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Tuesday, January 19, 2021

रंगों का मौसम ...मंजू मिश्रा

रंगों का मौसम 

पतंगों का मौसम 

तिल-गुड़ की सौंधी मिठास का मौसम 

लो शुरू हुआ नया साल  ।१।


मौसम का मिज़ाज बदला

हवा का अन्दाज़ 

और बदली सूर्य की चाल 

लो शुरू हुआ नया साल ।२।


उड़ती पतंगें यूँ लगें 

मानो आसमाँ पे बिछ गयी 

रंगों की तिरपाल 

लो शुरू हुआ नया साल ।३।

-मंजू मिश्रा

Monday, September 23, 2019

हाँ , मैं प्रवासी हूँ ..मंजू मिश्रा



हाँ
मैं प्रवासी हूँ
शायद इसी लिए
जानता हूँ
कि मेरे देश की
माटी में
उगते हैं रिश्ते
*
बढ़ते हैं
प्यार की धूप में
जिन्हें बाँध कर
हम साथ ले जाते हैं
धरोहर की तरह
और पोसते हैं उनको
कलेजे से लगाकर
*
क्योंकि घर के बाहर
हमें धन, वैभव,
यश और सम्मान
सब मिलता है,
नहीं मिलती तो
रिश्तों की
वो गुड़ सी मिठास
जो अनगढ़ भले ही हो
लेकिन होती
बहुत अनमोल है
*
हाँ मैं प्रवासी हूँ
हाँ मैं प्रवासी हूँ
मंजू मिश्रा

Friday, August 30, 2019

उदास चाँद ....मंजू मिश्रा

आज रात चाँद
ज़रा देर से
खिड़की पर आया
था भी कुछ अनमना सा
पूछा .... तो कुछ बोला नहीं
शायद उसने सुना नहीं
या फिर अनसुनी की
राम जाने....
लेकिन ये तो तय है
था उदास, चेहरा भी
कुछ पीला पीला सा ही लगा
यूँ ही थोड़ी देर
इधर उधर पहलू बदलते
बादलों की ओट में
छुपते छुपाते
न जाने कब
चुपके से नीचे उतर
झील में जा बैठा शायद रो रहा था
-मंजू मिश्रा
मूल रचना


Tuesday, July 9, 2019

वह...मंजू मिश्रा

वह 

पूरे परिवार की 

जिंदगी का ताना बाना होती है 

घर भर के दुःख दर्द आँसू 

हँसी मुस्कान और रिश्ते... सब 

उसके आँचल की गांठ से बंधे 

उसकी डिग्री या बिना डिग्री वाली 

मगर गजब की स्किल्स के आस पास  

जीवन की आंच में धीरे धीरे पकते रहते हैं 

बच्चों के कच्ची माटी से भविष्य 

उसके सधे हाथों में गढ़ते रहते हैं 

और वह चौबीस घंटे धुरी सी 

घूमती रहती है

सबकी साँसों में साँसे पिरोती रहती है 

पता ही नहीं चलता 

वो कब जान लेती है 

सबके मन की बात 

पर शायद ही 

कोई जान पाता है 

कभी उसके मन की बात 

ये भी कोई कहाँ जान पाता है कि

कब होती है उसकी सुबह 

और कब होती है रात 

उसका सोना जागना 

सब कुछ मानो 

एक जादू की छड़ी सा 

न जाने 

कौन से पल में निपट जाता है

उसके पास 

सबकी फरमाइशों का खाता है

सबके दुःख दर्द का इलाज  

और घर भर के सपनों को 

पालने का जुझारूपन भी

मौका पड़े तो लड़ जाए 

यमराज से भी 

पता नहीं ये अदम्य साहस 

उसमे कहाँ से आता है 

जो भी हो उसका 

आसपास होना बहुत भाता है

जीवन से उसका अटूट नाता है 

उसे माँ के नाम से जाना जाता है 

Thursday, June 20, 2019

कुछ शेर हवाओं के नाम …मंजू मिश्रा

हवाओं की..  कोई सरहद नहीं होती
ये तो सबकी हैं बेलौस बहा करती हैं
**
हवाएँ हैं, ये कब किसी से डरती हैं
जहाँ भी चाहें बेख़ौफ़ चला करती हैं
**
चाहो तो कोशिश कर के देख लो मगर
बड़ी ज़िद्दी हैं कहाँ किसी की सुनती हैं
**
हवाएँ न हों तो क़ायनात चल नहीं सकती 
इन्ही की इनायत है कि जिंदगी धड़कती है 
- मंजू मिश्रा
बेलौस - निस्वार्थ, बिना किसी भेदभाव के

Sunday, February 17, 2019

दहशत का रास्ता...मंजू मिश्रा

सरहदों पर यह लड़ाई
न जाने कब ख़त्म होगी
क्यों नहीं जान पाते लोग
कि इन हमलों में सरकारें नहीं
परिवार तबाह होते हैं

कितनों का प्रेम
बिछड़ गया आज ऐन
प्रेम के त्यौहार के दिन
जिस प्रिय को कहना था
प्यार से हैप्पी वैलेंटाइन
उसी को सदा के लिए खो दिया
एक ख़ूंरेज़ पागलपन और
वहशत के हाथों

अरे भाई
कुछ मसले हल करने हैं
तो आओ न...
इंसानों की तरह
बैठें और बात करें
सुलझाएं साथ मिल कर
लेकिन नहीं, तुम्हे तो बस
हैवानियत ही दिखानी है
तुम्हे इंसानियत से क्या वास्ता
तुमने तो बस...
चुन लिया है दहशत का रास्ता
- मंजू मिश्रा

Wednesday, September 19, 2018

तुम …-मंजू मिश्रा

अक्सर 
सोचती हूँ... 
तुम्हे 
शब्दों में समेट लूँ 
या फिर
बाँध दूँ ग़ज़ल में 
न हो तो 
ढाल दूँ 
गीत के स्वरों में ही 
मगर 
कहाँ हो पाता है 
तुम तो 
समय की तरह 
फिसल जाते हो 
मुट्ठी से...

- मंजू मिश्रा



Sunday, June 24, 2018

मेरी बेटी....मंजू मिश्रा

आज तुम 
इतनी बड़ी हो गयी हो 
कि मुझे तुम से 
सर उठा कर 
बात करनी पड़ती है
सच कहूं तो 
बहुत फ़ख्र महसूस करती हूँ 
जब तुम्हारे और मेरे 
रोल और सन्दर्भ 
बदले हुए देखती हूँ 
आज तुम्हारा हाथ

मेरे कांधे पर और 
कद थोड़ा निकलता हुआ  
कभी मेरी ऊँगली और 
तुम्हारी छोटी सी मुट्ठी हुआ करती थी 
हम तब भी हम ही थे 
हम अब भी हम ही हैं 
-मंजू मिश्रा


Tuesday, February 20, 2018

गूंगी मूर्तियाँ.....मंजू मिश्रा


ये गूंगी मूर्तियाँ
जब से बोलने लगी हैं
न जाने कितनों की
सत्ता डोलने लगी है
जुबान खोली है
तो सज़ा भी भुगतेंगी
अब छुप छुपा कर नहीं
सरे आम...
खुली सड़क पर
होगा इनका मान मर्दन
कलजुगी कौरवों की सभा
सिर्फ ठहाके ही नहीं लगाएगी
बल्कि वीडियो भी बनाएगी
अपमान और दर्द की इन्तहा में
ये मूर्तियाँ
फिर से गूंगी हो जाएँगी
नहीं हुईं तो
इनकी जुबानें काट दी जाएँगी
मगर अपनी सत्ता पर
आँच नहीं आने दी जाएगी

- मंजू मिश्रा

Wednesday, December 6, 2017

केंचुए ....मंजू मिश्रा


काट दिये पर 
 सिल दी गयीं जुबानें 
और आँखों पर पट्टी भी बाँध दी
इस सबके बाद दे दी हाथ में कलम 
कि लो अब लिखो निष्पक्ष हो कर 
तुम्हारा फैसला जो भी हो 
बेझिझक लिखना 
-:- 
 गूंगे बहरे लाचार 
आपके रहमो करम पर जिन्दा लोग 
क्या मजाल कि जाएँ आपके खिलाफ 
ऐसी जुर्रत भी करें हमारी मति मारी गई है क्या 
हुजूर माई बाप आप की दया है तो हम हैं 
आप का जलवा सदा कायम रहे और
हमारे कांधों पर पाँव रख कर 
आप अपना परचम लहरायें 
विश्व विजयी कहलाएँ 
-:-
हम तो बस
 सदियों से यूँ ही  
तालियाँ बजाते आये हैं 
 आगे भी वही करेंगे राजा चाहे जो हो  
हमें क्या, भूखे प्यासे रोयेंगे तड़पेंगे 
मगर राजा की जय बोलेंगे  
और हक़ नहीं भीख के 
टुकड़ों पर पलेंगे 
-:-
जब जी चाहे 
पुचकारो मतलब निकालो 
फिर गाली दे कर हकाल दो 
हम इंसान कहाँ कुत्ते हैं 
दर असल हम कुत्ते भी नहीं 
वो भी कभी कभी भौंक कर काट लेते हैं
हम तो उस से भी गये गुजरे
रीढ़ विहीन, शायद
केंचुए हैं
-:-


Friday, September 8, 2017

जड़ें…मंजू मिश्रा


काश कि 
हम लौट सकें 
अपनी उन्ही जड़ों की ओर 
जहाँ जीवन शुरू होता था  
परम्पराओं के साथ 
और फलता फूलता था  
रिश्तों  के साथ 
**
मधुर मधुर मद्धम मद्धम  
पकता था  
अपनेपन की आंच में 
 मैं-मैं और-और की
 भूख से परे 
जिन्दा रहता था  
एक सम्पूर्णता 
और संतुष्टि के 
अहसास के साथ 
**
-

Friday, August 11, 2017

नदी होना आसान नहीं होता …मंजू मिश्रा



काट कर पत्थर
नदी होकर जनमना
फिर ठोकरें खाते हुए
दिन रात बहना
और बहते बहते
ना जाने कितना कुछ
अच्छा - बुरा
सब समेटते जाना
और बहुत कुछ
पीछे भी छोड़ते जाना
नदी बने रहने की प्रक्रिया  में
बहुत कुछ छूट जाता है
बहुत कुछ टूट जाता है
सच....

नदी होना
आसान नहीं होता
-मंजू मिश्रा

Monday, April 3, 2017

जिन्दगी का गणित..........मंजू मिश्रा




बरस महीने दिन 
छोटे छोटे होते 
अदृश्य ही हो जाते हैं 
और मैं 
बैठी रहती हूँ 
अभी भी 
उनको उँगलियों पे 
गिनते हुए 
बार बार 
हिसाब लगाती हूँ 
मगर
जिन्दगी का गणित है कि
सही बैठता ही नहीं
-मंजू मिश्रा

Wednesday, March 29, 2017

इनसान बन जीने दो ...मंजू मिश्रा

मुक्त करो पंख मेरे पिजरे को  खोल दो
मेरे सपनो से जरा पहरा हटाओ तो ...
आसमाँ को  छू के मैं तो तारे तोड़ लाऊंगी
एक बार प्यार से हौसला बढाओ तो ...

 बेटों से नहीं है कम बेटी किसी बात में
सुख हो या दुःख सदा रहती हैं साथ में
वंश सिर्फ बेटे ही चलाएंगे न सोचना
भला इंदिरा थी कहाँ कम किसी बात में

बेटियों को बेटियां ही मानो नहीं देवियाँ
पत्थर की मूरत बनाओ नहीं बेटियां
इनसान हैं इनसान बन जीने दो ...
हंसने दो रोने दो गाने मुस्कुराने दो

Monday, March 20, 2017

क्योंकि प्रेम… मर चुका होता है .........मंजू मिश्रा




अपेक्षाएं
जब प्रेम से
बड़ी होने लगती हैं
तब
प्रेम धीरे धीरे
मरने लगता है
विश्वास
घटने लगता है
प्रेम में तोल-मोल
जांच-परख
घर कर लेती है
तो प्रेम
प्रेम नहीं रह जाता
विश्वास विहीन जीवन
कब असह्य हो जाता है
पता ही नहीं चलता
जब पता चलता है
तब तक
बहुत देर हो चुकी होती है
सिर्फ पछतावा ही
शेष रह जाता है
क्योंकि प्रेम
मर चुका होता है !!



Sunday, February 19, 2017

हाँ मैं प्रवासी हूँ …मंजू मिश्रा


हाँ 
मैं प्रवासी हूँ 
शायद इसी लिए
जानता हूँ
कि मेरे देश की
माटी में
उगते हैं रिश्ते 
*
बढ़ते हैं
प्यार की धूप में
जिन्हें बाँध कर
हम साथ ले जाते हैं
धरोहर की तरह
और पोसते हैं उनको
कलेजे से लगाकर 
*
क्योंकि घर के बाहर
हमें धन, वैभव,
यश और सम्मान
सब मिलता है,
नहीं मिलती तो
रिश्तों की
वो गुड़ सी मिठास
जो अनगढ़ भले ही हो
लेकिन होती
बहुत अनमोल है 
*
हाँ मैं प्रवासी हूँ
-मंजू मिश्रा