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Sunday, December 20, 2020

शीशा चुभे या कांटा ...पावनी दीक्षित जानिब

 गंवार हूं मेरा दर्द कुछ खास नहीं होता

शीशा चुभे या कांटा मुझे अहसास नहीं होता।


जब भी लगी ठोकर हम रोकर संभल गए

गैर क्या अपना भी कोई पास नहीं होता।


मुझे किसी के साने की कीमत क्या पता

गवार न होते तो ये कच्चा हिसाब नहीं होता।


महफिल थी काबिलों की हम खामोश हो गए

दिल है के नहीं दिलमें ये आभास नहीं होता।


ये हम मानते हैं अब हम मगरूर हो गए हैं

के मुझको ही मेरे दर्द पे विश्वास नहीं होता।


जानिब ये एक बात है अब भी कहीं दिल में

धरती अगर न होती तो आकाश नहीं होता।

-पावनी दीक्षित जानिब 

सीतापुर


Tuesday, January 16, 2018

इस वक्त की ज़ंजीर में हैं......पावनी दीक्षित जानिब

इस वक्त की ज़ंजीर में हैं सब बंधे हुए 
खुदके बिछाए जाल में खुद ही फंसे हुए।

अपनी जुवां से आज हर कोई मुक़र गया
दिल की दिलों में खांईंयां है सब धंसे हुए ।

इश्क़ की गलियों से बेदाग निकल जाना
मुमकिन नहीँ दामन मिलें बिना रंगे हुए।

न होशियार बन इस शहर ए मोहब्बत में
फंसते है दिल की क़ैद शिकारी मंझे हुए।

दिल कह रहा है आज तमाशा बना मेंरा 
मुद्दत हुई है हमको खुलकर कर हंसे हुए।

कुछ कद्र कर हमारी जानिब ख़याल कर
हां हम हैं दुआ के जैसे यूं रब से मंगे हुए।
-पावनी दीक्षित जानिब