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Saturday, September 22, 2018

तृष्णा...... भूरचन्द जयपाल( मधुप बैरागी)

धरा पर ना जल है मन-मीन विकल है
आतुर अतृप्त – सा मानव तन है

तृष्णाओं – सी बढ़ती जाती
तन-तरुवर की छांया लम्बी

धोरों की धरती पर ललनाओं का चलना
पांवों का जलना, जीवन को छलना

कितना दुष्कर है जीवन
मीलों पैदल ही चलना
तप्त रेत पांवों का जलना
जल-बिन हाथों का मलना

कैसा जीवन …………..?
जहां छलना ही छलना
कैसे मृगमरिचिकाओं से
अपनी गागर को भरना
रेत के सागर को तरना

कैसी विडम्बना है जीवन की
तृषित क्षुधायुक्त मानव को
फिर सूर्य-रश्मियां तप्त-उत्तप्त
जीना और दूभर कर जाती।।
?मधुप बैरागी