Saturday, March 30, 2013

अब क़ुरेदो ना इसे राख़ में क्या रखा है .......कतील शेफाई

 

तूने ये फूल जो ज़ुल्फ़ों में लगा रखा है
इक दिया है जो अँधेरों में जला रखा है 


जीत ले जाये कोई मुझको नसीबों वाला
ज़िन्दगी ने मुझे दाँव पे लगा रखा है 


जाने कब आये कोई दिल में झाँकने वाला
इस लिये मैंने ग़िरेबाँ को खुला रखा है 


इम्तेहाँ और मेरी ज़ब्त का तुम क्या लोगे
मैं ने धड़कन को भी सीने में छुपा रखा है 


दिल था एक शोला मगर बीत गये दिन वो क़तील,
अब क़ुरेदो ना इसे राख़ में क्या रखा है .......


--कतील शेफाई

Tuesday, March 26, 2013

मैं शरणार्थी हूं तेरे वतन में..........सुमन वर्मा









कितना दर्द है मेरे जिगर में
गली-गली मैं जाऊं
आग से भागा, सागर में डूबा
फिर भी मैं मुस्काऊं।


मैं शरणार्थी हूं तेरे वतन में
सब मुझको हैं ठुकराते
बच्चे, घर सब लूट चुके हैं
मेरे दिल पे ठेस पहुंचाते।

जर्जर कर रही है वेदना मुझको
कैसे जख्म दिखाऊं तुझको
कैसे जख्म दिखाऊं?

इन रिसते घावों पर आकर
तू मरहम जरा लगा दे
मुझ पर करुणा करके अब तू
वापिस मुझे बुला ले।

- सुमन वर्मा

Sunday, March 24, 2013

मुझे तुम याद रहती हो.....................सुनील मिश्र




तुम मुझे याद रहती हो....
तुम अपनी आँखे मूंदे हो
इधर मैं जागता हूँ
तुम्हारे तकिये का नीचे
मेरी रातें इकट्ठा हैं..



मुझे तुम याद रहती हो
खुली और बंद आँखों मे


मेरे सपनों में न जाने 
कितनी बातें इकट्ठा हैं..




मुझे भूले नहीं कुछ सच
पुरानेऔर सुख बीते जमाने के

उन्हीं सच और सुख की पुरनम
मुलाकातें इकट्ठा हैं......





बड़े चुपके से आई पास
और नींद ले गई चुपचाप

तुम्रे पास मेरी खुशियों की
सौगातें इकट्ठा हैं.....

--सुनील मिश्र


Saturday, March 23, 2013

प्यार इतना किया हमने............... फाल्गुनी




ओंस की हर बूंद को 
छू कर देखा था कई बार 
कच्चे प्यार की तरह 
विलीन हो गई, 



तुम होते गए श्वेत श्याम 
मुझे पा लेने के बाद 
पता नहीं क्यों मैं रंगीन हो गई


प्यार इतना किया हमने कि 
तुम दिन से रात हो गए 
और ना जाने कब मेरी रातें 
दिन हो गई...


--फाल्गुनी

Friday, March 22, 2013

रिश्ते बस रिश्ते होते हैं.....एक नज्म...गुलजार




रिश्ते बस रिश्ते होते हैं
कुछ इक पल के
कुछ दो पल के

कुछ परों से हल्के होते हैं
बरसों के तले चलते-चलते
भारी - भरकम हो जाते हैं

कुछ भारी - भरकम बर्फ के से
बरसों के तले गलते - गलते
हल्के - फुल्के हो जाते हैं

नाम होते हैं रिश्तों के
कुछ रिश्ते नाम के होते हैं
रिश्ता वह अगर मर जाए भी
बस नाम से जीना होता है

बस नाम से जीना होता है
रिश्ते बस रिश्ते होते हैं

--गुलजार 

Wednesday, March 20, 2013

उन यादों को मैं क्यूं भूलूं मैं..................प्रीति सुराना




शिकवे क्यूं करूं मै जमाने से,जो जख्म दिए हैं सह लूंगी,
मेरी किस्मत है यही,ये सोच के मैं,गम के पैमाने पी लूंगी,

उन यादों को मैं क्यूं भूलूं मैं,
जिसने जीने का अरमान दिया,
कुछ भूलना ही है जरूरी तो मैं,
इस जालिम दुनिया को भूलूंगी,

गम का दामन क्यूं छोड़ूं मैं,
गम ही तो मुझे नई खुशियां देंगे,
जिसने हैं दिए मुझको ये गम,
उन खुशियों का दामन छोड़ूंगी,

फूलों का चमन न दो मुझको,
जो डाली से गिरे मुरझा जाए,
टूट के भी जो चुभते है,
उन कांटों के शहर में रह लूंगी,

मुझे मालूम है ये आसान नहीं,
मैं मांगूं जो,वो मिल ही जाए,
जो वो न मिले तो मौत मिले,
कुछ पाने के बहाने जी लूंगी,

शिकवे क्यूं करूं मै जमाने से,
जो जख्म दिए हैं सह लूंगी,
मेरी किस्मत है यही,
ये सोच के मैं,गम के पैमाने पी लूंगी,

......प्रीति सुराना

कनखियों से देखना...............डॉ. हरीश निगम



सर्दियों का धूप सी
तुम गुनगुनी
जब कभी तुम
पास से गुजरी
सरगमों -सी
देह में
उतरी
ज्यों हवा आकर छुए
छन्दों - बुनी
कनखियों से
ही सही
देखो.............
फूल कुछ 
मुस्कान के
फेंको.
पतझड़ो - सी जिंदगी
हो फागुनी....

डॉ. हरीश निगम

Friday, March 15, 2013

ये तो सोचो तुम्हारी बच्ची है..........अन्सार कम्बरी



थोड़ी झूठी है, थोड़ी सच्ची है

हाँ ! मगर बात बहुत अच्छी है


मैं तेरी उम्र बताऊँ कैसे

थोड़ी पक्की है, थोड़ी कच्ची है



तू है कैसी मैं कह नहीं सकता

तेरी तस्वीर बहुत अच्छी है



एक सिक्का है ज़िन्दगी अपनी

है कभी सन तो कभी मच्छी है



उसको मारो न जन्म से पहले

ये तो सोचो तुम्हारी बच्ची है



अन्सार कम्बरी

तुम्हारा इंतजार है?.....................शुभ्रा चतुर्वेदी






तुम्हारा इंतजार है
आज से नहीं बरसों से
हर मौसम, हर साल, हर मौके पे

गर्मी आई फिर सावन-भादों
सब आके चले गए
अपने-अपने नियम अनुसार

तुम किस मौसम का इंतजार कर रहे हो?
किस नियम को मानते हो?
कहां हो?
क्यूं हो दूर, जुदा, छुपे-छुपे
गुमनाम?

क्यूं नहीं है तुम्हारा
कोई रूप, कोई रंग, कोई चाल, कोई ढंग
क्या तुम एक एहसास हो?
या एक सपना?
या फिर सिर्फ एक इच्छा
जो कि दिल के किसी कोने से
कभी कबाद आवाज देती है

कौन हो तुम?
कैसे दिखते हो?
गर रास्ते में मिले कभी
तो कैसे पहचाने तुम्हें?

क्या गुमशुदा होने की रपट लिखाए?
मगर कैसे?
न कोई नाम, न पता, न ‍तस्वीर
कुछ भी तो नहीं है मेरे पास

और अभी तो तुम्हें पाया ही नहीं
अपनाया ही नहीं
तो खोए कैसे?
रपट लिखवाएं कैसे?

जो अपना हो और जुदा हो जाए
उसका शोक मानते हैं
मगर तुम्हारा शोक मनाएं कैसे?

क्योंकि अभी तो तुम्हें पाना है
अपनाना है?
क्योंकि अभी भी
तुम्हारा इंतजार है?

- शुभ्रा चतुर्वेदी

Thursday, March 14, 2013

सनन्-सनन् निनाद कर रहा पवन...........विजय कुमार सिंह





 


 सनन्-सनन् निनाद कर रहा पवन
अजस्र मर्मरित हुए हैं वन सघन
न पर्ण सा बना रहे सदा सिहर-सचल
ओ मनुज बना रहे सदा सबल।

घनक/ घनक घनेरते घनेरे घन
नृत्य कर रहे निरत तड़ित चरण
मन रहे न यह कभी तेरा विकल
ओ मनुज बना रहे सदा सबल।

झरर-झरर वरिष अदिति निगल रहा
अमित अनिष्ट अग्नि ज्वाल पल रहा
सामने अड़े हुए अडिग अचल
ओ मनुज बना रहे सदा सबल

थरर-थरर कांपती वसुंधरा
तीव्र ज्वार ले उदधि उमड़ पड़ा।
हो रहे विरोध में ये जग सकल
ओ मनुज बना रहे सदा सबल

- विजय कुमार सिंह

Saturday, March 9, 2013

अच्‍छाई को बोया कर.............अजीज अंसारी


घर से बाहर निकला कर
दुनिया को भी देखा कर

फसलें काट बुराई की
अच्‍छाई को बोया कर

नेकी डाल के दरिया में
अपने आपसे धोखा कर

सबको पढ़ता रहता है
अपने आप को समझाकर

बूढ़े बरगद के नीचे
दिल टूटे तो बैठा कर

मेहफिल-मेहफिल हंसता है
तनहाई में रोया कर

दुनिया पीछे आएगी
देख तो दुनिया ठुकराकर

पढ़के सब कुछ सीखेगा
देख के भी कुछ सीखा कर

दुश्मन हों या दोस्त 'अजीज'
सबको अपना समझा कर।

--अजीज अंसारी

Friday, March 8, 2013

"विश्व महिला दिवस".........................यशोदा

आज आठ मार्च...
यानि "विश्व महिला दिवस",..
साल का वह एक दिन....
जब महिलाओं को लेकर....
बहुत कुछ कहा जाता है
और सुना भी जाता है......
अधिकारों की बात होती है..

और इस बात में
शिक्षा और सुरक्षा साथ होती है
अनुपात, स्वतंत्रता और स्वास्थ्य
इन सभी की बात होती है
इस दिन उपहारों और सौगातों की
बरसात होती है......
और नहीं होती तो...
बस एक यही बात जो
नही होती....
इस दिन चिन्तन का
हिस्सा नहीं बनती..
और जो अहम है
"एक महिला और उसके सपने"

--यशोदा दिग्विजय

Thursday, March 7, 2013

जैसे तुमने ही ठग लिया है मुझे...............पल्लवी सक्सेना

क्यूं रिश्ता मुझसे अपना तुमने रेत-सा बनाया
क्यूं आते हो तुम लौट-लौटकर
मेरी जिंदगी में गए मौसम की तरह


जानते हो ना कभी-कभी खुशगवार मौसम भी
जब लौटकर आता है
तो कुछ शुष्क हवाएं भी अपने साथ लाता है

जो लहूलुहान कर दिया करती है
न सिर्फ तन बल्कि मन भी
और तब तो तुम्हारे प्यार की यादों का
कोमल एहसास भी भर नहीं पाता
उन जख्मों को तब ऐसा महसूस होता है मुझे,
जैसे तुमने ही ठग लिया है मुझे

मानो मैं स्तब्ध-सी खड़ी हूं
और कोई आकर मेरा सब कुछ
लिए जा रहा है मेरे हाथों से
खुद को इतना जड़-हताश और निराश
आज से पहले कभी नहीं पाया मैंने
शायद इसलिए तुमसे बिछड़ने के गम ने ही
मुझे बेजान-सा कर दिया है
कि एक खामोशी-सी पसरा गई मेरे अंतस में

मगर यह कैसी विडंबना है हमारे प्यार की
कि मुझे इतना भी अधिकार नहीं
कि मैं रोक सकूं उसे
यह कहकर कि रुको यह तुम्हारा नहीं
जिसे तुम लिए जा रहे हो अपने साथ
क्यूंकि सच तो यह है कि अब तो
मुझसे पहले उसका अधिकार है तुम पर
तुम तो अब मेरी यादों में भी उसकी
अमानत बनकर आते हो

तो किस हक से कुछ भी कहूं उससे
इसलिए खड़ी हूं पत्थर की मूरत बन यूं ही
अपने हाथों की हथेलियों को खोले
और वो लिए जा रहा है मेरा सर्वस्व
यूं लग रहा है जैसे
तुम रेत बनकर फिसल रहे हो मेरे हाथों से
और वो मुझे चिढ़ाता हुआ-सा लिए जा रहा है
तुमको अपने साथ मुझसे बहुत दूर
फिर कभी न मिलने के लिए

यह कहते हुए कि मेरे रहते भला
तुमने ऐसा सोचा भी कैसे
कि यह तुम्हारा हो सकता है
तुम से पहले अब
यह तो मेरा है, मेरा था
और मेरा ही रहेगा हमेशा...।


- पल्लवी सक्सेना

Wednesday, March 6, 2013

नयन ही नयनों से खेलन लगे हैं रास...............अलका गुप्ता


पूरण करे प्रकृति अभिमंत्रित काम ये काज |
सृष्टि निरंतर प्रवाहित होवे निमित्त यही राज ||
-----------------------------------------------

हाय ! कौन आकर्षण में
बींध रहा है ...मन आज |
नयन ही नयनों से
खेलन लगे हैं रास ||

घायल हुआ मन...अनंग
तीक्ष्ण वाणों से आज |
टूट गए बन्धन ...लाज
गुंफन के सब फांस ||

करने लगे..... झंकृत...
मधुर श्वासों को सुर ताल |
होने लगे मधुराग
गुंजित..... अनायास ||

करने लगे अठखेलियाँ-
यक्ष - यक्षिणी आज |
रचने लगे तप्त अधरों से -
गीत बुन्देली.....कुछ ख़ास ||

सिमटने लगे तम की चादर में
पर्व आलिंगनों के अपार |
विस्मृत तन-मन हुए... आत्मा -
-अविभूत अद्भुत हास विन्यास ||

सो गया फिर....वह कुशल गन्धर्व !
क्षन - उसी - वीणा के पास |
अमर हो गया वह...स्वर्णिम
भीगा -भीगा सा मधुमासी इतिहास ||

---अलका गुप्ता

https://www.facebook.com/alka.gupta.777

Tuesday, March 5, 2013

पिछले पन्नों में‍ लिखी जाने वाली कविता......तिथि दानी

अक्सर पिछले पन्नों में ही
लिखी जाती है कोई कविता
फिर ढूंढती है अपने लिए
एक अदद जगह
उपहारस्वरूप दी गई
किसी डायरी में
फिर किसी की जुबां में
फिर किसी नामचीन पत्रिका में

फिर भी न जाने क्यों
भटकती फिरती है ये मुसाफिर
खुद को पाती है एकदम प्यासा
अचानक इस रेगिस्तान में
उठते बवंडर संग उड़ चलती हैं ये
बवंडर थककर खत्म कर देता है
अपना सफर
लेकिन ये उड़ती जाती हैं
और फैला देती है
अपना एक-एक कतरा
उस अनंत में जो रहस्यमयी है।
लेकिन एक खास बात
इसके बारे में,
आगोश से इसके चीजें
गायब नहीं होतीं
और न ही होती है
इनकी इससे अलग पहचान

लेकिन यह कविता
शायद! अपने जीवनकाल में
सबसे ज्यादा खुश होती है
यहां तक पहुंचकर
क्योंकि
ब्रह्माण्ड के नाम से जानते हैं
हम सब इसे।



-तिथि दानी
पुनः प्रकाशन धरोहर से
http://yashoda4.blogspot.in/2012/08/blog-post.html

Monday, March 4, 2013

मिलता है मगर बिछड़ने की शर्त पर.......वीर






मिलता है मगर बिछड़ने की शर्त पर,
जिंदा तो है मगर मरने की शर्त पर |



जिंन्दगी तेरी अदा है या बेबसी मेरी,
सला मिलता है मगर डरने की शर्त पर |
जिंदा तो है मगर मरने की शर्त पर…

पल दो पल से ज़्यादा कहीं भी रुकता नहीं,
वक्त अच्छा आता है गुजरने की शर्त पर |
जिंदा तो है मगर मरने की शर्त पर…

ये रिहाई भी क्या कोई रिहाई है सितमगर,
परिंदा आज़ाद किया पंख कतरने की शर्त पर |
जिंदा तो है मगर मरने की शर्त पर….

फिर किस बात का भरोसा करिये ‘वीर’,
वो वादा भी करते हैं मुकरने की शर्त पर |


-वीर
http://veeransh.com/ghazal/shart

समर्थ के आश्रय में......अमिताभ पांडेय 'शिवार्थ'

समर्थ के आश्रय में


ढूंढता हूं
शब्दों में खोई अपनी कविता को

मूल अर्थ ‍के लिए
संजोये थे शब्द-शब्द मैंने
उन्हीं शब्दों के आड़े-तिरछे स्वरूप में
खोई है कविता मेरी

मैंने सोचा था
भावना के प्रवाह से
सींचूंगा खेत तन के
बुझाऊंगा प्यास मन की
मगर
भावना के प्रवाह में
डूब के बह गई है कविता मेरी

कविता किंतु, मरती नहीं
अर्थ तक, तरती नहीं

समर्थ के आश्रय में
बहती रही, चलती रही
बुनती रही, बनती रही
गढ़ती रही, ढलती रही,
बीज-सम गलती रही

फिर शब्द गौण हो गए
और अर्थ ही बाकी रहा

सम अर्थ में
घुलकर विलीन हो गई
कविता मेरी।

- अमिताभ पांडेय 'शिवार्थ'

वो तपोवन हो के राजा का महल............अंसार कम्बरी





वो तपोवन हो के राजा का महल,
प्यास की सीमा कोई होती नहीं,

हो गये लाचार विश्वामित्र भी,
मेनका मधुमास लेकर आ गयी !

तृप्ति तो केवल क्षणिक आभास है,
और फिर संत्रास ही संत्रास है,

शब्द-बेधी बाण, दशरथ की व्यथा,
कैकेयी के मोह का इतिहास है,

इक ज़रा सी भूल यूँ शापित हुई,
राम का वनवास लेकर आ गयी !

प्यास कोई चीज़ मामूली नहीं,
प्राण ले लेती है पर सूली नहीं,

यातनायें जो मिली हैं प्यास से,
आज तक दुनिया उसे भूली नहीं,

फिर लबों पर कर्बला की दास्ताँ,
प्यास का इतिहास लेकर आ गयी !


--अंसार कम्बरी

Sunday, March 3, 2013

सुबह देखा तो....................संतोष सुपेकर


रात आधी हो चुकी थी
नींद की पहली किश्त
पूरी हो चुकी थी मेरी
नींद खुली भी थी तो
कमरा एकाएक ठण्डा हो जाने से।
जो एक दस्तक थी
रात में, अक्टूबर माह की।
इच्छा हो रही थी
कि उठकर बंद कर दूँ
चलता पंखा
और ओढ़ लूँ चादर
जो पड़ी है पास टेबिल पर
लेकिन थकान और कमजोरी
को चलते
असमर्थ पा रहा था खुद को मैं
उठने में भी और
किसी को आवाज देने में भी
और फिर उठ भी न का
मैं सारी रात
लेकिन सुबह देखा तो
बिजली होते हुए भी
पंखा था बंद
बदन पर वही चादर पड़ी थी
पास के टेबिल वाली
मच्छर भगाने का
साधन  भी था ऑन
और ये सब बने हुए थे गवाह
वात्सल्य के

स्पष्ट था कि
यहां क्षणिक आगमन क
रात कमरे में आई थीं बुजुर्ग माँ


- संतोष सुपेकर

Friday, March 1, 2013

तुम से सब.................बालकृष्ण गुप्ता 'गुरु'

जब भी
तुम बिस्तर सो उठकर
महावर लगे पैरों से चलकर
मेंहदी लगे हाथों से
दरवाजा खोलती हो
मेरे शहर में
उषा मुस्कुराने लगती है



जब भी
तुम आँचल संवारती हो
और तुम्हारी चूड़ियां
खनक उठती है
मेरे शहर के मंदिर में
कोई भक्त
मधुर घण्टियां बजाता है..

जब भी
बादल छाने लगते हैं
और मेरी याद सताने लगती है
तुम्हारी आँखें भीगने लगती है
तब मेरे शहर की
नदियों की पुलों पर
पानी छलकने लगता है....


--बालकृष्ण गुप्ता 'गुरु'

बादल दरिया पर बरसा हो..............अजीज अंसारी

बादल दरिया पर बरसा हो...

नई

बादल दरिया पर बरसा हो, ये भी तो हो सकता है
खेत हमारा सूख रहा हो, ये भी तो हो सकता है

मंजिल से वो दूर है अब तक, शायद रास्ता भूल गया
घबराकर घर लौट रहा हो, ये भी तो हो सकता है

ऊंची पुख्ता1 दीवारें हैं, कैदी कैसे भागेगा
जेल के अंदर से रास्ता हो, ये भी तो हो सकता है

दीप जला के भटके हुए को राह दिखाने वाला खुद
राह किसी की देख रहा हो, ये भी तो हो सकता है

दूर से देखो तो बस्ती में दिवाली, खुशहाली है
आग लगी तो शोर मचा हो, ये भी तो हो सकता है

उसके लबों2 से हमदर्दी के झरने बहते रहते हैं
दिल में नफरत का दरिया हो, ये भी तो हो सकता है

जाने कब से थमा हुआ है, बीच समन्दर का एक जहाज
धीरे-धीरे डूब रहा हो, ये भी तो हो सकता है

हुक्म4 हुआ है कांच का बरतन सर पर रखकर नाच 'अजीज'
बरतन में तेजाब5 भरा हो, ये भी तो हो सकता है। 

- अजीज अंसारी 

1. पक्की-मजबूत 2. होठों 3 जमीन-धरती-‍बिछात 4 आदेश 5. एसिड