सत्तर ऊपर सात हैं, बाकी हैं कुछ एक
ईश्वर के दरबार में अब तो माथा टेक
बाजू में अब दम नहीं, धीरे उठते पाँव
यौवन मद का ही रहा था अब तक अतिरेक
क्यों है ढलती उम्र में तू माया से ग्रस्त
बिन ललचाए काम तू करता जा बस नेक
इस दुनिया में मिल सका कब तुझको है मान
होगा दूजे लोक में संतों सा अभिषेक
हासिल तुझको हैं सभी सुख के साधन आज
मत तू उनमें लिप्त हो, मत तज ख़लिश विवेक.
बहर --- २२२२ २१२२ // २२२२ १
-महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’
अति सुंदर लेखन
ReplyDeleteगणतंत्र दिवस की शभकामनाएं
ReplyDeleteशाश्वत ।
ReplyDeleteअप्रतिम।
गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं। सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteगणतंत्र दिवस की शभकामनाएं सुंदर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (27-01-2019) को "गणतन्त्र दिवस एक पर्व" (चर्चा अंक-3229) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
गणतन्त्र दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बढ़िया
ReplyDeleteबहुत सुंदर
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