एक बेचारी
एक बड़ी
लिए छड़ी
वह थी खड़ी –
मैंने पूछा, कौन हो तुम?
कुछ ना बोली
हो गई गुम
मैं हैरान थी --
वो देवी थी
या पिशाचिनी थी
सोचकर धड़का मन
तभी आहट आई
छन --
उफ ! रूह कांप गई
गला सूख गया
देख के उसको दिल डूब गया
गर्द भरे रूखे केश लहराते थे
पीत मुख पर
उदासी के साये गहराते थे
शरीर जर्जर, आंखें वीरान थीं
पपड़ाये होठों पर दर्द भरी
अधूरी सी मुस्कान थी
एक बड़ी लिए छड़ी
सच, वही तो थी खड़ी !
पूछा कौन हो तुम ?
बोली-- जानना है तो सुन
मैं दुखियारी हूँ,गमों की मारी हूँ
कुछ पूजते हैं,बाकी लूटते हैं
खरीदते हैं, बेचते हैं
निर्दोष हूँ पर मारते कूटते हैं
दिखाकर लाठी कहा --
यह मेरी वोट रूपी शक्ति है
आह! इसी से मुझे सरेआम पीटते हैं
प्रजातंत्र की मुझे मिली है सजा
मैं प्रजा हूँ --- एक बेचारी प्रजा
© पूजा
27/6/85