Wednesday, October 31, 2018

ख़ुशबू जैसे लोग मिले....गुलज़ार

खुशबू जैसे लोग मिले....गुलज़ार

खुशबू जैसे लोग मिले अफ़साने में
एक पुराना खत खोला अनजाने में

जाना किसका ज़िक्र है इस अफ़साने में
दर्द मज़े लेता है जो दुहराने में

शाम के साये बालिस्तों से नापे हैं
चाँद ने कितनी देर लगा दी आने में

रात गुज़रते शायद थोड़ा वक्त लगे
ज़रा सी धूप दे उन्हें मेरे पैमाने में

दिल पर दस्तक देने ये कौन आया है
किसकी आहट सुनता है वीराने मेंं

-गुलज़ार

Tuesday, October 30, 2018

मिली है ज़िन्दगी तुझको....कुँवर बेचैन

ये लफ़्ज़ आईने हैं मत इन्हें उछाल के चल,
अदब की राह मिली है तो देखभाल के चल ।

कहे जो तुझसे उसे सुन, अमल भी कर उस पर,
ग़ज़ल की बात है उसको न ऐसे टाल के चल ।

सभी के काम में आएँगे वक़्त पड़ने पर,
तू अपने सारे तजुर्बे ग़ज़ल में ढाल के चल ।

मिली है ज़िन्दगी तुझको इसी ही मकसद से,
सँभाल खुद को भी औरों को भी सँभाल के चल ।

कि उसके दर पे बिना माँगे सब ही मिलता है,
चला है रब कि तरफ़ तो बिना सवाल के चल ।

अगर ये पाँव में होते तो चल भी सकता था,
ये शूल दिल में चुभे हैं इन्हें निकाल के चल ।

तुझे भी चाह उजाले कि है, मुझे भी 'कुँअर'
बुझे चिराग कहीं हों तो उनको बाल के चल ।
Kunwarbechain.jpg
-कुँवर बेचैन

Monday, October 29, 2018

चाँद से फूल से या मेरी ज़ुबा से सुनिये

चांद से फूल से या मेरी ज़ुबाँ से सुनिये - निदा फ़ाज़ली

चांद से फूल से या मेरी ज़ुबाँ से सुनिए
हर तरफ आपका क़िस्सा हैं जहाँ से सुनिए

सबको आता नहीं दुनिया को सता कर जीना 
ज़िन्दगी क्या है मुहब्बत की ज़बां से सुनिए

क्या ज़रूरी है कि हर पर्दा उठाया जाए 
मेरे हालात भी अपने ही मकाँ से सुनिए

मेरी आवाज़ ही पर्दा है मेरे चेहरे का 
मैं हूँ ख़ामोश जहाँ, मुझको वहाँ से सुनिए

कौन पढ़ सकता हैं पानी पे लिखी तहरीरें 
किसने क्या लिक्ख़ा हैं ये आब-ए-रवाँ से सुनिए

चांद में कैसे हुई क़ैद किसी घर की ख़ुशी 
ये कहानी किसी मस्ज़िद की अज़ाँ से सुनिए
................................
निदा फ़ाज़ली

Sunday, October 28, 2018

क्यों इन तारों को उलझाते.....महादेवी वर्मा

पल में रागों को झंकृत कर,
फिर विराग का अस्फुट स्वर भर,
मेरी लघु जीवन-वीणा पर
क्या यह अस्फुट गाते?

लय में मेरा चिरकरुणा-धन,
कम्पन में सपनों का स्पन्दन,
गीतों में भर चिर सुख चिर दुख
कण कण में बिखराते!

मेरे शैशव के मधु में घुल,
मेरे यौवन के मद में ढुल,
मेरे आँसू स्मित में हिलमिल
मेरे क्यों न कहाते?
-महादेवी वर्मा

Saturday, October 27, 2018

सखि, वे मुझसे कह कर जाते.....मैथिलीशरण गुप्त

सखि, वे मुझसे कहकर जाते,कह, 
तो क्या मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते?
मुझको बहुत उन्होंने माना
फिर भी क्या पूरा पहचाना?
मैंने मुख्य उसी को जाना जो वे मन में लाते।
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

स्वयं सुसज्जित करके क्षण में,
प्रियतम को, प्राणों के पण में,
हमीं भेज देती हैं रण में
 क्षात्र-धर्म के नाते.
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

हु‌आ न यह भी भाग्य अभागा,
किसपर विफल गर्व अब जागा?
जिसने अपनाया था,
 त्यागा;रहे स्मरण ही आते
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।
नयन उन्हें हैं निष्ठुर कहते,
पर इनसे जो आँसू बहते,
सदय हृदय वे कैसे सहते गये तरस ही खाते!
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

जायें, सिद्धि पावें वे सुख से,
दुखी न हों इस जन के,
 दुख से,उपालम्भ दूँ मैं,
किस मुख से ?
आज अधिक वे भाते!
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

गये, लौट भी वे आवेंगे,
कुछ अपूर्व-अनुपम लावेंगे,
रोते प्राण उन्हें पावेंगे,
पर क्या गाते-गाते ?
सखि, वे मुझसे कहकर जाते
-मैथिली शरण गुप्त

Friday, October 26, 2018

उनके चेहरे से जो मुस्कान चली जाती है



उनके चेहरे से जो मुस्कान चली जाती है,
मेरी दौलत मेरी पहचान चली जाती है।


जिंदगी रोज गुजरती है यहाँ बे मक़सद,
कितने लम्हों से वो अंजान चली जाती है।



तीर नज़रों के मेरे दिल में उतर जाते हैं,
चैन मिलता ही नहीं जान चली जाती है।



याद उनकी जो भुलाने को गए मैखाने,
वो तो जाती ही नहीं शान चली जाती है।



एक रक़्क़ासा घड़ी भर में तेरी महफ़िल से,
तोड़कर कितनो के ईमान चली जाती है।



खोए रह जाते हैं हम उसके तख़य्युल में 'मिलन',
और वो 'नरगिस-ए-रिज़वान' चली जाती है। 

मिलन 'साहिब'



मायने
बेमक़सद = लक्ष्यहीन, मैखाना = शराब घर, रक़्क़ासा = नाचने वाली, तख़य्युल = याद, नरगिस-ए-रिज़वान = स्वर्ग सुंदरी

Thursday, October 25, 2018

उसको हैरत में डालना है मुझे....अर्पित शर्मा





उसको हैरत में डालना है मुझे,
और दिल से निकालना है मुझे |



एहतियातो से उसको छूना है,

अपना दिल भी संभालना है मुझे |

तेरे और मेरे नाम का दीपक,
आसमां में उछालना है मुझे |

दश्त प्यासा है मेरे दिल का बहुत,
यानि दरिया निकालना है मुझे |

शाम होते ही से जो आती,
ऐसी यादो को टालना है मुझे |

दिल का क़ायम रहे अँधेरा भी,
और जुगनू भी पलना है मुझे |

 - अर्पित शर्मा "अर्पित"

Wednesday, October 24, 2018

ना दिवाली होती न पठाखे छूटते....हरिवंश राय बच्चन


अमृतसर में रावण पुतला दहन के दौरान हुए 
रेल दुर्घटना में सैकड़ों लोगों के मारे जाने पर हरिवंशराय बच्चन की लिखी यह कविता 
आज के दौर में प्रासंगिक लगी। आप सभी के 
लिए पेश है :......
ना दिवाली होती और ना पठाखे बजते
ना ईद की अलामत, ना बकरे शहीद होते
तू भी इन्सान होता, मैं भी इन्सान होता,

....काश कोई धर्म ना होता....
....काश कोई मजहब ना होता....
ना अर्ध देते, ना स्नान होता

ना मुर्दे बहाए जाते, ना विसर्जन होता
जब भी प्यास लगती, नदियों का पानी पीते

पेड़ों की छाव होती, नदियों का गर्जन होता
ना भगवानों की लीला होती, ना अवतारों का नाटक होता

ना देशों की सीमा होती , ना दिलों का फाटक होता
ना कोई झुठा काजी होता, ना लफंगा साधु होता

ईन्सानीयत के दरबार मे, सबका भला होता
तू भी इन्सान होता, मैं भी इन्सान होता,

....काश कोई धर्म ना होता.....
....काश कोई मजहब ना होता....
कोई मस्जिद ना होती, कोई मंदिर ना होता

कोई दलित ना होता, कोई काफ़िर ना होता
कोई बेबस ना होता, कोई बेघर ना होता

किसी के दर्द से कोई बेखबर ना होता
ना ही गीता होती, और ना कुरान होती,

ना ही अल्लाह होता, ना भगवान होता
तुझको जो जख्म होता, मेरा दिल तड़पता.

ना मैं हिन्दू होता, ना तू भी मुसलमान होता
तू भी इन्सान होता, मैं भी इन्सान होता।
हरिवंशराय बच्चन

Tuesday, October 23, 2018

तुम कह दो......एस.के. गुडेसर 'अक्षम्य'

प्रेम की नदी का जहाँ से उद्गम होता है
मेरे उस हृदय के अन्तःपुर पर -
हक़ तुम्हारा है
तू जो चाहे कर मेरे साथ
मुझे आँख मूँद कर स्वीकार है

पर कहने की पहल तुम करो

कि दिन नहीं गुज़रता कब से
रातों को बस तेरा इंतज़ार है
तू साथ तो धरती पर स्वर्ग
तेरे ख़्वाब के बग़ैर तो...
नीदें भी बेकार हैं
आजा गले लगा ले यार
मुझे तुझसे प्यार है.....
-एस.के. गुडेसर 'अक्षम्य'

Monday, October 22, 2018

नया घर...पूजा प्रियंवदा

shimla life
Picture courtesy : @Shimlalife Twitter with permission
वहाँ कहीं एक सेब के 
बगीचे से घिरा 
एक पुराना घर है 
वहां एक बचपन दफ़्न है

मेरी नानी का 
पहाड़ी गुनगुनाना गुम है 
मेरे नाना की कहानियाँ 
खो गयी हैं

वो पगडंडियां 
अब मुझे भूल गयीं हैं 
वो पक्की रस्सी के झूले 
वीरान हैं

एक भाषा, एक उम्र 
एक जीने का सलीका 
पुराने घरों का साथ 
मर चुका है

वो पुराना घर 
अब नया बन चुका है !
- पूजा प्रियंवदा
पार्श्व स्वर

Sunday, October 21, 2018

दोस्तो बारगह-ए-क़त्ल सजाते जाओ....मोहसिन भोपाली

दोस्तो बारगह-ए-क़त्ल सजाते जाओ
क़र्ज़ है रिश्ता-ए-जाँ, क़र्ज़ चुकाते जाओ

रहे ख़ामोश तो ये होंठ सुलग उठेंगे
शोला-ए-फ़िक़्र को आवाज़ बनाते जाओ

अपनी तक़दीर में सहरा है तो सहरा ही सही 
आबला-पाओ नए फूल खिलाते जाओ

ज़िंदगी साया-ए-दीवार नहीं दार भी है
ज़ीस्त को इश्क़ के आदाब सिखाते जाओ

बे-ज़मीरी है सरअफ़राज़ को ग़म कैसा है
अपने तजलील को मेयार बनाते जाओ

ऐ मसीहाओ अगर चारागरी है दुश्वार
हो सके तुमसे, नया ज़ख़्म लगाते जाओ

कारवाँ अज़्म का रोके से कहीं रुकता है 
लाख तुम राह में दीवार उठाते जाओ

एक मुद्दत की रिफ़ाकत का हो कुछ तो इनआम
जाते-जाते कोई इल्ज़ाम लगाते जाओ

जिनको गहना दिया अफ़कार की परछाई ने
“मोहसिन” उन चेहरों को आईना दिखाते जाओ 
- मोहसिन भोपाली

शब्दार्थ
बरगह-ए-क़त्ल =वध स्थल, 
आबला-पाओ=जिनके पाँव छालों से भरे हों, दार=सूली, ज़ीस्त=जीवन, बे-ज़मीरी=अंतरात्मा का न होना, तज़्लील=अपमान, चारागरी=चिकित्सा, अज़्म=संकल्प, रिफ़ाकत=दोस्ती, अफ़कार=चिंताएँ, 

Saturday, October 20, 2018

शब्द... राजेन्द्र जोशी


लड़ते हैं, झगड़ते हैं
डराते हैं, धौंस दिखाते हैं

डरते हैं, दुबकते हैं
प्रेम करते ,

कांपते हैं
कभी तानाशाह होकर
भीख मांगते दिखते हैं.

मैं और वे
खेला करते हैं
मिलजुल कर
भोथरे हुए शब्दों को
धार देते हुए
हो जाते हैं मौन
अपना ही ताकत से
आपसी खेल में.
- राजेन्द्र जोशी


Friday, October 19, 2018

तुलसी खाकर ठीक करेगी ....डॉ. जियाउर रहमान जाफ़री

उठते ही घर ठीक करेगी
माँ फिर बिस्तर ठीक करेगी

चावल हमें खिला देने को
कंकड़ पत्थर ठीक करेगी

गिन के सिक्के चार दफ़ा में
फिर ख़ुद छप्पर ठीक करेगी

धुंआ धुंआ इस घर को कर के
कितने मच्छर ठीक करेगी

इस ज़िद पे हैं काहिल बेटे
माँ ही खण्डहर ठीक करेगी

सबने छोड़ दिए हैं कपडे
माँ है नौकर ठीक करेगी

नहीं वो देगी गन्दा रहने
लेकर पेपर ठीक करेगी

हमें पता है इन तिनकों से
नाक का बेसर ठीक करेगी

देहरी पर भी जाना हो तो
सर का आंचर ठीक करेगी

हो जितना दुःख फिर भी माँ तो
तुलसी खाकर ठीक करेगी 
- डॉ. जियाउर रहमान जाफ़री

Thursday, October 18, 2018

है सजर ये मेरे अपनों का...डॉ. आलोक त्रिपाठी


बड़ा अजीब सा मंझर है ये मेरी जिन्दगी की उलझन का 
गहरी ख़ामोशी में डूबा हुआ है सजर ये मेरे अपनों का 


सिले होठों के भीतर तूफानों की सरसराहट से टूटते सब्र 
लगता है जहर बो दिया हो किसीने अपने अरमानों का 


आवाजों को निगलते मेरी बातों के अंजाम का खौफ 
खुली हवाओं में घुला हो जहर तहजीब व सलीकों का 


जीने का हुनर सीखते २ रूठ गयी है जिन्दगी मुझसे 
शिद्दत से महसूस कर रहा हूँ मै घुटन जंजीरों का 


आपनो से इतनी नफरत कि बस भाग जाऊ कहीं 
शिकायत किसी से नही बोझ हैं चाहत के अपनों का 



Wednesday, October 17, 2018

जीने की वजह ........रंजना भाटिया


दुःख ...
आतंक ...
पीड़ा ...
और सब तरफ़
फैले हैं .............
न जाने कितने अवसाद ,
कितने तनाव ...
जिनसे मुक्ति पाना
सहज नही हैं
पर ,यूँ ही ऐसे में
जब कोई...
नन्हीं ज़िन्दगी
खोलती है अपने आखें
लबों पर मीठी सी मुस्कान लिए
तो लगता है कि
अभी भी एक है उम्मीद
जो कहीं टूटी नहीं है
एक आशा ...
जो बनती है ..
जीने की वजह
वह हमसे अभी रूठी नही है !
-रंजना भाटिया

Tuesday, October 16, 2018

ये आँसू यूँ ही तो बहते नहीं हैं ......रंजना वर्मा

वजह बिन फ़ासला रखते नहीं हैं 
किसी से दुश्मनी करते नहीं हैं 

भरेंगे जल्द ही सब घाव तन के
जखम अब ये बहुत गहरे नहीं हैं 

समझ लेता सभी का दर्द है दिल
ये आँसू यूँ ही तो बहते नहीं हैं 

सहेजी अश्क़ की दौलत जिगर में
जवाहर ये अभी बिखरे नहीं हैं 

दुआ में माँगते खुशियाँ जहाँ की
किसी से हम कभी जलते नहीं हैं 

हैं हँसते लोग अक्सर दूसरों पे 
मगर खुद पे कभी हँसते नहीं हैं 

जमाना साथ आये या न आये
मगर हम राह से भटके नहीं हैं
-रंजना वर्मा

Monday, October 15, 2018

खुद से बिछड़ने की क्या थी वज़ह.....पंकज शर्मा


तेरे खामोश होने की क्या थी वज़ह,
कि फिर लौट न आने की क्या थी वज़ह।

तेरे होने न होने का अब फर्क नहीं पड़ता,
साथ होकर भी साथ न होने की क्या थी वज़ह।

बीती बातों का क्यों अफसोस है तुझे,
ग़ज़ल लिखने की क्या थी वज़ह।

मगरूर हुए वो कुछ इस तरह,
दिल टूट बिखर जाने की क्या थी वज़ह।

बातें तुम करती हो फ़लां फ़लां की,
खुद से बिछड़ने की क्या थी वज़ह।
-पंकज शर्मा

Sunday, October 14, 2018

तुम थे तो हम थे... राहुल कुमार

लम्हे वो प्यार के जो जिए थे, वजह तुम थे
ख्वाब वो जन्नत के जो सजाये थे, वजह तुम थे 
दिल का करार तुम थे,
रूह की पुकार तुम थे
मेरे जीने की वजह तुम थे
लबों पे हँसी थी जो , वजह तुम थे
आँखों में नमी थी जो, वजह तुम थे
रातों की नींद तुम थे,
दिन का चैन तुम थे
मांगी थी जो रब से वो दुआ तुम थे
मेरी दीवानगी तुम थे,
मेरी आवारगी तुम थे
बनाया मुझे शायर,
वो शायरी तुम थे
तुम थे तो हम थे,
मेरी जिंदगी तुम थे
-राहुल कुमार

Saturday, October 13, 2018

बीच भँवर में डोले कश्ती.......डॉ. रजनी अग्रवाल 'वाग्देवी रत्ना'

जीवन में आई बाधाएँ
हमको नाच नचाती हैं,
सुलझ न पाए गुत्थी कोई
उलझन ये बन जाती हैं।

असमंजस का भाव जगातीं
दिल को ये भटकाती हैं,
मृग शावक से चंचल मन को
व्याकुल ये कर जाती हैं।

रिश्तों के कच्चे धागों में
उलझ गाँठ पड़ जाती हैं,
हस्त लकीरें भेद छिपातीं
उलझन फिर कहलाती हैं।

बीच भँवर में डोले कश्ती
मंज़िल नज़र न आती है,
व्यवधानों से घिर जाने पर
हिम्मत साथ निभाती है।

जीवन पथ पर उलझन सारी
भूल भुलैया बन जाती हैं,
धैर्य धरित सन्मार्ग चलाती
सुबुद्धि राह दिखाती है।

उलझन से घबराना कैसा
शक्ति हमें बतलाती है,
जो मन जीता वो जग जीता
कर्मठता सिखलाती है।
-डॉ. रजनी अग्रवाल 'वाग्देवी रत्ना'

डॉ. रजनी अग्रवाल “रत्ना”
संपादिका-साहित्य धरोहर
महमूरगंज, वाराणसी(मो.-9839664017)


Friday, October 12, 2018

मन की उलझन ....इन्दु सिंह

कभी सोचता है उलझनों में घिरा मन
क्या ठहर गया है वक्त ? नहीं,
वक्त वैसे ही भाग रहा है
कुछ ठहरा है तो वो है मन,
मन ही कर देता है कम
अपनी गति को
और करता है महसूस
ठहरे हुए वक्त को
उसे नज़र आती हैं सारी
जिज्ञासायें उसी वक्त में,सारी
निराशायें उसी वक्त में
पर ठहरा हुआ मन अचानक-
हो उठता है चंचल मृगशावक सा
और करता है पीछा उस वक्त का,
जो बीत गया है।
नहीं चल पाता जब वक्त के साथ
सोचता है तब उसका
ठहरा हुआ मन,कि ये ठहराव
वक़्त का नहीं
ये तो है सिर्फ़ मन की उलझन।
-इन्दु सिंह

Thursday, October 11, 2018

उलझन.....देवेन्द्र सोनी

उलझन रहती है
सदा ही हमारे आसपास।

हर उलझन का होता है 
हल भी वहीं-कहीं
पर हमारा वैचारिक द्वंद्व 
करता है देर, इन्हें सुलझाने में।

उलझन का हमारी जिंदगी से
गहरा नाता है 
सुलझती है एक तो 
रहती है दूसरी हर दम तैयार।

उलझन, 
उपजाती है मन में नैराश्य 
पर सुलझते ही इसके 
प्रफुल्लित हो जाता है मन।

कई तरह की होती हैं
उलझनें
जो कई बार होती हैं
हमारे सोच के दायरे से बाहर।

अनायास उपजी इन उलझनों को 
सुलझाने का सरल उपाय 
यही लगता है मुझे -
बनें वैचारिक स्तर पर मजबूत
छोड़ें न धैर्य, दें दिलासा 
जूझते मन और तन को, क्योंकि -
उलझने करती हैं परेशान और
देती हैं कष्ट हमारे अंतस को।

सुलझ तो जाती ही हैं ये 
कभी न कभी पर 
ले लेती हैं हमारे आत्मबल की 
परीक्षा भी, ये उलझनें।

जब कभी हो जीवन में 
उलझनों से सामना हमारा
रखें धैर्य, न छोड़ें आत्म विश्वास।

जानते ही हैं यह हम 
सुलझ तो जाएंगी ही सभी उलझनें 
क्योंकि होती ही है ये - 
बहुधा सुलझने के लिए ।
-देवेन्द्र सोनी