Thursday, August 31, 2017

हार कर कहती 'कुछ नही'.....निधि सक्सेना


अक्सर तुम शाम को घर आ कर पूछते
आज क्या क्या किया??
मैं अचकचा जाती
सोचने पर भी जवाब न खोज पाती
कि मैंने दिन भर क्या किया 
आखिर वक्त ख़्वाब की तरह कहाँ बीत गया..
और हार कर कहती 'कुछ नही'
तुम रहस्यमयी ढंग से मुस्कुरा देते!!
उस दिन मेरा मुरझाया 'कुछ नही' सुन कर
तुमने मेरा हाथ अपने हाथ मे लेकर कहा
सुनो ये 'कुछ नही' करना भी हर किसी के बस का नहीं है
सूर्य की पहली किरण संग उठना
मेरी चाय में ताज़गी 
और बच्चों के दूध में तंदुरुस्ती मिलाना
टिफिन में खुशियाँ भरना
उन्हें स्कूल रवाना करना
फिर मेरा नाश्ता
मुझे दफ्तर विदा करना
काम वाली बाई से लेकर
बच्चों के आने के वक्त तक
खाना कपड़े सफाई 
पढ़ाई..
फिर साँझ के आग्रह
रात के मसौदे..
और इत्ते सब के बीच से भी थोड़ा वक्त
बाहर के काम के लिए भी चुरा लेना
कहो तो इतना 'कुछ नही' कैसे कर लेती हो..
मैं मुग्ध सुन रही थी..
तुम कहते जा रहे थे
तुम्हारा 'कुछ नही' ही इस घर के प्राण हैं
ऋणी हैं हम तुम्हारे इस 'कुछ नही' के
तुम 'कुछ नही' करती हो तभी हम 'बहुत कुछ' कर पाते हैं ..
तुम्हारा 'कुछ नही'
हमारी निश्चिंतता है 
हमारा आश्रय है
हमारी महत्वाकांक्षा है..
तुम्हारे 'कुछ नही' से ही ये मकां घर बनता है
तुम्हारे 'कुछ नही' से ही इस घर के सारे सुख हैं
वैभव है..
मैं चकित सुनती रही 
तुम्हारा एक एक अक्षर स्पृहणीय था 
तुमने मेरे समर्पण को मान दिया
मेरे 'कुछ नही' को सम्मान दिया
अब 'कुछ नही' करने में मुझे कोई गुरेज़ नही..
बस तुम प्रीत से मेरा मोल लगाते रहना
मान से मेरा श्रृंगार किया करना...
~निधि सक्सेना

Wednesday, August 30, 2017

यूँ धड़के जैसे तुम हो आए.....फरिहा नक़वी


बीते ख़्वाब की आदी आँखें कौन उन्हें समझाए 
हर आहट पर दिल यूँ धड़के जैसे तुम हो आए 

  ज़िद में आ कर छोड़ रही है उन बाँहों के साए 
  जल जाएगी मोम की गुड़िया दुनिया धूप-सराए 

 शाम हुई तो घर की हर इक शय पर आ कर झपटे 
 आँगन की दहलीज़ पे बैठे वीरानी के साए 

 हर इक धड़कन दर्द की गहरी टीस में ढल जाती है 
 रात गए जब याद का पंछी अपने पर फैलाए 

 अंदर ऐसा हब्स था मैं ने खोल दिया दरवाज़ा 
 जिस ने दिल से जाना है वो ख़ामोशी से जाए 

  किस किस फूल की शादाबी को मस्ख़ करोगे बोलो !!! 
 ये तो उस की देन है जिस को चाहे वो महकाए

- फरिहा नक़वी


Tuesday, August 29, 2017

कातिलाना वार करती वो अदा.....नवीन मणि त्रिपाठी

2122 2122 2122 212
वो तेरा छत पर बुलाकर रूठ जाना फिर कहाँ ।
वस्ल के एहसास पर नज़रें चुराना फिर कहाँ ।।

कुछ ग़ज़ल में थी कशिश कुछ आपकी आवाज थी ।
पूछता ही रह गया अगला तराना फिर कहाँ ।।

आरजू के दरमियाँ घायल न हो जाये हया ।
अब हया के वास्ते पर्दा गिराना फिर कहाँ ।।

कातिलाना वार करती वो अदा भूली नहीं ।
शह्र में चर्चा बहुत थी अब निशाना फिर कहाँ ।।

तोड़ते वो आइनों को बारहा इस फिक्र में । 
लुट गया है हुस्न का इतना खज़ाना फिर कहाँ ।।

था बहुत खामोश मैं जज़्बात भी खामोश थे ।
पढ़ लिया उसने मेरे दिल का फ़साना फिर कहाँ ।।

खो गए थे इस तरह हम भी किसी आगोश में ।
याद आया वो ज़माना पर ठिकाना फिर कहाँ ।।

उम्र की दहलीज पर यूँ ही बिखरना था मुझे ।
वो लड़कपन ,वो जवानी, दिन पुराना फिर कहाँ ।।

ढल चुकी हैं शोखियाँ अब ढल चुके अंदाज भी ।
अब हवाओं में दुपट्टे का उड़ाना फिर कहाँ ।।

हुस्न की जागीर पर रुतबा था उसका बेमिशाल।
झुर्रियों की कैद में अब भाव खाना फिर कहाँ ।।

मैकदों के पास जब ग़ुज़रा तो ये आया खयाल ।
सरबती आंखों से अब पीना पिलाना फिर कहाँ ।।

-नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित

Monday, August 28, 2017

शब्द को बस साधना तक ले गया .....डॉ. डी एम मिश्र

प्यार मुझको भावना तक ले गया
भावना को वन्दना तक ले गया।

रूप आँखों में किसी का यूँ बसा
अश्रु को आराधना तक ले गया।

दर्द से रिश्ता कभी टूटा नहीं
पीर को संवेदना तक ले गया।

हारना मैने कभी सीखा नहीें
जीत को संभावना तक ले गया।

मैं न साधक हूँ , न कोई संत हूँ
शब्द को बस साधना तक ले गया।

अब मुझे क्या और उनसे चाहिए
एक पत्थर, प्रार्थना तक ले गया।
-डॉ. डी. एम. मिश्र


Sunday, August 27, 2017

बारिस का वो पानी भूली....प्रीती श्रीवास्तव


मैं भूली, मेरी कहानी भूली !
संग बिताई सांझ सुहानी भूली !!

मन का आंगन डोल रहा !
मद-मस्त वो जवानी भूली !!

कोयल ने जब छेड़ी तान !
बारिस का वो पानी भूली !!

पंरिदे जब घर वापस आये !
दोपहर की वो नादानी भूली !!

हुई सांझ तेरी याद आयी !
गुजरे वक्त की निशानी भूली !!

आंखो आंखो मे बीती रातें !
फिर आंख का पानी भूली !!

प्यास बुझ गई एक बूंद से !
तपती रेत की वो रवानी भूली !!

मै भूली, मेरी कहानी भूली !
साथ बिताई सांझ सुहानी भूली !!

-प्रीती श्रीवास्तव

Saturday, August 26, 2017

ढल गया आफताब.............सुदर्शन फ़ाकिर


ढल गया आफताब ऐ साकी!
ला पिला दे शराब ऐ साकी!

या सुराही लगा मेरे मूंह से
या उलट दे नकाब ऐ साकी!

मैकदा छोड़ कर कहाँ जाऊं
है ज़माना ख़राब ऐ साकी!

जाम भर दे गुनाहगारों के
ये भी है इक सवाब ऐ साकी!

आज पीने दे और पीने दे
कल करेंगे हिसाब ऐ साकी!


Friday, August 25, 2017

शब्द..राजेन्द्र जोशी



लड़ते हैं झगड़ते हैं
डराते हैं, धौंस दिखाते हैं.

डरते हैं, दुबकते हैं
प्रेम करते,

कांपते हैं
कभी तानाशाह होकर
कभी झोली फैलाकर
भीख मांगते दिखते हैं

मैं और वे
खेला करते हैं
मिलजुल कर
भोथरे हुए शब्दों को
धार देते हुए
हो जाते हैं मौन
अपनी ही ताकत से
आपसी खेल में.



- राजेन्द्र जोशी
राजस्थान पत्रिका..8 मई 2016

Thursday, August 24, 2017

रात में वर्षा ....सर्वेश्वर दयाल सक्सेना


मेरी साँसों पर मेघ उतरने लगे हैं,
आकाश पलकों पर झुक आया है,
क्षितिज मेरी भुजाओं में टकराता है,
आज रात वर्षा होगी।
कहाँ हो तुम?

मैंने शीशे का एक बहुत बड़ा एक्वेरियम
बादलों के ऊपर आकाश में बनाया है,
जिसमें रंग-बिरंगी असंख्य मछलियाँ डाल दी हैं,
सारा सागर भर दिया है।
आज रात वह एक्वेरियम टूटेगा-
बौछारे की एक-एक बूँद के साथ
रंगीन छलियाँ गिरेंगी।
कहाँ हो तुम?

मैं तुम्हें बूँदों पर उड़ती
धारों पर चढ़ती-उतरती
झकोरों में दौड़ती, हाँफती,
उन असंख्य रंगीन मछलियों को दिखाना चाहता हूँ
जिन्हें मैंने अपने रोम-रोम की पुलक से आकार दिया है।  

-सर्वेश्वर दयाल सक्सेना


Wednesday, August 23, 2017

पोस्टमार्टम की रिपोर्ट,,,सर्वेश्वर दयाल सक्सेना



गोली खाकर
एक के मुँह से निकला-
'राम'।

दूसरे के मुँह से निकला-
'माओ'।

लेकिन
तीसरे के मुँह से निकला-
'आलू'।

पोस्टमार्टम की रिपोर्ट है
कि पहले दो के पेट
भरे हुए थे।
-सर्वेश्वर दयाल सक्सेना


Tuesday, August 22, 2017

अमाँ हम भी किरायेदार ही हैं....नवीन सी. चतुर्वेदी

चढा कर तीर नज़रों की कमाँ पर। 
हसीनों के क़दम हैं आसमाँ पर॥ 

हरिक लमहा लगे वो आ रहे हैं। 
यक़ीं बढता ही जाता है गुमां पर॥ 

कोई वादा वफ़ा हो जाये शायद। 
भरोसा आज भी है जानेजाँ पर॥ 

उतरती ही नहीं बोसों की लज़्ज़त। 
अभी तक स्वाद रक्खा है ज़ुबाँ पर॥ 

किसी की रूह प्यासी रह न जाये। 
लिहाज़ा ग़म बरसते हैं जहाँ पर॥ 

अगर भटका तो इस को छोड़ देंगे। 
नज़र रक्खे हुये हैं कारवाँ पर॥ 

अमाँ हम भी किरायेदार ही हैं। 
भले ही नाम लिक्खा है मकाँ पर॥ 

-नवीन सी. चतुर्वेदी
फेसबुक से

Monday, August 21, 2017

भरम का भरम लाज की लाज रख लो...सूर्यकान्त त्रिपाठी "निराला"

अजब नक - चढ़ा आदमी हूँ
जो तुक की कहो बे-तुका आदमी हूँ

बड़े आदमी तो बड़े चैन से हैं
मुसीबत मिरी मैं खरा आदमी हूँ

सभी माशा-अल्लाह सुब्हान-अल्लाह
हो ला-हौल मुझ पर मैं क्या आदमी हूँ

ये बचना बिदकना छटकना मुझी से
मिरी जान मैं तो तिरा आदमी हूँ

अगर सच है सच्चाई होती है उर्यां
मैं उर्यां बरहना खुला आदमी हूँ

टटोलो परख लो चलो आज़मा लो
ख़ुदा की क़सम बा-ख़ुदा आदमी हूँ

भरम का भरम लाज की लाज रख लो
था सब को यही वसवसा आदमी हूँ"।

-सूर्यकान्त त्रिपाठी "निराला"

Sunday, August 20, 2017

देख तेज़ाब से जले चेहरे .....फरिहा नक़वी

लाख दिल ने पुकारना चाहा 
मैं ने फिर भी तुम्हें नहीं रोका 

तुम मिरी वहशतों के साथी थे 
कोई आसान था तुम्हें खोना? 

तुम मिरा दर्द क्या समझ पाते 
तुम ने तो शेर तक नहीं समझा 

क्या किसी ख़्वाब की तलाफ़ी है? 
आँख की धज्जियों का उड़ जाना 

इस से राहत कशीद कर!! दिन रात 
दर्द ने मुस्तक़िल नहीं रहना 

आप के मश्वरों पे चलना है? 
अच्छा सुनिए मैं साँस ले लूँ क्या? 

ख़्वाब में अमृता ये कहती थी 
इन से कोई सिला नहीं बेटा 

देख तेज़ाब से जले चेहरे 
हम हैं ऐसे समाज का हिस्सा 

लड़खड़ाना नहीं मुझे फिर भी 
तुम मिरा हाथ थाम कर रखना 

वारिसान-ए-ग़म-ओ-अलम हैं हम 
हम सलोनी किताब का क़िस्सा 

सुन मिरी बद-गुमाँ परी!! सुन तो 
हर कोई भेड़िया नहीं होता 

-फरिहा नक़वी

Saturday, August 19, 2017

तमाशा देखेंगे....कवि डी. एम. मिश्र


कोई ‘हिटलर’ अगर हमारे मुल्क में जनमे तो।
सनक में अपनी लोगों का सुख-चैन चुरा ले तो।

अच्छे दिन आयेंगे, मीठे - मीठे जुमलों में,
बिन पानी का बादल कोई हवा में गरजे तो।

मज़लूमों के चिथड़ों पर भी नज़र गड़ाये हो,
ख़ुद परिधान रेशमी पल-पल बदल के निकले तो।

दूर बैठकर फिर भी आप तमाशा देखेंगे,
जनता से चलनी में वो पानी भरवाये तो।

कितने मेहनतकश दर -दर की ठोकर खायेंगे,
ज़ालिम अपने नाम का सिक्का नया चला दे तो।

वो मेरा हबीब है उससे कैसे मिलना हो,
कोई दिलों में यारों के नफ़रत भड़काये तो।

जिसके नाम की माला मेरे गले में रहती है,
वही मसीहा छुरी मेरी गरदन पर रख दे तो।

आँख मूँदकर कर लेंगे उस पर विश्वास मगर,
दग़ाबाज सिरफिरा वो हमको अंधा समझे तो।
-कवि डी. एम. मिश्र

Friday, August 18, 2017

इंतज़ार मत करना.....राजेश "ललित" शर्मा


इंतज़ार मत करना
अब मेरा
थक गये हैं पाँव
मुश्किल है चलना
मोड़ अभी भी बहुत हैं
ज़िंदगी के
याद कर लेना
कभी हो सके
मेरे अक्स को।
- राजेश "ललित" शर्मा 

Thursday, August 17, 2017

आईने.....पंकज कुमार शर्मा



बरसो से जड़े हैं..
तेरे घर में जो आईने
उनका खयाल करना
उनमें तेरे हर दौर की शक्ल है.
उन्होंने तेरी शक्ल को
संवारा है..
हर दाग को मिटाया है.
-पंकज कुमार शर्मा


Wednesday, August 16, 2017

हारना मैने कभी सीखा नहीं....कवि डी. एम. मिश्र


प्यार मुझको भावना तक ले गया
भावना को वन्दना तक ले गया।

रूप आँखों में किसी का यूँ बसा
अश्रु को आराधना तक ले गया।

दर्द से रिश्ता कभी टूटा नहीं
पीर को संवेदना तक ले गया।

हारना मैने कभी सीखा नहीं
जीत को संभावना तक ले गया।

मैं न साधक हूँ , न कोई संत हूँ
शब्द को बस साधना तक ले गया।

अब मुझे क्या और उनसे चाहिए
एक पत्थर, प्रार्थना तक ले गया।
-कवि डी. एम. मिश्र 
प्रस्तुतिः सुशील कुमार

Tuesday, August 15, 2017

ऊँगली मत छोड़ना....सीमा 'सदा' सिंघल


कुछ मुस्कराहटों को 
आज मैंने देखा 
उदासियों के दरवाजे पे
दस्तक़ देते हुए
खुशियों ने
आना शुरू किया
ये कहते हुए
हम तो बस यूं ही
बिना बुलाये चले आते है
तुम हौसले की
ऊँगली मत छोड़ना !!
- सीमा 'सदा' सिंघल

Monday, August 14, 2017

थम न जाए कहीं जुनूँ....फरिहा नकवी

ऐ मिरी ज़ात के सुकूँ आ जा 
थम न जाए कहीं जुनूँ आ जा 

रात से एक सोच में गुम हूँ 
किस बहाने तुझे कहूँ आ जा 

हाथ जिस मोड़ पर छुड़ाया था 
मैं वहीं पर हूँ सर निगूँ आ जा 

याद है सुर्ख़ फूल का तोहफ़ा? 
हो चला वो भी नील-गूँ आ जा 

चाँद तारों से कब तलक आख़िर 
तेरी बातें किया करूँ आ जा 

अपनी वहशत से ख़ौफ़ आता है 
कब से वीराँ है अंदरूँ आ जा 

इस से पहले कि मैं अज़िय्यत में 
अपनी आँखों को नोच लूँ आ जा 

देख! मैं याद कर रही हूँ तुझे 
फिर मैं ये भी न कर सकूँ आ जा 
-फरिहा नकवी
प्रस्तोताः अशोक खाचर

Sunday, August 13, 2017

"मन खट्टा"....राजेश”ललित”शर्मा


मन खट्टा हो गया
चल यार
कैसी बात करता है
मन कभी मीठा हुआ
कभी सुना क्या?
नहीं न
यूँ ही जमी रहेगी दही
रिश्तों की
खटास रहेगी ही
चाहे जितना डालो चीनी
फिर मन खट्टा
हुआ तो हुआ
क्या करें?????
-राजेश”ललित”शर्मा

Saturday, August 12, 2017

फिर...आपकी देह के इर्द-गिर्द... मन की उपज


जब आप बीमार रहते हैं तो 
बना रहता है हुजूम
तीमारदारों का 
और ये.. 
वो ही रहते हैं 
जिनकी बीमारी में...
आपने चिकित्सा व्यवस्था 
करवाई थी 
पर भगवान न करे...
आपकी मृत्यु हो गई 
तो...वे 
आपको आपके घर तक 
पहुंचा भी देंगे..
और फिर...
....आपकी देह के 
इर्द-गिर्द... 
रिश्तेदारों का 
जमावड़ा शुरु हो जाएगा...
कुछ ये जानने की 
कोशिश में रहेंगे कि 
हमें कुछ दे गया या नहीं....
यदि नहीं तो... 
आस लग जाती है 
घर के बचे लोगों से 
कि निशानी को तौर पर 
क्या कुछ मिलेगा..
पर डटे रहते हैं 
पूरे तेरह दिन तक...
-मन की उपज

Friday, August 11, 2017

नदी होना आसान नहीं होता …मंजू मिश्रा



काट कर पत्थर
नदी होकर जनमना
फिर ठोकरें खाते हुए
दिन रात बहना
और बहते बहते
ना जाने कितना कुछ
अच्छा - बुरा
सब समेटते जाना
और बहुत कुछ
पीछे भी छोड़ते जाना
नदी बने रहने की प्रक्रिया  में
बहुत कुछ छूट जाता है
बहुत कुछ टूट जाता है
सच....

नदी होना
आसान नहीं होता
-मंजू मिश्रा

Thursday, August 10, 2017

फांद गए आग पर....गोपाल "गुलशन"


देखकर तेरी रजा को, डूब मैं इतना गया।
पागलों सा हो गया, अश्क नैनों में भरा॥

चल पड़ा उस ओर मैं, उम्मीद एक जोड़कर।
फूल-फूल चुन लिए, पात-पात छोड़कर॥

हौसले बुलन्द हुए, संकेत तेरा मिल गया।
देखकर तेरी रजा को, डूब मैं इतना गया॥

सब्र न अब हो सका, प्यार का पहरा हुआ।
संगीत के छन्द भी, साथ मेरे चल दिए॥

एक छन्द ने कहा, प्यार आज हो गया।
देखकर तेरी रजा को, डूब मैं इतना गया॥

कदम तो अब बढ़ गया, आस की राह थी।
फांद गए आग पर, न जान की परवाह की॥

ख्वाब बस एक था, ओंठ तेरी चूम लूँ।
बाँह तेरी डालकर, एक बार झूम लूँ॥

संगीत भी चल रहा, काव्य न पूरा हुआ।
देखकर तेरी रजा को,डूब मैं इतना गया॥

बाराबंकी (उत्तर प्रदेश)