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Friday, December 18, 2020

उठ समाधि से ध्यान की, उठ चल .... जौन एलिया




उठ समाधि से ध्यान की, उठ चल

उस गली से गुमान की, उठ चल


मांगते हो जहाँ लहू भी उधार

तुने वां क्यों दूकान की, उठ चल


बैठ मत एक आस्तान पे अभी

उम्र है यह उठान की, उठ चल


किसी बस्ती का हो न वाबस्ता

सैर कर इस जहाँ की, उठ चल


जिस्म में पाँव है अभी मौजूद 

जंग करना है जान की, उठ चल

 

तू है बेहाल और यहाँ साजिश  

है किसी इम्तेहान की, उठ चल 


है मदारो में अपने सय्यारे 

ये घड़ी है अमान की, उठ चल 


क्या है परदेस को देस कहाँ  

थी वह लुकनत जुबां की, उठ चल 


हर किनारा खुर्म मौज थे 

याद करती है बान की, उठ चल 


- जौन एलिया

मूल रचना



Monday, July 6, 2020

क्या हमारा नहीं रहा सावन .... जौन एलिया

अपनी मंज़िल का रास्ता भेजो 
जान हम को वहाँ बुला भेजो 

क्या हमारा नहीं रहा सावन 
ज़ुल्फ़ याँ भी कोई घटा भेजो 

नई कलियाँ जो अब खिली हैं वहाँ 
उन की ख़ुश्बू को इक ज़रा भेजो 

हम न जीते हैं और न मरते हैं 
दर्द भेजो न तुम दवा भेजो 

धूल उड़ती है जो उस आँगन में 
उस को भेजो सबा सबा भेजो 

ऐ फकीरों गली के उस गुल की 
तुम हमें अपनी ख़ाक-ए-पा भेजो 
-जौन एलिया