मदिर प्रीत की चाह लिये
हिय तृष्णा में भरमाई रे
जानूँ न जोगी काहे
सुध-बुध खोई पगलाई रे
सपनों के चंदन वन महके
चंचल पाखी मधुवन चहके
चख पराग बतरस जोगी
मैं मन ही मन बौराई रे
"पी"आकर्षण माया,भ्रम में
तर्क-वितर्क के उलझे क्रम में
सुन मधुर गीत रूनझुन जोगी
राह ठिठकी मैं चकराई रे
उड़-उड़कर पंख हुये शिथिल
नभ अंतहीन इच्छाएँ जटिल
हर्ष-विषाद गिन-गिन जोगी
क्षणभर भी जी न पाई रे
जीवन वैतरणी के तट पर
तृप्ति का रीता घट लेकर
मोह की बूँदें भर-भर जोगी
मैं तृष्णा से अकुलाई रे
-श्वेता सिन्हा
"पी"आकर्षण माया,भ्रम में
ReplyDeleteतर्क-वितर्क के उलझे क्रम में
सुन मधुर गीत रूनझुन जोगी
राह ठिठकी मैं चकराई रे...
बेहतरीन रचना हेतु अनन्त शुभकामनाएं आदरणीय श्वेता जी।
बहुत सुन्दर श्वेता ! लगता है कि मीरा ब्रज भाषा छोड़कर खड़ी बोली में लिखने लगी हैं.
ReplyDeleteवही तड़प, वही आकुलता, वही निश्छलता और वही समर्पण का भाव !
वाह
ReplyDeleteवाह!!!!श्वेता ,अद्भुत!!
ReplyDeleteउड़-उड़कर पंख हुये शिथिल
ReplyDeleteनभ अंतहीन इच्छाएँ जटिल
हर्ष-विषाद गिन-गिन जोगी
क्षणभर भी जी न पाई रे
वाह!!!
बस वाह ही आता है मुझे आपकी रचना में...सच निशब्द हो जाती हूँ मैं...क्या कमाल लिखती हैं आप...बार बार पढकर भी मन नहीं भरता...
ढ़ेर सारी शुभकामनाएं।
सपनों के चंदन वन महके
ReplyDeleteचंचल पाखी मधुवन चहके
चख पराग बतरस जोगी
मैं मन ही मन बौराई रे...वाह !!!बहुत ख़ूब 👌 आदरणीय श्वेता जी
सादर
सुन मधुर गीत रूनझुन जोगी
ReplyDeleteराह ठिठकी मैं चकराई रे...
........बेहतरीन रचना