तराश कर मेरे बाजू उड़ान छोड़ गया,
हवा के पास बरहना कमान छोड़ गया।
रफ़ाक़तों का मेरी ओर उसको ध्यान कितना था,
ज़मीन ले ली मगर आसमान छोड़ गया।
अज़ीब शख़्स था बारिश का रंग देख के भी,
खुले दरीचे पे इक फूलदान छोड़ गया।
जो बादलों से भी मुझको छुपाए रखता था,
बढ़ी है धूप तो बे-साएबान छोड़ गया।
निकल गया कहीं अनदेखे पानियों की तरफ,
ज़मी के नाम खुला बादबान छोड़ गया।
उक़ाब को थी ग़रज़ फ़ाख़्ता पकड़ने से,
जो गिर गई तो यूँही नीम-जान छोड़ गया।
न जाने कौन सा आसेब दिल में बस्ता है,
कि जो भी ठहरा वो आख़िर मकान छोड़ गया।
अक़ब में गहरा समुंदर है सामने जंगल,
बेहतरीन
ReplyDeleteलाजवाब
वाह !
परवीन जी के कलाम मुझे बेहद पसंद हैं.
ReplyDeleteलाजवाब.
जो बादलों से भी मुझको छुपाए रखता था,
ReplyDeleteबढ़ी है धूप तो बे-साएबान छोड़ गया।...
बेहतरीन गजल
वाह
ReplyDeleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी यह प्रस्तुति BLOG "पाँच लिंकों का आनंद"
( http://halchalwith5links.blogspot.in ) में
गुरुवार 24 जनवरी 2019 को प्रकाशनार्थ 1287 वें अंक में सम्मिलित की गयी है।
प्रातः 4 बजे के उपरान्त प्रकाशित अंक अवलोकनार्थ उपलब्ध होगा।
चर्चा में शामिल होने के लिए आप सादर आमंत्रित हैं, आइयेगा ज़रूर।
सधन्यवाद।
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 24.01.2019 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3226 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
वाह बहुत खूबसूरत!
ReplyDeleteहर शेर बेमिसाल।
खूबसूरत कलाम।
ReplyDeleteपरवीन शाक़िर का जवाब तो वो ख़ुद ही हो सकती हैं.
ReplyDeleteBahut khoobsurat rachna
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति।
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