Thursday, January 24, 2019

ग़ज़ल....सैयद गुलाम रब्बानी 'अयाज'

हार पर हार खाए जाता हूँ।
बेसबब फिर भी मुस्कुराता हूँ।

रोते रहते हैं आह भरते हैं,
हाल दिल का जिन्हें सुनाता हूँ।

सख्त मेहनत व जां फिशानी से,
पेट की आग मैं बुझाता हूँ।

अम्न क़ायम जहां में रखने का,
कोई नुस्खा नया बनाता हूँ।

इक इमारत नई खड़ी करके,
खूं  पसीना भी मैं बहाता हूँ।

अच्छा दम साज़ हो तो क्या कहना,
सुर से तेरे जो सुर मिलाता हूँ।

क्या करूं मैं 'अयाज़' अपनो को,
रोज़ करतब नए दिखाता हूँ।
- सैयद गुलाम रब्बानी 'अयाज'

4 comments:

  1. वाह बहुत ख़ूबसूरत !
    लेकिन
    'क्या करूं मैं 'अयाज़' अपनों को,
    रोज़ करतब नए, दिखाता हूँ.'
    वैसे इस शेर में 'अयाज़' की जगह हमारे हरदिल अज़ीज़ नेता का पहला नाम अगर डाल दिया जाता तो शेर और पुरअसर हो सकता था.

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (25-01-2019) को "जन-गण का हिन्दुस्तान नहीं" (चर्चा अंक-3227) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।

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