ मुझे
खुद कुँवारी ना रह जाती।


आज जब गर्मियों में
तुम्हारी यादों की कोयल का
कंठ बैठे जा रहा है
तुम्हारा हाथ
अमराई के तले
मेरे कान उमेठे जा रहा है।


फाल्गुनी,
तुम नहीं लौटोगी
ये मुझे पता है,
पता नहीं क्यों
आज खुद को विश्वास दिला रहा हूँ।
यह अनकही कविता तुमसे ही लिखवा रहा हूँ। 


-फाल्गुनी

Friday, July 18, 2014

कोई पार नदी के गाता...........हरिवंशराय बच्चन




भंग निशा की नीरवता कर
इस देहाती गाने का स्‍वर
ककड़ी के खेतों से उठकर,
आता जमुना पर लहराता
कोई पार नदी के गाता।


होंगे भाई-बंधु निकट ही
कभी सोचते होंगे यह भी
इस तट पर भी बैठा कोई,
उसकी तानों से सुख पाता
कोई पार नदी के गाता।


आज न जाने क्‍यों‍ होता मन
सुनकर यह एकाकी गायन
सदा इसे मैं सुनता रहता,
सदा इसे मैं गाता जाता
कोई पार नदी के गाता। 


-हरिवंशराय बच्चन

Thursday, July 17, 2014

तो घर नहीं लौटी..........ज़हीर कुरेशी

 















मैं जानता हूं कि
फिर उम्र भर नही लौटी
नदी पहाड़ से बिछुड़ी
तो घर नहीं लौटी।

लहर ने वादा किया था कि
तट को छुएगी ज़रूर,
है तट प्रतीक्षा में,
लहर नहीं लौटी।

खिले हजारों की संख्या में
फूल सूर्यामुखी,
फिर उस तरह की
कभी दोपहर नहीं लौटी।

इतना तो तय था कि
अस्मत लुटा के लौटेगी,
सुबह की भूली
अगर रात भर नहीं लौटी।

वो कर रही है परिस्कार
भूल अपनी का,
उधर से चल पड़ी थी,
इधर नहीं लौटी।

विचारने के अलावा भी
क्या किया जाए,
हमारी आँखो तलक नींद
अगर नहीं लौटी।

मनुष्य-लोक को दौड़ा
तो स्वर्ग-लोक गए,
वहां पहुंचने की
अब तक खबर नहीं लौटी।

-ज़हीर कुरेशी

स्रोतः मधुरिमा

Wednesday, July 16, 2014

सहज सरल हो गया...........इब्बार रब्बी














वर्षा में भींगकर
सहज सरल हो गया,
गल गई सारी किताबें
मैं मनुष्य हो गया।

ख़ाली-ख़ाली था
जीवन ही जीवन हो गया,
मैं भारी-भारी
हलका हो गया।

बरस रही हैं बूंदें
इनमें होकर
ऊपर को उठा
लपक कर तना।

पानी का पेड़
आसमान हो गया
वर्षा में भींगकर
मैं महान हो गया।


-इब्बार रब्बी


स्रोतः मधुरिमा

Tuesday, July 15, 2014

हम दोनों नाराज है..................फाल्गुनी




 














दूरियों की
सघन काली घटाओं से
अचानक झाँक उठी
यादों की चमकीली चाँदनी
और मेरे उदास आँगन में
खिल उठी तुम्हारे प्यार की
नाजुक कुमुदनी,
कितनी देर तक
मैं अकेली महकती रही
नयन-दीप में
अश्रु-बाती सुलगती रही,

एक घना झुरमुट
कड़वे शब्दों का
अब भी हमारे साथ है
पर मुझसे लिपटी हुई
तुम्हारी रूमानी आवाज है।
और हमारे बीच पसरा है
यह झूठ कि
हम दोनों नाराज है। 


-फाल्गुनी

Monday, July 14, 2014

चलो कुछ करें..........माया मृग

  














...कि जीवन ठहर न जाए
आओ कुछ करें
शहर से बाहर
उस मोडे के डेरे में
छुपकर बेरिया झड़काएँ
और बटोरे खट्टे-मीठे बेर।
चलो न आज
रेल की पटरी पर
"दस्सी" रखकर
गाड़ी का इंतजार करें
कितनी बड़ी हो जाती है दस्सी
गाड़ी कर नीचे आकर!

चलो ते झोली में भर लें
छोटे-बड़े कंकड़ और ठीकरियां
चुंगी के पास वाले जोहड़ में
ठीकरियों से बनाएं
छोटी-बड़ी थालियां।
थालियों में भर-भर सिंघाड़े निकालें।
छप-छप पैर चलाकर
जोहड़ में "अन्दर-बाहर" खेलें।

या कि गत्ते से काटें बड़े-बड़े सींग
काली स्याही में रंगकर
सींग लगाकर
उस मोटू को डराएं।
कैसे फुदकता है मोटू सींग देखकर।



कितना कुछ पड़ा है करने को।
अख़बारें से फोटू काट-काटकर
बड़े सारे गत्ते पर चिपकाना
धागे को स्याही में डुबोकर
कॉपी में "फस्स" से चलाना
और उकेरना
पंख,तितली या बिल्ली का मुंह!


















चोर सिपाही, "पोषम पा भई पोषम पा" खेले
कितने दिन गुज़र गए।
चलो न कुछ करें
कहीं से भी सही, शुरु तो करें
...कि जीवन ठहर न जाए
चलो कुछ करें

-माया मृग
स्रोतः मधुरिमा

काश कि ऐसा होता..........अनन्त माहेश्वरी


 
अनगढ़ पत्थरों में अक्श तलाशता
उन्हें सुघड़ बनाने की कोशिश करता
इस कोशिश में चोटिल होता

लेकिन हिम्मत नहीं हारता
वह बेजान पत्थरों में जान डालता

शिल्पी का शिल्प जब साकार हुआ
बेजान थी वह मूरत,जिससे उसे प्यार हुआ

एक दिन कला का पारखी आया
ले गया उस मूरत को,
जिसे शिल्पी ने दिलो जान से सजाया.

काश कि ऐसा होता
शिल्पकार का दिल पत्थर का होता
तो अपनी प्यारी मूरत के जाने पर
वह नहीं रोता, वह नहीं रोता

-अनन्त माहेश्वरी, खण्डवा, मध्य प्रदेश
स्रोतः रसरंग

Sunday, July 13, 2014

विद्रोह....................केदारनाथ सिंह




 


















आज घर में घुसा
तो वहां अजब दृश्य था
सुनिये- मेरे बिस्तर ने कहा-
यह रहा मेरा स्तीफ़ा
मैं अपने कपास के भीतर
जाना चाहता हूं

उधर कुर्सी और मेज का
संयुक्त मोर्चा था
दोनों तड़पकर बोले-
जी- अब बहुत हो चुका
आपको सहते - सहते
हमें बेतरह याद आ रहे हैं
हमारे पेड़
और उनके भीतर का वह
जिन्दा द्रव
जिसकी हत्या कर दी
आपने 

उधर अलमारी में बंद
किताबें चिल्ला रही थी
खोल दो-हमें खोल दो
हम जाना चाहती हैं अपने
बांस के जंगल
और मिलना चाहती हैं
अपने बिच्छुओं के डंक
और सांपों के चुम्बन से

पर सबसे अधिक नाराज थी
वह शॉल
जिसे अभी कुछ दिन पहले
कुल्लू से खरीद लाया था
बोली साहब!
आप तो बड़े साहब निकले
मेरा दुम्बा मुझे कब से
पुकार रहा है
और आप हैं कि अपनी देह
की कैद में लपेटे हुए हैं मुझे

उधर टीवी. और फोन का
बुरा हाल था
ज़ोर-ज़ोर से कुछ कह रहे थे
पर उनकी भाषा

मेरी समझ से परे थी
-कि तभी
नल से टपकता पानी तड़पा-
अब तो हद हो गई साहब!
अगर सुन सकें तो सुन
लीजिये इन बूंदो की आवाज-
कि अब हम
यानि सारे के सारे
क़ैदी आदमी की जेल से
मुक्त होना चाहते हैं

अब जा कहां रहे हैं
मेरा दरवाज़ा कड़का
जब मैं बाहर निकल रहा था

-केदारनाथ सिंह


कवि को हाल ही में
प्रतिष्ठित ज्ञानपीठ पुरस्कार
प्रदान किये जाने की घोषणा हुई है


स्रोतः मधुरिमा