Friday, July 31, 2020

बदल के रख ही दिया मुझको ...अभिषेक शुक्ल


पुकार उसे कि अब इस ख़ामुशी का हल निकले,
जवाब आये तो मुम्किन है बात चल निकले।

ज़माना आग था और इश्क़ लौ लगी रस्सी,
हज़ार जल के भी कब इस बला के बल निकले!

मैं अपनी ख़ाक पे इक उम्र तक बरसता रहा,
थमा तो देखा कि कीचड़ में कुछ कमल निकले।

मैं जिसमें ख़ुश भी था, ज़िन्दा भी था,तुम्हारा भी था,
कई ज़माने निचोडूं तो एक पल निकले।

कुछ एक ख़्वाब वहां बो रहूंगा, सोचा है,
वो नैन अगर मेरे नैनों से भी सजल निकले।

मैं अपने हाथों को रोता था हर दुआ के बाद,
ख़ुदा के हाथ तो मुझसे ज़ियादः शल निकले।

दयार ए इश्क़ में सबका गुज़र नहीं मुम्किन,
कई जो पैरों पे आये थे,सर के बल निकले।

बहार जज़्ब है जिसमें, उसे बनाते हुए,
तमाम रंग मेरे कैनवस पे ढल निकले।

जमी हुई थी मेरी आंख इक अलाव के गिर्द,
कुछ एक ख़्वाब तो यूंही पिघल, पिघल निकले।

बदल के रख ही दिया मुझको उम्र भर के लिए,
तेरी ही तरह तेरे ग़म भी बेबदल निकले।

जो दिल में आये थे आहट उतार कर अपनी,
वो दिल से निकले तो फिर कितना पुर ख़लल निकले।
-अभिषेक शुक्ल

Thursday, July 30, 2020

चाँद रोता रहा ...प्रीती श्री वास्तव

212 212 212 212
तेरे दीदार को दिल मचलता रहा।
आँख भरती रही अश्क गिरता रहा।।

तू न आया इन्तजार के बाद भी।
याद आती रही जख्म रिसता रहा।।

दर्द कुछ इस कदर बढ़ गया इश्क में।
चोट लगती रही लब ये हंसता रहा।।

जब भी ख्यालों में आया मेरे तू सनम।
सांस रुकती रही दिल धड़कता रहा।।

नाम लिख लिख के जागा किये रात भर।
रात ढलती रही चाँद रोता रहा।।
- प्रीती श्री वास्तव

Wednesday, July 29, 2020

मुझ से तू पूछने आया है वफ़ा के मा'नी ...कतील शेफ़ाई

अपने हाथों की लकीरों में सजा ले मुझ को
मैं हूं तेरा तू नसीब अपना बना ले मुझ को

मैं जो कांटा हूं तो चल मुझ से बचा कर दामन
मैं हूं गर फूल तो जूड़े में सजा ले मुझ को

तर्क-ए-उल्फ़त की क़सम भी कोई होती है क़सम
तू कभी याद तो कर भूलने वाले मुझ को

मुझ से तू पूछने आया है वफ़ा के मा'नी
ये तिरी सादा-दिली मार न डाले मुझ को

मैं समुंदर भी हूं मोती भी हूं ग़ोता-ज़न भी
कोई भी नाम मिरा ले के बुला ले मुझ को

तू ने देखा नहीं आईने से आगे कुछ भी
ख़ुद-परस्ती में कहीं तू न गंवा ले मुझ को

बांध कर संग-ए-वफ़ा कर दिया तू ने ग़र्क़ाब
कौन ऐसा है जो अब ढूंढ़ निकाले मुझ को

ख़ुद को मैं बांट न डालूं कहीं दामन दामन
कर दिया तू ने अगर मेरे हवाले मुझ को

मैं खुले दर के किसी घर का हूं सामां प्यारे
तू दबे-पांव कभी आ के चुरा ले मुझ को

कल की बात और है मैं अब सा रहूं या न रहूं
जितना जी चाहे तिरा आज सता ले मुझ को

वादा फिर वादा है मैं ज़हर भी पी जाऊं 'क़तील'
शर्त ये है कोई बांहों में संभाले मुझ को
- कतील शेफ़ाई

Tuesday, July 28, 2020

वाह रे पागलपन ..ज्योति खरे

तुम्हारे चमकीले खुले बाल
मेंहदी रचे हांथ
जानबूझ कर
सावनी फुहार में भींगना
हरे दुपट्टे को
नेलपॉलिश लगी उंगलियों से
नजाकत से पकड़ना
ओढ़ना
कीचड़ में सम्हलकर चलना

यह देखने के लिए
घंटो खड़े रहते थे
मंदिर के सामने
कितना पागल था मैं

पागल तो तुम भी थी
जानबूझ कर निकलती थी पास से
कि में सूंघ लूं
देह से निकलती चंदन की महक
पढ़ लूं काजल लगी
आंखों की भाषा
समझ जाऊं
लिपिस्टिक लगे होठों की मुस्कान--

आज जब
खड़ा होता हूँ
मौजूदा जीवन की सावनी फुहार में
झुलस जाता है
भीतर बसा पागलपन
जानता हूं
तुम भी झुलस जाती होगी
स्मृतियों की
सावनी फुहार में-

वाकई पागल थे अपन दोनों--

-ज्योति खरे

Monday, July 27, 2020

मैं जीना चाहता हूं ....ध्रुव गुप्त

मैं जीना चाहता हूं ..

इन दिनों घर की खिड़की पर बैठे-बैठे
दिन भर देखता रहता हूं
सड़क से गुजरते इक्का-दुक्का लोगों को
मन करता है सबको
दुआ-सलाम कह के विदा करूं
क्या पता उनमें से आज के बाद कोई
दुबारा न दिखे

कोरोना के इस भयावह समय में
मौत की हर तरफ से आ रही खबरो के बीच
मुझे लगता है कि
मुझे जल्दी मिल लेना चाहिए जाकर
उन तमाम लोगों से
जिन्हें जीवन के किसी न किसी दौर में
मैंने प्यार किया था
उन तमाम अच्छे-बुरे दोस्तों से
मेरे भीतर जिनका हिस्सा रहा है
और उन जगहों से जिन्हें देखने की मेरी इच्छा
अबतक पूरी नहीं हो सकी

मेरे पास समय बहुत कम है
मैं कोई भी ट्रेन पकड़ कर
यहां से निकल जाना चाहता हूं
यहां से तमाम शहरों के लिए ट्रेनें तो हैं
मगर मेरी उम्र के लोगों को इन दिनों वे
यात्रा पर जाने की अनुमति नहीं देते

मैं अभी हर हाल में जीना चाहता हूं
मुझे जीवन का मोह नहीं है मगर
मैं ऐसे कैसे चला जाऊं
अपनों को मिलकर अलविदा कहे बगैर।

- ध्रुव गुप्त

Saturday, July 25, 2020

रंग फूलों के निखरने लगे ...विनोद प्रसाद

अब तक कुछ किया नहीं, तबियत के मुताबिक
बस निभाते रह गए फकत,रवायत के मुताबिक

कू ब कू शोर बहुत है गुलशन में बहार आने की
रंग फूलों के निखरने लगे लताफ़त के मुताबिक

जोरे हुकूमत से तो सर झुका नहीं सकते अपना
तस्लीम किया करते हैं हम,वज़ाहत के मुताबिक

ताउम्र एहतिराम किया चाहा किया दिल से जिसे
पेशे नजर हम जब भी हुए,ज़ियारत के मुताबिक़

है बात दीगर दर्दो गम कुछ ज्यादे मिले उल्फत में
हर चीज कहाँ बँटती है अब वसियत के मुताबिक

उस दिन के बाद लौटकर फिर गुजरे नहीं गली से
अब आईने में भी पराए से हुए सूरत के मुताबिक

वक्त की रफ्तार में, हस्ती हमारी कुछ भी तो नहीं
मिलना है जो मिलता है इस किस्मत के मुताबिक

कैद ए हयात से न मिली अब तक निजात हमको
चंद सांसों की बस इजाजत जमानत के मुताबिक
-विनोद प्रसाद

Friday, July 24, 2020

रूह बेचैन हुई होगी ...प्रीती श्री वास्तव

उसने गैर को सदा देके बुलाया होगा।
मुझे ख्वाब में ही ये ख्याल आया होगा।।

जब यादों का बवन्डर छाया होगा।
मन को मेरे मैने आइना बनाया होगा।।

रूह बेचैन हुई होगी जब मेरे दिल की।
मुट्ठी में उसको कैद करके सताया होगा।।

बेतहाशा जो हुई होगी जलन सीने में।
मौत को फिर रूबरू अपने पाया होगा।।

नींद टूटी तो जिन्दगी से खफा हो बैठे।
चर्चा में गली गली मेरा साया होगा।।

-प्रीती श्री वास्तव

Thursday, July 23, 2020

फिर भी हम चले गए ...ज़फ़रुद्दीन ज़फ़र

दुष्यन्त' चले गए और 'अदम' चले गए,
ग़ज़ल तुम्हारे ज़ख़्म के मरहम चले गए।

मैं एक शेर तो पढ़ूं मगर दाद कौन देगा,
मेरी शायरी से पहले मोहतरम चले गए।

उनको मर जाने से इतना फायदा हुआ,
ज़िंदगी से बिछुड़कर सारे ग़म चले गए।

इतनी दुआएं दी कि मालामाल हो गया,
फ़कीर के कासे में जो दिरहम चले गए।

माहताब ने घर आने में कुछ देर कर दी,
अंधेरे के साथ जुल्फों के ख़म चले गए।

अगर फट गए तो सैलाब ज़रूर आएगा,
उनके घर मेरे आंसुओं के बम चले गए।

जन्नत से झांककर कहते हैं आज शायर,
मुशायरे हो रहे हैं फिर भी हम चले गए।

चोट खाकर भी उसने मैदान नहीं छोड़ा,
लगता है तीर हमारे कुछ नरम चले गए।

ललकार के बोलो कि सरहद छोड़ जाएं,
उनकी ताक़त के कब के भरम चले गए।

क़द का गुरूर ना कर ऐ साहिबे मसनद,
कितनों के सल्तनत और हरम चले गए।

छालों ने अभी तक भी पीछा नहीं छोड़ा,
ज़फ़र मुंह में निवाले क्या गरम चले गए।

-ज़फ़रुद्दीन ज़फ़र
एफ़-413, कड़कड़डूमा कोर्ट,
दिल्ली-32

Wednesday, July 22, 2020

वो नन्हा अंकुर ....अनु

बारिश की बूंदों ने 
सहला दिया,प्यासी धरती के
तन को,नम होकर,
बूंदे जब समा गई,
धरती के आगोश में,
अंकुरो की कुलबुलाहट से,
माटी हुवी बैचेन,
फाड़ धरती का सीना,
वो नन्हा अंकुर, 
निकल आया बाहर,
मगर कुछ लोग,
खड़े थे,
हाथों ‌में फवाड़े,
दिमाग में शोर मचाते,
वो भेड़िए नुमा शक्ल वालों ने,
तबाड़ -तोड़ हमले कर,
उसे मार गिराया,
बस सिर्फ इसलिए कि,
जहां गर्भ से उत्पन्न हुआ,
वो जमीन एक आदिवासी की
ज़मीन थी,क्या....?
तुम देख नहीं सकते,
उनको,फलते फुलते,
वो अपने जंगल, जमीन पर
उग आए,
अंकुरो को सहेज नहीं सकते,
अपने ही अस्तित्व को बचाए रखने के लिए,
हर सुबह गीली आंखों से,
सुखी हो चुकी,
धरती पर जीवन तलाशते
अंकुर की लंबी उम्र की दुआ करते
वो तमाशबीन क्यूं  बने ...??
क्यूं खड़े रहे कतारों में,
अपने हिस्से की जमीन के लिए..!!
 -अनु,, 

Tuesday, July 21, 2020

बारिश के आसार नहीं ...... अशोक रावत

मौसम पर मन का कोई अधिकार नहीं 
बादल हैं पर बारिश के आसार नहीं 

बस्ती में कुछ लोग न मारे जाते हों 
याद हमें ऐसा कोई त्यौहार नहीं 

प्यार-मोहब्बत सीधे-सादे रस्ते हैं 
कोई इन पर चलने को तैयार नहीं 

सब मन की कमजोरी होती है वरना 
गिर न सके ऐसी कोई दीवार नहीं 

लोगों से उम्मीद नहीं सच बोलेंगे 
सच सुनने को जब कोई तैयार नहीं 

हार उसूलों की की ख़ातिर तो है मंजूर 
जीत हमें पर शर्तों पर स्वीकार नहीं 

जाने क्यूं अब श़ायर के होंठों पर भी 
दिल को छू लेने वाले अश़आर नहीं 
-अशोक रावत

Monday, July 20, 2020

याराना है पुराना ...अनामिका

खेल तेरी नजरों का मेरे साथ न खेल
उठे मेरी पलकें कत्ले आम न हो जाए

हुनर अगर है तेरे पास बिछाओ जाल
हुस्न के बगैर क्या खाक है तुम्हारे खयाल

सुनो तुम, कीसे उतारोगे कलम से कागज पर
हमें आँखो से पढकर तो बने हो शायर

तुम्हारी सोच की हदों से वाकिफ है
तुम क्या बयाँ करोगे, कायनात है हम

रहने भी दो यारो क्यूँ हाथ जलना जलाना
हुस्न और इश्क़ का याराना है पुराना

-अनामिका

Sunday, July 19, 2020

यूँ उम्र गुज़र जाए न ...डॉ. नवीन मणि त्रिपाठी

221 1221 1221 122

कुछ वक्त मेरे साथ बिताने के लिए आ।
तू शमअ सरे बज़्म जलाने के लिए आ ।।

दिल पर किसी के राज चलाने के लिए आ ।
ऐ दोस्त नई मंजिलें पाने के लिए आ।।

यूँ छुप छुपा के देख रहा है तुझे ये कौन ।
शर्मो हया का पर्दा हटाने के लिए आ।।

अफ़सोस है कि आज परिंदे हैं गिरफ़्तार ।
सय्याद पे तू तीर चलाने के लिए आ ।।

माना कि तेरे साथ जमाने की दुआ है ।
दामन से मेरे दाग़ मिटाने के लिए आ ।।

टूटे न मुहब्बत का भरम तुझ से किसी का ।
इक बार ज़माने को दिखाने के लिए आ ।।

रूठा है कोई मुद्दतों के बाद भी अब तक ।
ऐ यार तू उल्फ़त को मनाने के लिए आ ।।

यूँ उम्र गुज़र जाए न रुसवाइयों के साथ ।
महबूब के दिल में तू समाने के लिए आ ।।

बाकी हैं मेरे हक़ के अभी और उजाले ।
ऐ चाँद यहाँ फ़र्ज़ निभाने के लिए आ ।।

-डॉ. नवीन मणि त्रिपाठी

Saturday, July 18, 2020

रात सावन की...सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय",

रात सावन की
कोयल भी बोली
पपीहा भी बोला
मैं ने नहीं सुनी
तुम्हारी कोयल की पुकार
तुम ने पहचानी क्या
मेरे पपीहे की गुहार?
रात सावन की
मन भावन की
पिय आवन की
कुहू-कुहू
मैं कहाँ-तुम कहाँ-पी कहाँ!
-सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय", 

Friday, July 17, 2020

बया .....डॉ.बंदना जैन


तिनका तिनका जोड़,
बना लिया एक धाम।
गहन सोच में डूब रही है
प्यारी बया बैठ मुकाम।
शांत है कितनी
नहीं कोई आक्रोश |
सिमट गई स्वयं मे
नहीं कोई रोष |
सोच रही है...
कैसे परिवार बढ़ाऊँ?
कैसे घर बसाऊँ?
ढह गया जो नीड़,
बारिश में पिछली बार।
फिर हिम्मत करती हूँ इस बार
संसार था सपनों वाला
परिवार बड़ा निराला।
तड़पे नन्हें जिन्दगी को
नहीं सहारा था जीने को।
यही दर्द लिये बैठी हूँ
गम को कहाँ भूली हूँ।
करना होगा पुनः प्रयास
परिवार बनाना है फिर खास ।
बनी रहे जीवन में आस।
-डॉ.बंदना जैन
कोटा,राजस्थान

Thursday, July 16, 2020

हमें मंजूर है ....सरिता शैल

हमें मंजूर है सीप बनकर रेत में दफन होना
शर्त फकत इतनी सी है तुम मोती बन चमको

हमें मंजूर है बीज बन मिट्टी में दफन होना
शर्त फकत इतनी सी है तुम फूल बन महकना

हमें मंजूर है मेघ  बन पानी में घुल जाना
शर्त फकत इतनी सी है तुम वृक्ष  बन लहलहाना

हमें मंजूर है सूखे  पत्ते बन धरा पर बिछ जाना
शर्त फकत इतनी सी है उस राह से तुम गुजरना

हमें मंजूर है तेरे लिये स्वर्ग  कि तलाश मे मर जाना
शर्त फकत इतनी सी है उसे मुक्कमल न तू करना
-सरिता शैल
मूल रचना

Wednesday, July 15, 2020

राख को भी कुरेद कर देखो ...गुलज़ार

आइना देख कर तसल्ली हुई
हम को इस घर में जानता है कोई

आंखों से आंसुओं के मरासिम पुराने हैं
मेहमां ये घर में आएं तो चुभता नहीं धुआं

चूल्हे नहीं जलाए कि बस्ती ही जल गई
कुछ रोज़ हो गए हैं अब उठता नहीं धुआं


ये दिल भी दोस्त ज़मीं की तरह
हो जाता है डांवा-डोल कभी

ये शुक्र है कि मिरे पास तेरा ग़म तो रहा
वगर्ना ज़िंदगी भर को रुला दिया होता


ख़ामोशी का हासिल भी इक लम्बी सी ख़ामोशी थी
उन की बात सुनी भी हम ने अपनी बात सुनाई भी

राख को भी कुरेद कर देखो
अभी जलता हो कोई पल शायद


दिन कुछ ऐसे गुज़ारता है कोई
जैसे एहसां उतारता है कोई

कल का हर वाक़िआ तुम्हारा था
आज की दास्तां हमारी है


कोई ख़ामोश ज़ख़्म लगती है
ज़िंदगी एक नज़्म लगती है
-गुलज़ार

Tuesday, July 14, 2020

शर्म से लाल चेहरा ...प्रीती श्री वास्तव


खाक होती सनम जिन्दगानी देखा।
पास आती कजा भी सुहानी देखा।।

आँख भरती रही रात दिन रोज ही।
पर नहीं आँख में उसके पानी देखा।।

कह दो कोई चला जाये अपने शहर।
होते चर्चा गली में जुबांनी देखा।।

लफ्ज मिलते नहीं दर्द कैसे कहूं।
खाक होती कली की जवानी देखा।।

आये महफिल में कल शाम को वो मेरी।
मैनें उनकी नब्ज में रवानी देखा।।

मच गया शोर जो खत लिखा रात भर।
शर्म से लाल चेहरा नूरानी देखा।।

@प्रीती श्री वास्तव

Monday, July 13, 2020

प्रकृति – हाइकु..... साधना वैद


मौन मयंक
हर्षित उडुगण
धरा विमुग्ध

गिरि चोटी से
बहे पिघल कर
फेनिल दुग्ध

सूर्य रश्मियाँ
रचें जल कण से
इन्द्रधनुष

विस्मित सृष्टि
पुलकित प्रकृति
मुग्ध मनुष्य

यादें सुलगीं
पिघला दिनकर
सुलगा मन

रोई वसुधा
बादल बन कर
बरसे घन

खिले सुमन
सुरभित पवन
विहँसी उषा

लपेट बाना
गहन तिमिर का
चल दी निशा

हुई सुबह
जगमग हो गयी
संसृति सारी

नीले नभ में
कलरव करतीं
चिड़ियाँ प्यारी

शाम हो गयी
समाधि ली जल में
क्षुब्ध रवि ने

किया उदास
अनुरक्त धरा को
सूर्य छवि ने

घिरी घटाएं
बरसे जल कण
कोयल बोली

मस्त हवा ने
वन उपवन में
खुशबू घोली

नाच रहे हैं
ठुमक ठुमक के
मस्त मयूर

देख रहे हैं
वनचर नभ में
गिरा सिन्दूर

-साधना वैद

Sunday, July 12, 2020

होती है अधिक पीड़ादायी अमरता ...पंकज सुबीर

मैं कब से प्रश्न बन कर भटकता हूं
मुझे कोई यक्ष नहीं मिलता
जो मुझे थाम ले,सहेज ले

पूछने के वास्ते
किसी युधिष्ठिर से
मैं यूं ही निरर्थक सा भटकता हूं

यह जानता हूं 
कि जब तक पूछा न जाए 
तब तक 

किसी भी प्रश्न का अस्तित्व
कोई मायने नहीं रखता

और फिर अगर
मुझे कोई यक्ष मिल भी गया
और उसने मुझे सहेज भी लिया

और फिर पूछ भी लिया 
किसी युधिष्ठिर से 
और अगर 
युधिष्ठिर ही उत्तर नहीं दे पाया तो 

तो मेरा क्या होगा?
शायद तब एक और अश्वत्थामा का जन्म होगा

अश्वत्थामा बन कर भटकने से
बेहतर है
यूं ही प्रश्न बन कर भटकते रहना

क्योंकि 
होती है अधिक पीड़ादायी 
अमरता
मृत्यु से भी.
-पंकज सुबीर