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Sunday, February 3, 2019

कुछ तो हवा सर्द थी.......परवीन शाकिर

कुछ तो हवा भी सर्द थी कुछ था तेरा ख़याल भी 

दिल को ख़ुशी के साथ साथ होता रहा मलाल भी 


बात वो आधी रात की रात वो पूरे चाँद की 

चाँद भी ऐन चेत का उस पे तेरा जमाल भी 


सब से नज़र बचा के वो मुझ को ऐसे देखते 

एक दफ़ा तो रुक गई गर्दिश-ए-माह-ओ-साल भी 


दिल तो चमक सकेगा क्या फिर भी तराश के देख लो 

शीशागरान-ए-शहर के हाथ का ये कमाल भी 


उस को न पा सके थे जब दिल का अजीब हाल था 

अब जो पलट के देखिये बात थी कुछ मुहाल भी 


मेरी तलब था एक शख़्स वो जो नहीं मिला तो फिर 

हाथ दुआ से यूँ गिरा भूल गया सवाल भी 


शाम की नासमझ हवा पूछ रही है इक पता 

मौज-ए-हवा-ए-कू-ए-यार कुछ तो मेरा ख़याल भी


उस के ही बाज़ूओं में और उस को ही सोचते रहे 

जिस्म की ख़्वाहिशों पे थे रूह के और जाल भी 
-परवीन शाकिर

Tuesday, January 29, 2019

परों को कभी छिलते नहीं देखा.....परवीन शाकिर

बिछड़ा है जो एक बार तो मिलते नहीं देखा 
इस ज़ख़्म को हमने कभी सिलते नहीं देखा 

इस बार जिसे चाट गई धूप की ख़्वाहिश
फिर शाख़ पे उस फूल को खिलते नहीं देखा 

यक-लख़्त गिरा है तो जड़ें तक निकल आईं 
जिस पेड़ को आँधी में भी हिलते नहीं देखा 

काँटों में घिरे फूल को चूम आयेगी तितली 
तितली के परों को कभी छिलते नहीं देखा 

किस तरह मेरी रूह हरी कर गया आख़िर 
वो ज़हर जिसे जिस्म में खिलते नहीं देखा
-परवीन शाकिर