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दिल सलामत भी नहीं और ये टूटा भी नहीं ।
दर्द बढ़ता ही गया जख़्म कहीं था भी नहीं ।।
कास वो साथ किसी का तो निभाया होता ।
क्या भरोसा करें जो शख्स किसी का भी नहीं ।।
क़त्ल का कैसा है अंदाज़ ये क़ातिल जाने ।
कोई दहशत भी नहीं है कोई चर्चा भी नहीं ।।
मैकदे में हैं तेरे रिंद तो ऐसे साकी ।
जाम पीते भी नही और कोई तौबा भी नहीं ।।
सोचते रह गए इज़हारे मुहब्बत होगी ।
काम आसां है मगर आपसे होता भी नहीं ।।
वो बदल जाएंगे इकदिन किसी मौसम की तरह।
इश्क से पहले कभी हमने ये सोचा भी नहीं ।।
रूठ कर जाने की फ़ितरत है पुरानी उसकी ।
मैंने रोका भी नहीं और वो रुकता भी नहीं ।।
कोशिशें कुछ तो ज़रा कीजिए अपनी साहब ।
मंजिलें ख़ुद ही चली आएंगी ऐसा भी नहीं ।।
हिज्र के बाद तो जिंदा रही इतनी सी ख़लिश ।
हाले दिल आपने मेरा कभी पूछा भी नहीं ।।
-डॉ.नवीन मणि त्रिपाठी