Showing posts with label कविता कोश. Show all posts
Showing posts with label कविता कोश. Show all posts

Saturday, April 6, 2019

उघड़ी चितवन.... द्विजेन्द्र 'द्विज'

उघड़ी चितवन
खोल गई मन

उजले हैं तन
पर मैले मन

उलझेंगे मन
बिखरेंगे जन

अंदर सीलन
बाहर फिसलन

हो परिवर्तन
बदलें आसन

बेशक बन—ठन
जाने जन—जन

भरता मेला
जेबें ठन—ठन

जर्जर चोली
उधड़ी सावन

टूटा छप्पर
सर पर सावन

मन ख़ाली हैं
लब ’जन—गण—मन’

तन है दल—दल
मन है दर्पन

मृत्यु पोखर
झरना जीवन

निर्वासित है
क्यूँ ‘जन—गण—मन’

खलनायक का
क्यूँ अभिनंदन

-द्विजेन्द्र 'द्विज'

Monday, March 18, 2019

अभी न होगा मेरा अन्त....पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'

अभी न होगा मेरा अन्त 

अभी-अभी ही तो आया है 
मेरे वन में मृदुल वसन्त- 
अभी न होगा मेरा अन्त 

हरे-हरे ये पात, 
डालियाँ, कलियाँ कोमल गात! 

मैं ही अपना स्वप्न-मृदुल-कर 
फेरूँगा निद्रित कलियों पर 
जगा एक प्रत्यूष मनोहर 

पुष्प-पुष्प से तन्द्रालस लालसा खींच लूँगा मैं, 
अपने नवजीवन का अमृत सहर्ष सींच दूँगा मैं, 

द्वार दिखा दूँगा फिर उनको 
है मेरे वे जहाँ अनन्त- 
अभी न होगा मेरा अन्त। 

मेरे जीवन का यह है जब प्रथम चरण, 
इसमें कहाँ मृत्यु? 
है जीवन ही जीवन 
अभी पड़ा है आगे सारा यौवन 
स्वर्ण-किरण कल्लोलों पर बहता रे, बालक-मन, 

मेरे ही अविकसित राग से 
विकसित होगा बन्धु, दिगन्त; 
अभी न होगा मेरा अन्त।

- पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'

Tuesday, October 30, 2018

मिली है ज़िन्दगी तुझको....कुँवर बेचैन

ये लफ़्ज़ आईने हैं मत इन्हें उछाल के चल,
अदब की राह मिली है तो देखभाल के चल ।

कहे जो तुझसे उसे सुन, अमल भी कर उस पर,
ग़ज़ल की बात है उसको न ऐसे टाल के चल ।

सभी के काम में आएँगे वक़्त पड़ने पर,
तू अपने सारे तजुर्बे ग़ज़ल में ढाल के चल ।

मिली है ज़िन्दगी तुझको इसी ही मकसद से,
सँभाल खुद को भी औरों को भी सँभाल के चल ।

कि उसके दर पे बिना माँगे सब ही मिलता है,
चला है रब कि तरफ़ तो बिना सवाल के चल ।

अगर ये पाँव में होते तो चल भी सकता था,
ये शूल दिल में चुभे हैं इन्हें निकाल के चल ।

तुझे भी चाह उजाले कि है, मुझे भी 'कुँअर'
बुझे चिराग कहीं हों तो उनको बाल के चल ।
Kunwarbechain.jpg
-कुँवर बेचैन

Friday, March 3, 2017

पता नहीं...........डॉ. अमरजीत कौंके
















पता नहीं
कितनी प्यास थी उसके भीतर
कि मैं
जिसे अपने समुद्रों पर
बहुत गर्व था
उसके सामने
पानी का एक छोटा-सा
क़तरा बन जाता

पता नहीं
कितनी अग्नि थी उसके भीतर
कि मैं
जिसे अपने सूरजों पर
बहुत गर्व था
उसके सामने
एक छोटा-सा
जुगनू बन जाता

पता नहीं
कितना प्यार था उसके भीतर
कि मैं
जिसे अपनी बेपनाह मोहब्बत पर
बहुत गर्व था
उसके सामने
मेरा सारा प्यार
एक तिनका-मात्र रह जाता

पता नहीं
कितनी साँस थी उसके भीतर
कि मैं
जिसे अपनी लम्बी साँसों पर
बहुत गर्व था
उसके पास जाता
तो मेरी साँस टूट जाती

पता नहीं
कितने मरूस्थल थे उसके भीतर
कि मैं
जिसे अपने जलस्रोतों पर
बहुत गर्व था
उसकी देह में
एक छोटे से झरने की भाँति
गिरता और सूख जाता

पता नहीं
कितने गहरे पाताल थे उसके भीतर
कि मैं
जिसे बहुत बड़ा तैराक होने का भ्रम था
उसकी आँखों में देखता
तो अंतहीन गहराइयों में
डूब जाता
डूबता ही चला जाता।
- डॉ. अमरजीत कौंके

मूल पंजाबी से हिंदी में रूपांतर : स्वयं कवि द्वारा

डॉ. अमरजीत कौंके 
कवि परिचयः
साहित्य अकादमी की दिल्ली और से पंजाबी के कवि , संपादक और अनुवादक डा. अमरजीत कौंके सहित 23 भाषाओँ के लेखकों को वर्ष 2016 के लिए अनुवाद पुरस्कार देने की घोषणा की गई है. अमरजीत कौंके को यह पुरस्कार पवन करन की पुस्तक ” स्त्री मेरे भीतर ” के पंजाबी अनुवाद ” औरत मेरे अंदर ” के लिए प्रदान किया जाएगा. अमरजीत कौंके पंजाबी और हिन्दी साहित्य में जाने पहचाने कवि हैं. उनके 7 काव्य संग्रह पंजाबी में और 4 काव्य संग्रह हिंदी में प्रकाशित हो चुके हैं.अनुवाद के क्षेत्र में अमरजीत कौंके ने डा. केदारनाथ सिंह, नरेश मेहता, अरुण कमल, कुंवर नारायण, हिमांशु जोशी, मिथिलेश्वर, बिपन चंद्रा सहित 14 पुस्तकों का हिंदी से पंजाबी तथा वंजारा बेदी, रविंदर रवि, डा.रविंदर , सुखविंदर कम्बोज, बीबा बलवंत, दर्शन बुलंदवी, सुरिंदर सोहल सहित 9 पुस्तकों का पंजाबी से हिंदी में अनुवाद किया है. 

Saturday, December 24, 2016

कभी इससे मेरी भी दोस्ती थी.... फिराक गोरखपुरी



यूँ माना ज़ि‍न्दगी है चार दिन की 
बहुत होते हैं यारो चार दिन भी

ख़ुदा को पा गया वायज़ मगर है 
ज़रूरत आदमी को आदमी की 

बसा-औक्रात1 दिल से कह गयी है 
बहुत कुछ वो निगाहे-मुख़्तसर भी 

मिला हूँ मुस्कुरा कर उससे हर बार 
मगर आँखों में भी थी कुछ नमी-सी 

महब्बत में करें क्या हाल दिल का 
ख़ुशी ही काम आती है न ग़म की 

भरी महफ़ि‍ल में हर इक से बचा कर 
तेरी आँखों ने मुझसे बात कर ली 

लड़कपन की अदा है जानलेवा 
गज़ब ये छोकरी है हाथ-भर की

है कितनी शोख़, तेज़ अय्यामे-गुल2 पर 
चमन में मुस्कुहराहट कर कली की 

रक़ीबे-ग़मज़दा3 अब सब्र कर ले 
कभी इससे मेरी भी दोस्ती थी 
फिराक गोरखपुरी 

1- कभी-कभी, 2- बहार के दिन, 3- दुखी प्रतिद्वन्द्वी 


Friday, September 16, 2016

अनुपस्थिति ....... कुमार अनुपम





















यहां
तुम नहीं हो

तुम्हारी अनुपस्थिति के बराबर
सूनापन है विचित्र आवाजों से सरोबार
धान की हरी-हरी आभा
और महक है
मानसून की पहली फुहार की छुवन
और रस है

तुम नहीं हो यहां
तुम्हारी अनुपस्थिति है।

.......

नाम

जिस नाम से पुकारकर
मां थमा देती थी उसे सामान का खर्रा
मित्र उस नाम से अनजान थे

मित्र उसे ही समझते थे वास्तविक नाम
महिम तुक पुकारने पर जिसका
वह फांद आता था दीवार

एक नाम उसका
पहचान की पुस्तक-सा
खुला रहता था जिसकी भाषा
नहीं समझती थी उसकी प्रेमिका

जिस नाम से अठखेलियां करती थी उसकी प्रेमिका
वह अन्य सबके लिए हास्यापद ही था

इस तरह
सबके हिस्से में
हंसी बांटने की भरसक कोशिश करता डाकिए-सा
जब हो जाता था पसीना-पसीना
वह खोल देता था अपने जूते
अपनी आंखें मूंदकर
कुछ देर सोचता था-
अपने नामों और अपने विषय में
हालांकि ऐसा कम ही मिलता था एकांत।

-कुमार अनुपम