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Thursday, October 17, 2019

चार किताबें पढ़ कर ये भी हम जैसे हो जाएँगे ...निदा फ़ाजली

एक महफ़िल में कई महफ़िलें होती हैं शरीक 
जिस को भी पास से देखोगे अकेला होगा 

बच्चों के छोटे हाथों को चाँद सितारे छूने दो 
चार किताबें पढ़ कर ये भी हम जैसे हो जाएँगे 

नक़्शा उठा के कोई नया शहर ढूँढिए 
इस शहर में तो सब से मुलाक़ात हो गई 

तुम से छुट कर भी तुम्हें भूलना आसान न था 
तुम को ही याद किया तुम को भुलाने के लिए 

कुछ भी बचा न कहने को हर बात हो गई 
आओ कहीं शराब पिएँ रात हो गई 

हम लबों से कह न पाए उन से हाल-ए-दिल कभी 
और वो समझे नहीं ये ख़ामुशी क्या चीज़ है 

सब कुछ तो है क्या ढूँडती रहती हैं निगाहें 
क्या बात है मैं वक़्त पे घर क्यूँ नहीं जाता 

उस को रुख़्सत तो किया था मुझे मालूम न था 
सारा घर ले गया घर छोड़ के जाने वाला 

दिल में न हो जुरअत तो मोहब्बत नहीं मिलती 
ख़ैरात में इतनी बड़ी दौलत नहीं मिलती 

गिरजा में मंदिरों में अज़ानों में बट गया 
होते ही सुब्ह आदमी ख़ानों में बट गया 

बरसात का बादल तो दीवाना है क्या जाने 
किस राह से बचना है किस छत को भिगोना है 

ये शहर है कि नुमाइश लगी हुई है कोई 
जो आदमी भी मिला बन के इश्तिहार मिला 
-निदा फ़ाजली