Saturday, June 30, 2018

अपने बचपन का सफ़र याद आया...ममता किरण

अपने बचपन का सफ़र याद आया
मुझको परियों का नगर याद आया

जो नहीं था कभी मेरा अपना
क्यूँ मुझे आज वो घर याद आया

कोई पत्ता न हिले जिसके बिना
रब वही शामो ए सहर याद आया

इतना शातिर वो हुआ है कैसे
है सियासत का असर याद आया

रोज़ क्यूँ सुर्ख़ियों में रहता है
है यही उसका हुनर याद आया

जब कोई आस ही बाकी न बची
मुझको बस तेरा ही दर याद आया

उम्र के इस पड़ाव पे आकर
क्यूँ जुदा होने का डर याद आया

माँ ने रखा था हाथ जाते हुए
फिर वही दीदे ए तर याद आया

जिसकी छाया तले किरण थे सब
घर के आँगन का शजर याद आया।
-ममता किरण

Friday, June 29, 2018

मौन शोध.....डॉ. इन्दिरा गुप्ता


मौन तोड़ क्यूँ बात करें 
पुनि घात और प्रतिघात करें 
बेहतर थोड़ा सा चुप रह कर 
मन से मन की बात करें !

चिंतन और मनन की संतति 
मौन सुपुत्र सा ही साजे 
रार प्रतिकार उसे नहीं भाता 
हर मन का संताप हरे !

मौन विधा अति सुन्दर सुथरी 
कभी ना कोई अहित करें 
ना दूजे का ना ही खुद का 
मौन  रहे बस शोध करे !

-डॉ. इन्दिरा गुप्ता  ✍

Thursday, June 28, 2018

जो मेरे दिल के अन्दर है....दिनेश गुप्ता

मेरी आँखों में मुहब्बत के जो मंज़र है
तुम्हारी ही चाहतों के समंदर है

में हर रोज चाहता हूँ कि तुझसे ये कह दूँ मगर
लबों तक नहीं आता, जो मेरे दिल के अन्दर है

 मेरे दिल में तस्वीर हे तेरी, निगाहों में तेरा ही चेहरा है,
नशा आँखों में मुहब्बत का, वफ़ा का रंग ये कितना सुनहरा है,

दिल की कश्ती कैसे निकले अब चाहत के भंवर से
समंदर इतना गहरा है, किनारों पर भी पहरा है

वो हर रोज मुझसे मिलती है, मैं हर बार नहीं कह पाता
जो दिल में इतना प्यार भरा है, लबो पर क्यों नहीं आता

हम भी नहीं करते थे प्यार-मुहब्बत के किस्सों पर यकीं,
पर जब दिल को छू जाये एक बार, फिर कोई और नहीं भाता

- दिनेश गुप्ता



Wednesday, June 27, 2018

उम्र लंबी तो है मगर बाबा .....शीन काफ़ निज़ाम


उम्र लम्बी तो है मगर बाबा
सारे मंज़र हैं आँख भर बाबा

जिंदगी जान का ज़रर बाबा
कैसे होगी गुज़र बसर बाबा

और आहिस्ता से गुज़र बाबा
सामने है अभी सफ़र बाबा

तुम भी कब का फ़साना ले बैठे
अब वो दीवार है न दर बाबा

भूले बिसरे ज़माने याद आए
जाने क्यूँ तुमको देख कर बाबा

हाँ हवेली थी इक सुना है यहाँ
अब तो बाकी हैं बस खँडहर बाबा

रात की आँख डबडबा आई
दास्ताँ कर न मुख़्तसर बाबा

हर तरफ सम्त ही का सहरा है
भाग कर जाएँगे किधर बाबा

उस को सालों से नापना कैसा
वो तो है सिर्फ़ साँस भर बाबा

हो गई रात अपने घर जाओ
क्यूँ भटकते हो दर-ब-दर बाबा

रास्ता ये कहीं नहीं जाता
आ गए तुम इधर किधर बाबा
-शीन काफ़ निज़ाम



Tuesday, June 26, 2018

मेरी नींद चुरा क्यूँ नहीं लेते......... ज़फ़र गोरखपुरी

05 मई 1935   - 29 जुलाई 2017

मौसम को इशारों से बुला क्यूँ नहीं लेते
रूठा है अगर वो तो मना क्यूँ नहीं लेते

दीवाना तुम्हारा कोई ग़ैर नहीं
मचला भी तो सीने से लगा क्यूँ नहीं लेते

ख़त लिख कर कभी और कभी ख़त को जलाकर
तन्हाई को रंगीन बना क्यूँ नहीं लेते

तुम जाग रहे हो मुझको अच्छा नहीं लगता
चुपके से मेरी नींद चुरा क्यूँ नहीं लेते
-ज़फ़र गोरखपुरी

Monday, June 25, 2018

निस्तब्ध...पुष्पा परजिया

निशब्द, निशांत, नीरव, अंधकार की निशा में
कुछ शब्द बनकर मन में आ जाए,
जब हृदय की इस सृष्टि पर 
एक विहंगम दृष्टि कर जाए 
भीगी पलकें लिए नैनों में रैना निकल जाए 
विचार-पुष्प पल्लवित हो 
मन को मगन कर जाए 

दूर गगन छाई तारों की लड़ी 
जो रह-रह कर मन को ललचाए
ललक उठे है एक मन में मेरे 
बचपन का भोलापन 
फिर से मिल जाए

मीठे सपने, मीठी बातें, 
था मीठा जीवन तबका 
क्लेश-कलुष, बर्बरता का 
न था कोई स्थान वहां 

थे निर्मल, निर्लि‍प्त द्वंदों से, 
छल का नामो निशां न था 
निस्तब्ध निशा कह रही मानो मुझसे ,
तू शांति के दीप जला, इंसा जूझ रहा 

जीवन से हर पल उसको 
तू ढांढस  बंधवा निर्मल कर्मी बनकर
इंसा के जीवन को 
फिर से बचपन दे दे जरा 

-पुष्पा परजिया 

Sunday, June 24, 2018

मेरी बेटी....मंजू मिश्रा

आज तुम 
इतनी बड़ी हो गयी हो 
कि मुझे तुम से 
सर उठा कर 
बात करनी पड़ती है
सच कहूं तो 
बहुत फ़ख्र महसूस करती हूँ 
जब तुम्हारे और मेरे 
रोल और सन्दर्भ 
बदले हुए देखती हूँ 
आज तुम्हारा हाथ

मेरे कांधे पर और 
कद थोड़ा निकलता हुआ  
कभी मेरी ऊँगली और 
तुम्हारी छोटी सी मुट्ठी हुआ करती थी 
हम तब भी हम ही थे 
हम अब भी हम ही हैं 
-मंजू मिश्रा


Saturday, June 23, 2018

आखिर कब तक?....श्वेता सिन्हा


एक मासूम दरिंदगी का शिकार हुई
यह चंद पंक्तियों की ख़बर बन जाती है
हैवानियत पर अफ़सोस के कुछ लफ़्ज़
अख़बार की सुर्ख़ी होकर रह जाती है
अनगिनत अनदेखे सपनों के सितारे
अपनी पनीली आँखों में भरकर
माँ के आँचल की ओट से मुस्काती थी
फुदकती घर-आँगन में चिड़ियों-सी
गुड़िया,गुड़ियों का संसार रचाती थी
माटी के महावर लगाती
काग संग कितना बतियाती थी
चंदा मामा की कहानी से नहीं अघाती
कोयल की कविता ऊँचे सुर में गाती थी
बचपने को उसके बेदर्दी से कुचला गया
नन्ही-सी कली को रक्तरंजित कर फेंका गया
जिसे औरतपन का ज्ञान नहीं 
भूख में भात,प्यास में पानी की जरुरत
माँ की गोदी ही आशियां उसका था
भेंड़ियों के द्वारा उसे नोंचा गया
दुनियादारी से अब तक 
जिसकी पहचान नहीं
न उभार अंगों में,न पुष्ट सौष्ठव
दुबले तन पर लिबास का भान नहीं
जाने कैसे वासना जगाती है?
मासूमियत दरिंदे का आसान शिकार हो जाती है
पल-पल मरती वो पाँच साल की परी
नारी का प्रतिमान हो जाती है
नहीं हँसती है आजकल
उसकी चुप्पी डंसती है आजकल
गालों पर सूखी आँसू की रेखा
वो लोगों से बचती है आजकल
सूनी आँखों से ताकती मरते  सपनों को
सिसकती,सिहरती, सहमती देख अपनों को
माँ का हृदय फटा जाता है
क्या करूँ कैसे समझाऊँ मैं
किस आँचल में अब मैं छुपाऊँ
कैसे उसका सम्मान लौटाऊँ
देवी का रुप कहलाने वाली
राक्षसों का भोग बन जाती है
कब शीश लोगी भेंट माँ ?
ऐसे समाजिक पशुओं का..
कितना और सहना होगा
नारी जाति में जन्म लेने का दंश
प्रकृति प्रदत्त तन का अभिशाप
तन पर ठोंके कीलों का गहना होगा
अब बहुत हुआ
सीख लो आत्मरक्षा बेटियों
तुम त्रिशूल की धार हो जाओ
अवतार धर कर शक्ति का
असुरों पर खड्ग का प्रहार हो जाओ
छूकर तुझको भस्म हो जाये
धधकती ज्वाला,अचूक वार हो जाओ

-श्वेता सिन्हा

Friday, June 22, 2018

रहम मेरे यार कर.......श्वेता

मैं ख़्वाब हूँ मुझे ख़्वाब में ही प्यार कर
पलकों की दुनिया में जी भर दीदार कर

न देख मेरे दर्द ऐसे बेपर्दा हो जाऊँगी
न गिन जख़्म दिल के,रहम मेरे यार कर

बेअदब सही वो क़द्रदान है आपके 
न तंज की सान पर लफ़्ज़ों को धार कर

और कितनी दूर जाने आख़िरी मुक़ाम है
छोड़ दे न साँस साथ कंटकों से हार कर

चूस कर लहू बदन से कहते हो बीमार हूँ
 ज़िंदा ख़ुद को कहते हो,ज़मीर अपने मारकर
-श्वेता सिन्हा

Thursday, June 21, 2018

आज.....सुचेतना मुखोपाध्याय

सुबह खोल रही है,
अपना लिफ़ाफ़ा हौले से।

गली से निकल रहे हैं लोग,
वही कल के काम पर।

उड़ते हुए परिंदों की चोंचों में,
वही तिनके हैं कल से।

फूलों ने पंखुड़ी बिछाई है आसमां तलक़ 
रोज़ की तरह।

मुट्ठी में जितने हो सकें
समेट लो लम्हें आज,
कि ज़िन्दगी शांत खड़ी है देहलीज़ पे
अपनी बाहें फैलाये,
बस तुम्हारे लिए।
-सुचेतना मुखोपाध्याय

Wednesday, June 20, 2018

अकुरित आशाएँ..........सुरेन्द्र कुमार 'अभिन्न'

मेरी आत्मा की बंजर भूमि पर,
कठोरता का हल चला कर,
तुमने ये कैसा बीज बो दिया? 
क्या उगाना चाहते हो 
मुझमें तुम,

ये कौन अँगड़ाई सी लेता है, 
मेरी गहराइयों में,
कौन खेल सा करता है,
मेरी परछाइयों से,

क्या अंकुरित हो रहा है इन अंधेरों से...?
क्या उग रहा है सूर्य कोई पूर्व से???

-सुरेन्द्र कुमार 'अभिन्न'

Tuesday, June 19, 2018

अंकुर फूटेगा एक दिन पुनः..सुमित जैन


इस निराश से भरे जीवन में 
अशान्त से भरे मन में
अनुभूति है सुख-दुःख  
जन्म-मरण के चक्र में
मानव की मानवता
खो गई है कदाचित भीड़ में
अंकुर फूटेगा जिसका पुनः एक दिन
शेष है बीज अभी भी उसका 
होगा मानव जीवन हरा भरा
यह विश्वास है कवि को

जीवन में चारो ओर
सिर्फ प्रेम है और केवल प्रेम है
प्रेम न तो व्यापर है
न ही इर्ष्या और स्वार्थ
प्रेम तो है निश्छल और नि:स्वार्थ
प्रेम का एक ही नियम है
प्रेम... प्रेम... प्रेम...!
अंकुर फूटेगा एक दिन पुनः
क्योंकि यही जिंदगी का
नियम हैं।

कर तू जिंदगी से प्यार 
स्वयं पर कर यकीन 
सुन्दर है, साहस है जीवन 
उमंग है, अभिव्यक्ति है जीवन 
नहीं है जीवन अशुभ  
कर युद्ध उससे 
सफलता ही मिल जाएगा 
यथार्थ में, जीवन ही आनंद है
आनंद ही ईश्वर है
अंकुर फूटेगा एक दिन पुनः
आनंद का
जीवन होगा सुन्दर
-सुमित जैन

Monday, June 18, 2018

बदचलन...हरिशंकर परसाई


एक बाड़ा था। बाड़े में तेरह किराएदार रहते थे। 
मकान मालिक चौधरी साहब पास ही एक बँगले में रहते थे।

एक नए किराएदार आए। वे डिप्टी कलेक्टर थे। उनके आते ही 
उनका इतिहास भी मुहल्ले में आ गया था। वे इसके पहले 
ग्वालियर में थे। वहाँ दफ्तर की लेडी टाइपिस्ट को
लेकर कुछ मामला हुआ था। वे साल भर सस्पैंड रहे थे। 
यह मामला अखबार में भी छपा था। मामला रफा-दफा 
हो गया और उनका तबादला इस शहर में हो गया।

डिप्टी साहब के इस मकान में आने के पहले ही उनके विभाग 
का एक आदमी मुहल्ले में आकर कह गया था कि यह 
बहुत बदचलन, चरित्रहीन आदमी है। जहाँ रहा, वहीं 
इसने बदमाशी की। यह बात सारे तेरह किराएदारों में फैल गई।

किराएदार आपस में कहते - यह शरीफ आदमियों का मोहल्ला है। 
यहाँ ऐसा आदमी रहने आ रहा है। चौधरी साहब ने इस 
आदमी को मकान देकर अच्छा नहीं किया।

कोई कहते - बहू-बेटियाँ सबके घर में हैं। यहाँ ऐसा दुराचारी 
आदमी रहने आ रहा है। भला शरीफ आदमी यहाँ कैसे रहेंगे।

डिप्टी साहब को मालूम था कि मेरे बारे में खबर इधर पहुँच चुकी है। 
वे यह भी जानते थे कि यहाँ सब लोग मुझसे नफरत करते हैं। 
मुझे बदमाश मानते हैं। वे इस माहौल में अड़चन महसूस करते थे। 
वे हीनता की भावना से ग्रस्त थे। नीचा सिर किए आते-जाते थे। 
किसी से उनकी दुआ-सलाम नहीं होती थी।

इधर मुहल्ले के लोग आपस में कहते थे - शरीफों के मुहल्ले 
में यह बदचलन आ बसा है।

डिप्टी साहब का सिर्फ मुझसे बोलचाल का संबंध स्थापित हो 
गया था। मेरा परिवार नहीं था। मैं अकेला रहता था। डिप्टी 
साहब कभी-कभी मेरे पास आकर बैठ जाते। वे अकेले
रहते थे। परिवार नहीं लाए थे।

एक दिन उन्होंने मुझसे कहा - ये जो मिस्टर दास हैं, ये रेलवे के 
दूसरे पुल के पास एक औरत के पास जाते हैं। बहुत बदचलन औरत है।

दूसरे दिन मैंने देखा, उनकी गर्दन थोड़ी सी उठी है।

मुहल्ले के लोग आपस में कहते थे - शरीफों के मुहल्ले में 
यह बदचलन आ गया।

दो-तीन दिन बाद डिप्टी साहब ने मुझसे कहा - ये जो मिसेज चोपड़ा हैं, इनका इतिहास आपको मालूम है? जानते हैं इनकी शादी कैसे हुई? तीन आदमी इनसे फँसे थे। इनका पेट फूल गया। बाकी 
दो शादीशुदा थे। चोपड़ा को इनसे शादी करनी पड़ी।

दूसरे दिन डिप्टी साहब का सिर थोड़ा और ऊँचा हो गया।

मुहल्ले वाले अभी भी कह रहे थे - शरीफों के मुहल्ले में 
कैसा बदचलन आदमी आ बसा।

तीन-चार दिन बाद फिर डिप्टी साहब ने कहा - श्रीवास्तव साहब 
की लड़की बहुत बिगड़ गई है। ग्रीन होटल में पकड़ी गई थी 
एक आदमी के साथ।

डिप्टी साहब का सिर और ऊँचा हुआ।

मुहल्ले वाले अभी भी कह रहे थे - शरीफों के मुहल्ले में 
यह कहाँ का बदचलन आ गया।

तीन-चार दिन बाद डिप्टी साहब ने कहा - ये जो पांडे साहब हैं, 
अपने बड़े भाई की बीवी से फँसे हैं। सिविल लाइंस में 
रहता है इनका बड़ा भाई।

डिप्टी साहब का सिर और ऊँचा हो गया था।

मुहल्ले के लोग अभी भी कहते थे - शरीफों के 
मुहल्ले में यह बदचलन कहाँ से आ गया।

डिप्टी साहब ने मुहल्ले में लगभग हर एक के बारे में कुछ पता लगा लिया था। मैं नहीं कह सकता कि यह सब सच था या 
उनका गढ़ा हुआ। आदमी वे उस्ताद थे। ऊँचे कलाकार।
हर बार जब वे किसी की बदचलनी की खबर देते, उनका 
सिर और ऊँचा हो जाता।

अब डिप्टी साहब का सिर पूरा तन गया था। चाल में अकड़ 
आ गई थी। लोगों से दुआ सलाम होने लगी थी। कुछ 
बात भी कर लेते थे।

एक दिन मैंने कहा - बीवी-बच्चों को ले आइए न। 
अकेले तो तकलीफ होती होगी।

डिप्टी साहब ने कहा - अरे साहब, शरीफों के मुहल्ले में 
मकान मिले तभी तो लाऊँगा बीवी-बच्चों को।

-हरिशंकर परसाई 

Sunday, June 17, 2018

" भारत भाग्य... "....कमलकिशोर पाण्डेय



बोला था -
घर घर जाओ,
जाकर हाल पूछते आओ .

दो दिन में, दस गाँवों का
तुम  सर्वे करके लाए हो ,
सच सच बोलो, क्या फिर से
सिर्फ़ सरपंच से मिलके आए हो?

कितने भूखे हैं,
कितने लाचार .
वो शख्स समझ कहाँ पाया है ?
जो जातिवाद के चश्मे से इंसान नापता आया है.

बोला था-
हर चूल्‍हे के हर हाल को.
बेरोज़गारी के हर जाल को,
क़ैद कर लो, इन फार्मों में.

इनसे ,भारत निर्माण की 
तस्वीरें  बनेगी ,
देश बनेगा ,
तक़दीरें बनेंगी 

सच बोलो ! ये आँकड़े -
क्या खुद से भरकर आए हो?
सच सच बोलो ,क्या फिर से-
सिर्फ़ सरपंच से मिलकर आए हो?
-कमलकिशोर पाण्डेय
मूल रचना

Saturday, June 16, 2018

कुछ हाईकू.................सीमा 'सदा' सिंघल

एक मिठास
मन की मन से है
जश्‍न ईद का
............
ईदी ईद की
संग आशीषों के ये
जो नवाजती
...
चाँद ईद का
नज़र जब आये
ईद हो जाए
..
पाक़ीजा रस्‍म
निभाओ गले मिल 
ईद  के दिन
.....
नेकअमल
रोज़ेदार के लिए
जश्‍न ईद का 
..........

दुआ के संग
जब भी ईदी मिले
चेहरा खिले
-सीमा 'सदा' सिंघल

Friday, June 15, 2018

नश्तर मेरे सीने में गहराती चली गई.....महेश चन्द्र गुप्त 'ख़लिश'

उनकी जो आई याद तो आती चली गई
दिल में हज़ारों ख़्वाब वो लाती चली गई

मासूम आँखों में कोई तो राज़ था निहां
नग़मा कोई भूला सा दोहराती चली गई

जब भी मिलन उनसे हुआ तो आ गई ख़ुशी
उनकी जुदाई ग़म बहुत ढाती चली गई

जब -जब भी आई याद है रुख़्सत की वो घड़ी
नश्तर मेरे सीने में गहराती चली गई

रहते हैं मेरे साथ वो हर दम ख़लिश कि यूँ
रूह रास्ता सहरा में दिखलाती चली गई.

 बहर --- २२१२  २२१२  २२१२  १२

-महेश चन्द्र गुप्त 'ख़लिश'

Thursday, June 14, 2018

एक बूंद का आत्म बोध....कुसुम कोठारी



पयोधर से निलंबित हुई
अच्युता का भान एक क्षण
फिर वो बूंद मगन अपने मे चली
सागर मे गिरी
पर भटकती रही अकेली
उसे सागर नही
अपने अस्तित्व की चाह थी

महावीर और बुद्ध की तरह
वो चली निरन्तर
वीतरागी सी
राह मे रोका एक सीप ने 
उस के अंदर झिलमिलाता
एक मोती बोला
एकाकी हो कितनी म्लान हो,
कुछ देर और
बादलों के आलंबन मे रहती
मेरी तरह स्वाती नक्षत्र मे
बरसती तो देखो
मोती बन जाती
बूंद ठिठकी
फिर लूं आलंबन सीप का !!
नही मुझे अपना अस्तित्व चाहिये
सिद्ध हो विलय हो जाऊं एक तेज मे।

कहा उसने.... 
बूंद हूं तो क्या
खुद अपनी पहचान हूं 
मिल गई गर समुद्र मे क्या रह जाऊंगी
कभी मिल मिल बूंद ही बना सागर 
अब सागर ही सागर है,बूंद खो गई
सीप का मोती बन कैद ही पाऊंगी 
निकल भी आई बाहर तो   
किसी गहने मे गूंथ जाऊंगी
मै बूंद हूं स्वयं अपना अस्तित्व
अपनी पहचान बनाऊंगी। 
-कुसुम कोठारी

Wednesday, June 13, 2018

पा ही जाओगे कोई मोती....भारत भूषण


ये उर-सागर के सीप तुम्हें देता हूँ ।
ये उजले-उजले सीप तुम्हें देता हूँ ।

है दर्द-कीट ने 
युग-युग इन्हें बनाया
आँसू के 
खारी पानी से नहलाया

जब रह न सके ये मौन, 
स्वयं तिर आए
भव तट पर 
काल तरंगों ने बिखराए

है आँख किसी की खुली 
किसी की सोती
खोजो, 
पा ही जाओगे कोई मोती

ये उर सागर की सीप तुम्हें देता हूँ
ये उजले-उजले सीप तुम्हें देता हूँ

-भारत भूषण

Tuesday, June 12, 2018

सीप में मोती......रजनी भार्गव


मैंने अनजाने ही भीगे बादलों से पूछा
छुआ तुमने क्या
उस सीप में मोती को
बादलों ने नकारा उसे
बोले दुहरी है अनुभूति मेरी
बहुत सजल है सीप का मोती
मेरा सोपान नहीं
स्वप्न नहीं
अपने में एक गिरह लिए रहता है
समुद्र का शोर लिए रहता है

मैं छू भी लूँ उसको
तो भी वो अपने अस्तित्व लिए रहता है
कथन हो या कहानी वो
एक पात्र बना रहता है
अँजुलि भर पी भी लूँ
तो भी वो एक मरुस्थल बना रहता है
यह वो एकाकी है जो मुझे छूती है
मुझे नकार मुझे ही अपनाती है
सीप में मोती बन स्वाति नक्षत्र को दमका जाती है
मेरा ही पात्र बन मुझे ही अँगुलि भर पानी पिला जाती है
इसी गरिमा को अपना मुझे ही छू जाती है।
मैं यही अनुभूति लिए
नकारते हुए अपनाते हुए
भीगते हुए बहते हुए
सीप में ही मोती बन जाती हूँ।
- रजनी भार्गव

मूल रचना

Monday, June 11, 2018

पिछले पन्नों में‍ लिखी जाने वाली कविता......तिथि दानी


अक्सर पिछले पन्नों में ही
लिखी जाती है कोई कविता
फिर ढूंढती है अपने लिए
एक अदद जगह
उपहारस्वरूप दी गई
किसी डायरी में
फिर किसी की जुबां में
फिर किसी नामचीन पत्रिका में

फिर भी न जाने क्यों
भटकती फिरती है ये मुसाफिर
खुद को पाती है एकदम प्यासा
अचानक इस रेगिस्तान में
उठते बवंडर संग उड़ चलती हैं ये
बवंडर थककर खत्म कर देता है
अपना सफर
लेकिन ये उड़ती जाती हैं
और फैला देती है
अपना एक-एक कतरा
उस अनंत में जो रहस्यमयी है।
लेकिन एक खास बात
इसके बारे में,
आगोश से इसके चीजें
गायब नहीं होतीं
और न ही होती है
इनकी इससे अलग पहचान

लेकिन यह कविता
शायद! अपने जीवनकाल में
सबसे ज्यादा खुश होती है
यहां तक पहुंचकर
क्योंकि
ब्रह्माण्ड के नाम से जानते हैं
हम सब इसे।
-तिथि दानी