Sunday, July 31, 2016

ईदगाह............मुंशी प्रेमचंद

प्रेमचंद (३१ जुलाई, १८८० - ८ अक्टूबर १९३६) 
हिन्दी और उर्दू के महानतम भारतीय लेखकों में से एक हैं। मूल नाम धनपत राय श्रीवास्तव वाले प्रेमचंद को नवाब राय और मुंशी प्रेमचंद के नाम से भी जाना जाता है। उपन्यास के क्षेत्र में उनके योगदान को देखकर बंगाल के विख्यात उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने उन्हें उपन्यास सम्राट कहकर संबोधित किया था। प्रेमचंद ने हिन्दी कहानी और उपन्यास की एक ऐसी परंपरा का विकास किया जिसने पूरी सदी के साहित्य का मार्गदर्शन किया। आगामी एक पूरी पीढ़ी को गहराई तक प्रभावित कर प्रेमचंद ने साहित्य की यथार्थवादी परंपरा की नींव रखी। उनका लेखन हिन्दी साहित्य की एक ऐसी विरासत है जिसके बिना हिन्दी के विकास का अध्ययन अधूरा होगा। वे एक संवेदनशील लेखक, सचेत नागरिक, कुशल वक्ता तथा सुधी संपादक थे। बीसवीं शती के पूर्वार्द्ध में, जब हिन्दी में की तकनीकी सुविधाओं का अभाव था, उनका योगदान अतुलनीय है। प्रेमचंद के बाद जिन लोगों ने साहित्‍य को सामाजिक सरोकारों और प्रगतिशील मूल्‍यों के साथ आगे बढ़ाने का काम किया, उनमें यशपाल से लेकर मुक्तिबोध तक शामिल हैं।

आज प्रस्तुत कर रही हूँ उनकी एक अमिट कहानी

ईदगाह

रमज़ान के पूरे तीस रोजों के बाद ईद आई है. कितना मनोहर, कितना सुहावना प्रभात है.
वृक्षों पर कुछ अजीब हरियाली है, खेतों में कुछ अजीब रौनक है, आसमान पर कुछ अजीब लालिमा है.
आज का सूर्य देखो, कितना प्यारा, कितना शीतल है, मानो संसार को ईद की बधाई दे रहा है.
गांव में कितनी हलचल है. ईदगाह जाने की तैयारियाँ हो रही हैं.
किसी के कुरते में बटन नहीं है, पड़ोस के घर से सुई-तागा लाने को दौड़ा जा रहा है.
किसी के जूते कड़े हो गए हैं, उनमें तेल डालने के लिए तेली के घर भागा जाता है.
जल्दी-जल्दी बैलों को सानी-पानी दे दें. ईदगाह से लौटते-लौटते दोपहर हो जाएगी.
तीन कोस का पैदल रास्ता, फिर सैकड़ों आदमियों से मिलना,भेंट करना. दोपहर के पहले लौटना असंभव है. लड़के सबसे ज्यादा प्रसन्न हैं. किसी ने एक रोज़ा रखा है, वह भी दोपहर तक, किसी ने वह भी नहीं, लेकिन ईदगाह जाने की खुशी उनके हिस्से की चीज़ है. रोजे बड़े-बूढ़ों के लिए होंगे. इनके लिए तो ईद है.
रोज ईद का नाम रटते थे. आज वह आ गई. अब जल्दी पड़ी है कि लोग ईदगाह क्यों नहीं चलते. इन्हें गृहस्थी की चिंताओं से क्या प्रयोजन. सेवैयों के लिए दूध और शक्कर घर में है या नहीं, 
इनकी बला से, ये तो सेवैयाँ खाएँगे.
वह क्या जानें कि अब्बाजान क्यों बदहवास चौधरी कायमअली के घर दौड़े जा रहे हैं!  उन्हें क्या खबर कि चौधरी आज आँखें बदल लें, तो यह सारी ईद मुहर्रम हो जाए. उनकी अपनी जेबों में तो कुबेर का धन भरा हुआ है. बार-बार जेब से अपना ख़जाना निकालकर गिनते हैं और खुश होकर फिर रख लेते हैं.
महमूद गिनता है, एक-दो, दस-बारह. उसके पास बारह पैसे हैं. मोहसिन के पास एक, दो, तीन, आठ, नौ, पंद्रह पैसे हैं. इन्हीं अनगिनती पैसों में अनगिनती चीजें लाएँगे-खिलौने, मिठाइयाँ, बिगुल, गेंद और जाने क्या-क्या!
और सबसे ज़्यादा प्रसन्न है हामिद. वह चार-पाँच साल का ग़रीब-सूरत, दुबला-पतला लड़का, जिसका बाप गत वर्ष हैजे की भेंट हो गया और माँ न जाने क्यों पीली होती-होती एक दिन मर गई. किसी को पता न चला, क्या बीमारी है. कहती भी तो कौन सुनने वाला था. दिल पर जो बीतती थी, 
वह दिल ही में सहती और जब न सहा गया तो संसार से विदा हो गई.

अब हामिद अपनी बूढ़ी दादी अमीना की गोद में सोता है और उतना ही प्रसन्न है. उसके अब्बाजान रुपये कमाने गए हैं. बहुत-सी थैलियाँ लेकर आएँगे. अम्मीजान अल्लाहमियाँ के घर से उसके लिए बड़ी अच्छी-अच्छी चीजें लाने गई है, इसलिए हामिद प्रसन्न है. आशा तो बड़ी चीज है और फिर बच्चों की आशा! 
उनकी कल्पना तो राई का पर्वत बना लेती हैं.
हामिद के पाँव में जूते नहीं हैं, सिर पर एक पुरानी-धुरानी टोपी, जिसका गोटा काला पड़ गया है, फिर भी वह प्रसन्न है. जब उसके अब्बाजान थैलियाँ और अम्मीजान नियामतें लेकर आएँगी तो वह दिल के अरमान निकाल लेगा. तब देखेगा महमूद, मोहसिन, नूरे और सम्मी कहाँ से उतने पैसे निकालेंगे.
अभागिनी अमीना अपनी कोठरी में बैठी रो रही है. आज ईद का दिन और उसके घर में दाना नहीं. आज आबिद होता तो क्या इसी तरह ईद आती और चली जाती? इस अंधकार और निराशा में वह डूबी जा रही है. किसने बुलाया था इस निगौड़ी ईद को? इस घर में उसका काम नहीं, लेकिन हामिद! उसे किसी के मरने-जीने से क्या मतलब? उसके अंदर प्रकाश है, बाहर आशा. विपत्ति अपना सारा दलबल लेकर आए, 
हामिद की आनंद-भरी चितवन उसका विध्वंस कर देगी.

हामिद भीतर जाकर दादी से कहता है-तुम डरना नहीं अम्मा, मैं सबसे पहले जाऊँगा. बिलकुल न डरना.
गांव से मेला चला. और बच्चों के साथ हामिद भी जा रहा था. कभी सबके सब दौड़कर आगे निकल जाते. फिर किसी पेड़ के नीचे खड़े होकर साथ वालों का इंतजार करते. ये लोग क्यों इतना धीरे चल रहे हैं? हामिद के पैरों में तो जैसे पर लग गए हैं. वह कभी थक सकता है? शहर का दामन आ गया. सड़क के दोनों ओर अमीरों के बगीचे हैं. पक्की चारदीवारी बनी हुई है. पेड़ों में आम और लीचियाँ लगी हुई हैं. कभी-कभी कोई लड़का कंकड़ उठाकर आम पर निशाना लगाता है. माली अंदर से गाली देता हुआ निकलता है. 
लड़के वहाँ से एक फर्लांग पर हैं. खूब हँस रहे हैं. माली को कैसे उल्लू बनाया है!

अब बस्ती घनी होने लगी थी. ईदगाह जाने वालों की टोलियाँ नजर आने लगीं. एक से एक भड़कीले वस्त्र पहने हुए, कोई इक्के-ताँगे पर सवार, कोई मोटर पर, सभी इत्र में बसे, सभी के दिलों में उमंग.
ग्रामीणों का वह छोटा-सा दल, अपनी विपन्नता से बेखबर, संतोष और धैर्य में मगन चला जा रहा था. बच्चों के लिए नगर की सभी चीज़ें अनोखी थीं. जिस चीज़ की ओर ताकते, ताकते ही रह जाते. और पीछे से बार-बार हार्न की आवाज होने पर भी न चेतते. हामिद तो मोटर के नीचे जाते-जाते बचा.
सहसा ईदगाह नजर आया. ऊपर इमली के घने वृक्षों की छाया है. नीचे पक्का फर्श है, जिस पर जाजिम बिछा हुआ है और रोजेदारों की पंक्तियाँ एक के पीछे एक न जाने कहाँ तक चली गई हैं, पक्की जगत के नीचे तक, जहाँ जाजिम भी नहीं है. नए आने वाले आकर पीछे की कतार में खड़े हो जाते हैं. 
आगे जगह नहीं हैं. यहाँ कोई धन और पद नहीं देखता. इस्लाम की निगाह में सब बराबर हैं. 
इन ग्रामीणों ने भी वजू किया और पिछली पंक्ति में खड़े हो गए.

कितना सुंदर संचालन है, कितनी सुंदर व्यवस्था! लाखों सिर एक साथ सिजदे में झुक जाते हैं, फिर सब-के-सब एक साथ खड़े हो जाते हैं. एक साथ झुकते हैं और एक साथ घुटनों के बल बैठ जाते हैं. कई बार यही क्रिया होती है, जैसे बिजली की लाखों बत्तियाँ एक साथ प्रदीप्त हों और एक साथ बुझ जाएँ और यही क्रम चलता रहे. कितना अपूर्व दृश्य था, जिसकी सामूहिक क्रियाएँ, विस्तार और अनंतता हृदय को श्रद्धा, गर्व और आत्मानंद से भर देती थीं. मानों भ्रातृत्व का एक सूत्र इन समस्त आत्माओं को एक लड़ी में पिरोए हुए हैं.
नमाज खत्म हो गई है, लोग आपस में गले मिल रहे हैं. तब मिठाई और खिलौने की दुकान पर धावा होता है. ग्रामीणों का वह दल इस विषय में बालकों से कम उत्साही नहीं है. यह देखो, हिंडोला है. एक पैसा देकर जाओ. कभी आसमान पर जाते हुए मालूम होंगे, कभी जमीन पर गिरते हुए. चर्खी है, लकड़ी के हाथी, घोड़े, ऊँट, छड़ों से लटके हुए हैं. एक पैसा देकर बैठ जाओ और पच्चीस चक्करों का मजा लो. महमूद और मोहसिन, नूरे और सम्मी इन घोड़ों और ऊँटों पर बैठते हैं. हामिद दूर खड़ा है. तीन ही पैसे तो उसके पास हैं. 
अपने कोष का एक तिहाई, जरा-सा चक्कर खाने के लिए, वह नहीं दे सकता.
खिलौनों के बाद मिठाइयाँ आती हैं. किसी ने रेवड़ियाँ ली हैं, किसी ने गुलाब जामुन, किसी ने सोहन हलवा. मज़े से खा रहे हैं. हामिद बिरादरी से पृथक है. अभागे के पास तीन पैसे है. क्या नहीं कुछ लेकर खाता? 
ललचाई आँखों से सबकी और देखता है.
मिठाइयों के बाद कुछ दुकानें लोहे की चीज़ों की हैं, कुछ गिलट और कुछ नकली गहनों की. 
लड़कों के लिए यहाँ कोई आकर्षण न था. वह सब आगे बढ़ जाते हैं.

हामिद लोहे की दुकान पर रुक जाता है. कई चिमटे रखे हुए थे. उसे ख़याल आया, दादी के पास चिमटा नहीं है. तवे से रोटियाँ उतारती हैं, तो हाथ जल जाता है. अगर वह चिमटा ले जाकर दादी को दे दे, तो वह कितनी प्रसन्न होंगी!  फिर उनकी उँगलियाँ कभी न जलेंगी. घर में एक काम की चीज हो जाएगी. खिलौने से क्या फ़ायदा. व्यर्थ में पैसे ख़राब होते हैं. उसने दुकानदार से पूछा, यह चिमटा कितने का है?
दुकानदार ने उसकी ओर देखा और कोई आदमी साथ न देखकर कहा, ‘यह तुम्हारे काम का नहीं है जी’
‘बिकाऊ है कि नहीं?’
‘बिकाऊ क्यों नहीं है? और यहाँ क्यों लाद लाए हैं?’
‘तो बताते क्यों नहीं, कै पैसे का है?’
‘छः पैसे लगेंगे?’
हामिद का दिल बैठ गया. ‘ठीक-ठीक बताओ.’
‘ठीक-ठाक पाँच पैसे लगेंगे, लेना हो लो, नहीं तो चलते बनो’
हामिद ने कलेजा मजबूत करके कहा-तीन पैसे लोगे?
यह कहता हुआ वह आगे बढ़ गया कि दुकानदार की घुड़कियाँ न सुने. लेकिन दुकानदार ने घुड़कियाँ नहीं दीं. बुलाकर चिमटा दे दिया. हामिद ने उसे इस तरह कंधे पर रखा, 
मानो बंदूक है और शान से अकड़ता हुआ संगियों के पास आया.
ग्यारह बजे सारे गाँव में हलचल मच गई. मेले वाले आ गए. मोहसिन की छोटी बहन ने दौड़कर भिश्ती उसके हाथ से छीन लिया और मारे खुशी के जो उछली, तो मियाँ भिश्ती नीचे आ गए और सुरलोक सिधारे. इस पर भाई-बहन में मार-पीट हुई. दोनों खूब रोए. 
उनकी अम्मां शोर सुनकर बिगड़ी और दोनों को ऊपर से दो-दो चांटे और लगाए.
अब मियाँ हामिद का हाल सुनिए. अमीना उसकी आवाज़ सुनते ही दौड़ी और उसे गोद में उठाकर प्यार करने लगी. सहजा उसके हाथ में चिमटा देखकर वह चौंकी.
‘यह चिमटा कहाँ था?’
‘मैंने मोल लिया है.’
‘कै पैसे में?’
‘तीन पैसे दिए.’
अमीना ने छाती पीट ली. यह कैसा बेसमझ लड़का है कि दोपहर हुआ, कुछ खाया, न पिया. लाया क्या, चिमटा. सारे मेले में तुझे और कोई चीज़ न मिली जो यह लोहे का चिमटा उठा लाया?
हामिद ने अपराधी-भाव से कहा-तुम्हारी ऊँगलियाँ तवे से जल जाती थीं, इसलिए मैंने इसे लिया.
बुढ़िया का क्रोध तुरंत स्नेह में बदल गया, और स्नेह भी वह नहीं, जो प्रगल्भ होता है और अपनी सारी कसक शब्दों में बिखेर देता है. यह मूक स्नेह था, खूब ठोस, रस और स्वाद से भरा हुआ. बच्चे में कितना त्याग, कितना सदभाव और कितना विवेक है!  दूसरों को खिलौना लेते और मिठाई खाते देखकर इसका मन कितना ललचाया होगा!  इतना जब्त इससे हुआ कैसे? 
वहाँ भी इसे अपनी बुढ़िया दादी की याद बनी रही. अमीना का मन गदगद हो गया.
और अब एक बड़ी विचित्र बात हुई. हामिद के इस चिमटे से भी विचित्र. बच्चे हामिद ने बूढ़े हामिद का पार्ट खेला था. बूढ़िया अमीना बालिका अमीना बन गईं. वह रोने लगी. दामन फैलाकर हामिद को दुआएँ देती जाती थी और आँसू की बड़ी-बड़ी बूँदें गिराती जाती थी. हामिद इसका रहस्य क्या समझता.

हमें ही जीने दो......इन्द्रा


उड़ान




















हमें ही  जीने दो
मत थोपो अपने सपने
हमें  ही बुनने दो
अच्छे और बुरे का
बस फर्क तुम बता दो
कैसे गगन में उड़ना
इतना बस सिखा दो
लकीर के फ़क़ीर
बनना नहीं हमें
नए रस्ते अपने लिए
तलाशेंगे  खुद ही हम
तुम तो बस हमें
उड़ने को छोड़ दो
या साथ हो लो हमारे
नए नए सपने बुनो
सपने बनाने की
कोई उम्र होती नहीं
छोड रूढ़िवाद  और
पुरानी परम्पराएँ
सब नया  नहीं है बुरा
विश्वास करके देखो
मेरा हाथ पकड़ कर
फिर से उड़ कर देखो
जब सब का साथ हो
कठनाई डर  के भागेगी
मंज़िल सच हमें
खुद ब खुद तलाशेगी

-इन्द्रा

http://wp.me/p2AYqz-4L

Saturday, July 30, 2016

विरह-वेदना............शैफाली गुप्ता



चांद सजाऊं
या आकाश बिछाऊं
न पाती तुम्हें ।1

तुम हो आत्मा
तुम्हीं हो धड़कन
फिर भी कहां ? ।2


नीला आकाश-
उसके विस्तार में
डूबती-सी मैं ।



क्या याद तुम्हें
आसमान का रंग
नीलिमा-सी मैं ।4


स्याही का रंग
उकेरती पन्नों पे
सोचती तुम्हें । 5


स्पर्श तुम्हारा
स्पंदन बन जीता
आत्मा में मेरी । 6


रंग-विहीन
जो जीवन हो मेरा
रंग तुम्हीं तो ।7


तेरा न होना
या तेरा क्यूं न होना
प्रश्न ये मेरा ।8


नए-पुराने
शब्द-ग्रंथ तुम्हीं हो
फिर भी कहां।।9।।

- शैफाली गुप्ता


Friday, July 29, 2016

खिलखिलाहटें लबों पर मचलती थीं..... सीमा सदा














ये गलियाँ हैं 
उस बचपन की जहाँ 
मन अक्सर ठहर जाता है 
जहाँ कड़ी धूप में भी 
छाया होती थी स्नेह की 
और बारिश की बूंदों में 
खिलखिलाहटें लबों पर मचलती थीं 
... 
मेरी आदत में 
शामिल था पापा का साथ 
वो भी शाम को 
जब आफिस से लौटते तो 
कुछ पल बचाकर लाते थे 
जेब में मुस्कराहटों के 
कभी ले जाते घुमाने 
कभी खेलते 
मेरी पसंद का कोई खेल 
जिसमें तय होती थी जीत मेरी 
हार के पलों का 
उदास चेहरा उन्हें मायूस कर जाता था 

-सीमा सदा 

Wednesday, July 27, 2016

झूमती बदली............रजनी मोरवाल



सावन की रिमझिम में झूमती उमंग 
बदली भी झूम रही बूँदों के संग।
खिड़की पर झूल रही जूही की बेल
प्रियतम की आँखों में प्रीति रही खेल, 
साजन का सजनी पर फैल गया रंग।

पुरवाई आँगन में झूम रही मस्त
आतंकी भँवरों से कलियाँ है त्रस्त,
लहरा के आँचल भी करता है तंग।

सागर की लहरों पर चढ़ आया ज्वार
रजनी भी लूट रही लहरों का प्यार,
शशि के सम्मोहन का ये कैसा ढंग।

-रजनी मोरवाल

Tuesday, July 26, 2016

सावन बहका है...........रजनी मोरवाल


लो, सावन बहका है 
बूँदों पर है खुमार, मनुवा भी बहका है। 

बागों में मेले हैं
फूलों के ठेले हैं,
झूलों के मौसम में
साथी अलबेले हैं।

कलियों पर है उभार, भँवरा भी चहका है।

ऋतुएँ जो झाँक रहीं 
मौसम को आँक रहीं,
धरती की चूनर पर
गोटे को टांक रहीं।

उपवन पर हो सवार, अंबुआ भी लहका है।

कोयलिया टेर रही
बदली को हेर रही,
विरहन की आँखों को 
आशाएँ घेर रही। 

यौवन पर है निखार, तन-मन भी दहका है।
रजनी मोरवाल
rajani_morwal@yahoo.com

Sunday, July 24, 2016

आगे तो बढ़ !.....................अनुज तिवारी

पुनः प्रकाशन..

आगे तो बढ़ !.....................अनुज तिवारी



राह देखती ,
तेरे इन्तजार मे ,
राहें भी आज ! १ !

आगे तो बढ़ !
हौसला है तुझमे ,
कदम बढ़ा ! २ !

कन्धे पे जमीं !
आसमान पैरों पे ,
अब दे झुका ! ३ !

दम तोड दे ,
पवन घुटन से ,
गर चाह ले ! ४ !

ऐसी तपन !
जल भी जल जाये ,
गर चाह ले ! ५ !

सूरज को भी !
प्रभा को ताकने की ,
फुर्सत ना हो ! ६ !

घूमना चाहे !
धरती धुरी पर ,
जुर्रत ना हो ! ७ !

हौसला रख !
आग की औकात क्या ,
तुझे जला दे ! ८ !

बस फासला !
चादं हिन्दुस्तान में ,
दो कदम का ! ९ !

रख हौसला !
अपने जिगर में ,
आजमाने का ! १० !

-अनुज तिवारी
रचनाकार मध्यप्रदेश की संस्कारधानी जबलपुर निवासी हैं
नवोदित रचनाकार प्रचार-प्रसार के अभिलाषी नहीं है
वर्तमान में आप अपनी रचनाएँ 
हिन्दी काव्य संकलन में 
संग्रहित करते हैं
सम्पर्क सूत्रः +9158688418

Saturday, July 23, 2016

और पुरानी होकर मेरी और नशीली मधुशाला...महाकवि हरिवंश राय बच्चन


महाकवि हरिवंश राय बच्चन की कलम ने रचा एक 
काव्य ग्रन्थ नाम दिया "मधुशाला"
पूरा पढ़ी आज..
या यों कहिए आज अमृत पान किया मैंने
प्रस्तुत कर रही हूँ इस ग्रन्थ का परिशिष्ठ

स्वयं नहीं पीता, औरों को, किन्तु पिला देता हाला,
स्वयं नहीं छूता, औरों को, पर पकड़ा देता प्याला,
पर उपदेश कुशल बहुतेरों से मैंने यह सीखा है,
स्वयं नहीं जाता, औरों को पहुंचा देता मधुशाला।

मैं कायस्थ कुलोदभव मेरे पुरखों ने इतना ढ़ाला,
मेरे तन के लोहू में है पचहत्तर प्रतिशत हाला,
पुश्तैनी अधिकार मुझे है मदिरालय के आँगन पर,
मेरे दादों परदादों के हाथ बिकी थी मधुशाला।

बहुतों के सिर चार दिनों तक चढ़कर उतर गई हाला,
बहुतों के हाथों में दो दिन छलक झलक रीता प्याला,
पर बढ़ती तासीर सुरा की साथ समय के, इससे ही
और पुरानी होकर मेरी और नशीली मधुशाला।

पित्र पक्ष में पुत्र उठाना अर्ध्य न कर में, पर प्याला
बैठ कहीं पर जाना, गंगा सागर में भरकर हाला
किसी जगह की मिटटी भीगे, तृप्ति मुझे मिल जाएगी
तर्पण अर्पण करना मुझको, पढ़ पढ़ कर के मधुशाला।

एक सौ पैंतीस मनकों की ये माला
यहां पठन-पाठन के लिए उपलब्ध है
सादर

शायरी में ..…… और .. वज़न चाहिए.....अमित हर्ष



दर्ज़ा, वो मकाम ‘हुनर-ओ-फन’ चाहिए 
हमदर्दी नहीं ... तुम्हारी जलन चाहिए 

दोस्तों से .... जी भर गया .. अब बस
हमें कायदे का .... एक दुश्मन चाहिए 

साथ इज्ज़त के ... जिंदा रहने के लिए 
हौसला जिगर में, सर पे कफन चाहिए

सूझ रहा है कोई खेल .... नया शायद 
दिल हमारा उन्हें ... दफ’अतन चाहिए 

जो कहते है खुद को आइना समाज का 
दिखाने को उन्हें .... एक दरपन चाहिए 

बोझ दिल का हल्का करने को ‘अमित’
शायरी में ..…… और .. वज़न चाहिए

-अमित हर्ष

Friday, July 22, 2016

दिन सावन के...........विनोद रायसरा


तरसावन के
कौंधे बिजली
यादें उजली
अंगड़ाई ले
सांझें मचली

आते सपने
मन भावन के...

चलती पछुआ
बचते बिछिआ
सिमटे-सहमें
मन का कछुआ

हरियाए तन
सब घावन के

नदिया उमड़ी
सुधियां घुमड़ी
लागी काटन
हंसुली रखड़ी

छाये बदरा
तर-सावन के..

बरसे बदरा
रिसता कजरा
बांधूं कैसे
पहुंची गजरा

बैरी दिन हैं
दुख पावन के...

मीठे सपने
कब है अपने
चकुआ मन का
लगता जपने

कितने दिन हैं
पिऊ आवन के..
--विनोद रायसरा

ऐ चांद !............फि‍रदौस खान













ऐ चांद !
मेरे महबूब से फकत इतना कहना...
अब नहीं उठते हाथ
दुआ के लिए
तुम्हें पाने की खातिर...

हमने
दिल की वीरानियों में
दफन कर दिया
उन सभी जज्बात को
जो मचलते थे
तुम्हें पाने के लिए...

तुम्हें बेपनाह चाहने की
अपनी हर ख्वाहिश को
फना कर डाला...

अब नहीं देखती
सहर के सूरज को
जो तुम्हारा ही अक्स लगता था...

अब नहीं बरसतीं
मेरी आंखें
फुरकत में तुम्हारी
क्योंकि
दर्द की आग ने
अश्कों के समंदर को
सहरा बना दिया...

अब कोई मंजि‍ल है
न कोई राह
और
न ही कोई हसरत रही
जीने की
लेकिन
तुमसे कोई शिकवा-शिकायत भी नहीं...

ऐ चांद !
मेरे महबूब से फकत इतना कहना...

-फि‍रदौस खान

Thursday, July 21, 2016

हूं मैं एक फूल सी..........तरसेम कौर
















जितना घिसती हूं 
उतना निखरती हूं
परमेश्वर ने बनाया है मुझको 
कुछ अलग ही मिट्टी से

जैसा सांचा मिलता है 
उसी में ढल जाती हूं
कभी मोम बनकर 
मैं पिघलती हूं
तो कभी दिए की जोत 
बनकर जलती हूं

कर देती हूं रोशन 
उन राहों को 
जो जि‍द में रहती हैं 
खुद को अंधकार में रखने की
पत्थर बन जाती हूं कभी
कि बना दूं पारस 
मैं किसी अपने को
रहती हूं खुद ठोकरों में पर
बना जाती हूं मंदि‍र कभी 
सुनसान जंगलों में भी

हूं मैं एक फूल सी
जिस बिन 
ईश्वर की पूजा अधूरी
हर घर की बगिया अधूरी..!!

-तरसेम कौर


Tuesday, July 19, 2016

अरेंज्ड मैरिज....अवधेश कुमार झा

 "बधाई हो आप बाप बनने वाले हैं।"

सुनकर उसकी ख़ुशी का ठिकाना न रहा उमेश ने उत्साह से पूछा, "कब?"

डॉक्टर मुस्कुराते हुए बोली, "बस चार महीने और इंतज़ार।"
उसकी ख़ुशी जाती रही उसने धीरे से पूछा, "अगर हम अभी न चाहें तो?"

"सॉरी अब बच्चा बड़ा हो चुका है और माँ काफ़ी कमज़ोर है; उसकी जान को बहुत ख़तरा हो सकता है।"
उसके बदले रुख से डॉक्टर भी हैरान हो गई लेकिन वो क्या बताता कि शादी को तीन महीने ही हुए हैं।
रिपोर्ट और पत्नी को लेकर चुपचाप निकल लिया। 

गाड़ी में भी ख़ामोशी छायी रही। बहुत हिम्मत करके पत्नी की तरफ़ देखा, "कौन था?" 
"क्या फ़ायदा शादी की रात ही वो सुसाईड कर चुका है।"

थोड़ी देर चुप रहने के बाद धीरे से बोला, "दुनियाभर के मेडिकल सॉल्यूशन भी तो होते हैं।"

"उसके विजातीय होने से घर में इतना बवाल मचा था कि अपने शरीर की तरफ़ ध्यान ही नहीं गया, फिर शादी और यहाँ नई बहू की रस्में। सच पूछो तो अपने बारे में सोचने का मौक़ा ही नहीं मिला," कहते हुए उसने सर झुका लिया।

"ये पत्थर जीवन भर सीने पर रखकर जीना होगा?"
"यही जीवन है मैं भी तो एक मौत का कारण बनकर जी रही हूँ न," 
रूखा सा जबाब देकर उसने मुँह फेर लिया।

"लड़कियाँ बहुत बहादुर होती हैं," 
कहकर दरवाज़ा खोला उसने और चलती गाड़ी से 
पुल के नीचे छलाँग लगा दी।











-अवधेश कुमार झा

awdheshkumar.jha@gmail.com

Sunday, July 17, 2016

औरतें.................. मंजू मिश्रा






औरतें 
पहले भी दोयम थीं 
आज भी दोयम ही हैं 
पढ़ी लिखी हों 
या बेपढ़ी

अक्सर 
देखा है कि 
घर के बाहर 
एकदम टिप-टॉप... 
स्त्री विमर्श की बातों का 
पुलंदा बांधे 
बहस मुबाहिसे के 
जिरह-बख्तर से लैस 
औरतों के हक़ पर 
जोशीला भाषण देने वाली 
टीवी और फिल्मों में 
नारी स्वातंत्र्य पर 
धधकती हुयी विचारधारा 
प्रस्तुत करने वाली औरतें भी 

मानें या न मानें
मगर जादातर
घर की दहलीज से अंदर आते ही 
दोयम के खोल में ही
लिपट जाती हैं

-मंजू मिश्रा

मूल रचना

Saturday, July 16, 2016

क्यों फ़रिश्तों की झुक गई आँखें...आबिद आलमी



जब कहा मैंने कुछ हिसाब तो दे। 
क्यों फ़रिश्तों की झुक गई आँखें।। 

इतने ख़ामोश क्यों हैं शहर के लोग।
कुछ तो पूछें, कोई तो बात करें॥ 

अजनबी शहर और रात का वक़्त।
अब सदा दें तो हम किसको दें॥ 

कौन आता है इतनी रात गए।
अब तो दरवाज़ा उठ के बंद करें॥ 

बहस चारागरों से क्या, लेकिन। 
सिर्फ़ इतना है मुझको जाने दे॥ 

एक लम्हा फ़सील पर 'आबिद'।
कब तलक़ शहर का तवाफ़ करे॥

-आबिद आलमी

Monday, July 11, 2016

डी.एन.ए. टेस्ट.................आभा नौलखा

 "दीपेश...
क्या तुम सच ही मुझे छोड़ कर चले जाओगे, बोलो न, 
यह सब झूठ है...! है न...? 
कैसे जा सकते हो तुम...? 
मैं तुम्हारे बच्चे की माँ बनने वाली हूँ...!"

"चल दूर हट...। 
अपनी इस नाजायज़ बच्चे को मेरा नाम न दे, 
न जाने किसका पाप है। 
ज़बरदस्ती मेरे गले मत बाँध...!"

"कैसी बात कर रहे हो आज तुम? 
ज़रा भगवान से तो डरो, 
मेरी ज़िन्दगी में तुम्हारे अलावा कोई नहीं। 
यदि तुम्हे शक़ ही है तो हम आज ही डी.एन.ए. टेस्ट कराते हैं। 
पर मेरी भी एक शर्त है...!"

"क्या, बोल तेरी क्या शर्त है....?"

"यही कि...
जब डी.एन.ए. टेस्ट यह बता देगा की ये बच्चा हम दोनों का है..., 
तब भी मैं तुम्हारे साथ न रहूँगी... 
और न ही बच्चे पर तुम्हारा कोई अधिकार होगा।"










-आभा नौलखा
naulakhabha@gmail.com

Thursday, July 7, 2016

खुदा का इनाम है 'ईद-उल फितर'

खुदा का इनाम है 'ईद-उल फितर'
सभी से प्यार ही अल्लाह की सच्ची इबादत


रमजान माह की इबादतों और रोजे के बाद जलवा अफरोज हुआ 
ईद-उल फितर का त्योहार खुदा का इनाम है, मुसर्रतों का आगाज है, खुशखबरी की महक है, खुशियों का गुलदस्ता है, 
मुस्कुराहटों का मौसम है, रौनक का जश्न है। 
इसलिए ईद का चांद नजर आते ही माहौल में 
एक गजब का उल्लास छा जाता है।

ईद के दिन सिवइयों या शीर-खुरमे से मुंह मीठा करने के बाद छोटे-बड़े, अपने-पराए, दोस्त-दुश्मन गले मिलते हैं तो चारों तरफ मोहब्बत ही मोहब्बत नजर आती है। एक पवित्र खुशी से दमकते सभी चेहरे इंसानियत का पैगाम माहौल में फैला देते हैं।

अल्लाह से दुआएं मांगते व रमजान के रोजे और इबादत की हिम्मत के लिए खुदा का शुक्र अदा करते हाथ हर तरफ दिखाई पड़ते हैं और यह उत्साह बयान करता है कि लो ईद आ गई।



कुरआन के अनुसार पैगंबरे इस्लाम ने कहा है कि जब अहले ईमान रमजान के पवित्र महीने के एहतेरामों से फारिग हो जाते हैं और रोजों-नमाजों तथा उसके तमाम कामों को पूरा कर लेते हैं, तो अल्लाह एक दिन अपने उक्त इबादत करने वाले बंदों को बख्शीश व इनाम से नवाजता है।

इसलिए इस दिन को ईद कहते हैं और इसी बख्शीश व इनाम के दिन को ईद-उल फितर का नाम देते हैं।

रमजान इस्लामी कैलेंडर का नौवां महीना है। इस पूरे माह में रोजे रखे जाते हैं। इस महीने के खत्म होते ही दसवां माह शव्वाल शुरू होता है। इस माह की पहली चांद रात ईद की चांद रात होती है। इस रात का इंतजार वर्ष भर खास वजह से होता है, क्योंकि इस रात को दिखने वाले चांद से ही इस्लाम के बड़े त्योहार ईद-उल फितर का ऐलान होता है।

इस तरह से यह चांद ईद का पैगाम लेकर आता है। इस चांद रात को अल्फा कहा जाता है।



रमजान माह के रोजे को एक फर्ज करार दिया गया है, ताकि इंसानों को भूख-प्यास का महत्व पता चले। भौतिक वासनाएं और लालच इंसान के वजूद से जुदा हो जाए और इंसान कुरआन के अनुसार अपने को ढाल लें।

इसलिए रमजान का महीना इंसान को अशरफ और आला बनाने का मौसम है। पर अगर कोई सिर्फ अल्लाह की ही इबादत करे और उसके बंदों से मोहब्बत करने व उनकी मदद करने से हाथ खींचे तो ऐसी इबादत को इस्लाम ने खारिज किया है। क्योंकि असल में इस्लाम का पैगाम है- अगर अल्लाह की सच्ची इबादत करनी है तो उसके सभी बंदों से प्यार करो और हमेशा सबके मददगार बनो।


यह इबादत ही सही इबादत है। 
यही नहीं, 
ईद की असल खुशी भी इसी में है।

- प्रस्तुति : बुरहानुद्दीन शकरूवाला

कुछ हाईकू.........सदा




एक मिठास

मन की मन से है
जश्‍न ईद का







ईदी ईद की
संग आशीषों के ये
जो नवाजती




चाँद ईद का
नज़र जब आये
ईद हो जाए




पाक़ीजा रस्‍म
निभाओ गले मिल 
ईद  के दिन




नेकअमल
रोज़ेदार के लिए
जश्‍न ईद का 





दुआ के संग
जब भी ईदी मिले
चेहरा खिले





-सीमा सिंघल "सदा"