
-पावनी जानिब सीतापुर
-पावनी जानिब सीतापुर
हर इरादा मोहब्बत का नाकाम आया है
राहें अपनी जुदा हुई हैं वो मकाम आया है।
सुना है दोस्ती से बड़ा कोई रिश्ता नहीं होता
मेरे दुश्मनों में दोस्तों का ही नाम आया है।
वो ख़त जो हमने लिखेथे उनको बेकरारी में
जवाब में हमारी मौत का फरमान आया है।
गुनाह ए इश्क दोनों ने ही किया था कभी
बस मुझपे ही क्यों इश्क का इलज़ाम आया है।
यह आखिरी है मुलाकात इसे कुबूल करो
बेवफा तेरे लिए आखिरी सलाम आया है।
मुझे हर हाल में जीना गंवारा है जानिब
जब जिसकी जरूरत थी वो कब काम आया है।
- पावनी जानिब सीतापुर
मैं स्याही की बूंद हूं जिसने जैसा चाहा लिखा मुझे
मैं क्या हूं कोई ना जाने अपने मन सा गढा़ मुझे।
भटक रही हूं अक्षर बनकर महफिल से वीराने में
कोई मन की बात न समझा जैसा चाहा पढ़ा मुझे।
ना समझे वो प्यार की कीमत बोली खूब लगाई है
जैसे हो जागीर किसीकी दांव पे दिलके धरा मुझे।
बह जाए जज़्बात ना कैसे आज यू कोरे पन्नों पर
अरमानों की स्याही देकर कतरा कतरा भरा मुझे।
पढ़ना है तो कुछ ऐसा पढ़ रूह को राहत आ जाए
मैं तेरी ख्वाब ए ग़ज़ल हूं मत कर खुदसे जुदा मुझे।
तुम चाहो तो शब्द सुरों सी शहनाई में गूंज उठूं
जब दिल तेरा याद करे जानिब देना सदा मुझे।
-पावनी जानिब
सीतापुर
कुछ इस तरह मैं करूं मोहब्बत
सम्हल के भी तू कभी न सम्हले
बस इतना हो जब उठे जनाजा
हमारा और दम तुम्हारा निकले।
मैं टूट जाऊं तो गम नहीं है
सितम ये तेरा सितम नहीं है।
बदल गए कुछ बदल भी जाओ
हमारे दिल की वफ़ा न बदले।
इक बार सो के कभी जगे ना
सुना है एक ऐसी नींद भी है
मैं चैन से तब सो सकूं जब
तुम्हारे लब से दुआ न निकले ।
फिर हम मिलें न मिल पाएं
मेरी खता की सजा सुना दो
भर जाए दिल जब किसी से तो
कैसे मुमकिन खता न निकले।
कहोगे क्या तुम अपने दिल से
भुलाओगे किस तरह से हमको
के दूर जाओगे कैसे मुझसे कहीं
दिल तेरा मेंरा पता न निकले।
मैं एक ग़ज़ल किताब ए ,जानिब,
पढ़ो य कागज स तुम जाला दो
रुसवाईयां हो जाएं न तेरी मुझे
जलाना ऐसे धुआं न निकले।
-पावनी जानिब सीतापुर