Wednesday, January 16, 2019

मैं तृष्णा से अकुलाई रे........श्वेता सिन्हा

मदिर प्रीत की चाह लिये
हिय तृष्णा में भरमाई रे
जानूँ न जोगी काहे 
सुध-बुध खोई पगलाई रे

सपनों के चंदन वन महके
चंचल पाखी मधुवन चहके
चख पराग बतरस जोगी
मैं मन ही मन बौराई रे

"पी"आकर्षण माया,भ्रम में
तर्क-वितर्क के उलझे क्रम में
सुन मधुर गीत रूनझुन जोगी
राह ठिठकी मैं चकराई रे

उड़-उड़कर पंख हुये शिथिल 
नभ अंतहीन इच्छाएँ जटिल 
हर्ष-विषाद गिन-गिन जोगी
क्षणभर भी जी न पाई रे

जीवन वैतरणी के तट पर
तृप्ति का रीता घट लेकर
मोह की बूँदें भर-भर जोगी
मैं तृष्णा से अकुलाई रे
-श्वेता सिन्हा


7 comments:

  1. "पी"आकर्षण माया,भ्रम में
    तर्क-वितर्क के उलझे क्रम में
    सुन मधुर गीत रूनझुन जोगी
    राह ठिठकी मैं चकराई रे...
    बेहतरीन रचना हेतु अनन्त शुभकामनाएं आदरणीय श्वेता जी।

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  2. बहुत सुन्दर श्वेता ! लगता है कि मीरा ब्रज भाषा छोड़कर खड़ी बोली में लिखने लगी हैं.
    वही तड़प, वही आकुलता, वही निश्छलता और वही समर्पण का भाव !

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  3. वाह!!!!श्वेता ,अद्भुत!!

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  4. उड़-उड़कर पंख हुये शिथिल
    नभ अंतहीन इच्छाएँ जटिल
    हर्ष-विषाद गिन-गिन जोगी
    क्षणभर भी जी न पाई रे
    वाह!!!
    बस वाह ही आता है मुझे आपकी रचना में...सच निशब्द हो जाती हूँ मैं...क्या कमाल लिखती हैं आप...बार बार पढकर भी मन नहीं भरता...
    ढ़ेर सारी शुभकामनाएं।

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  5. सपनों के चंदन वन महके
    चंचल पाखी मधुवन चहके
    चख पराग बतरस जोगी
    मैं मन ही मन बौराई रे...वाह !!!बहुत ख़ूब 👌 आदरणीय श्वेता जी
    सादर

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  6. सुन मधुर गीत रूनझुन जोगी
    राह ठिठकी मैं चकराई रे...
    ........बेहतरीन रचना

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