Wednesday, January 23, 2019

यूँही नीम-जान छोड़ गया......परवीन शाकिर

तराश कर मेरे बाजू उड़ान छोड़ गया,
हवा के पास बरहना कमान छोड़ गया।

रफ़ाक़तों का मेरी ओर उसको ध्यान कितना था,
ज़मीन ले ली मगर आसमान छोड़ गया।

अज़ीब शख़्स था बारिश का रंग देख के भी,
खुले दरीचे पे इक फूलदान छोड़ गया।

जो बादलों से भी मुझको छुपाए रखता था,
बढ़ी है धूप तो बे-साएबान छोड़ गया।

निकल गया कहीं अनदेखे पानियों की तरफ,
ज़मी के नाम खुला बादबान छोड़ गया।

उक़ाब को थी ग़रज़ फ़ाख़्ता पकड़ने से,
जो गिर गई तो यूँही नीम-जान छोड़ गया।

न जाने कौन सा आसेब दिल में बस्ता है,
कि जो भी ठहरा वो आख़िर मकान छोड़ गया।

अक़ब में गहरा समुंदर है सामने जंगल,
किस इंतिहा पे मेरा मेहरबान छोड़ गया।
-परवीन  शाकिर

11 comments:

  1. परवीन जी के कलाम मुझे बेहद पसंद हैं.
    लाजवाब.

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  2. जो बादलों से भी मुझको छुपाए रखता था,
    बढ़ी है धूप तो बे-साएबान छोड़ गया।...
    बेहतरीन गजल

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  3. नमस्ते,

    आपकी यह प्रस्तुति BLOG "पाँच लिंकों का आनंद"
    ( http://halchalwith5links.blogspot.in ) में
    गुरुवार 24 जनवरी 2019 को प्रकाशनार्थ 1287 वें अंक में सम्मिलित की गयी है।

    प्रातः 4 बजे के उपरान्त प्रकाशित अंक अवलोकनार्थ उपलब्ध होगा।
    चर्चा में शामिल होने के लिए आप सादर आमंत्रित हैं, आइयेगा ज़रूर।
    सधन्यवाद।

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  4. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 24.01.2019 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3226 में दिया जाएगा

    धन्यवाद

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  5. वाह बहुत खूबसूरत!
    हर शेर बेमिसाल।

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  6. परवीन शाक़िर का जवाब तो वो ख़ुद ही हो सकती हैं.

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  7. सुन्दर प्रस्तुति।

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